Tuesday, December 16, 2008

आर्थिक मंदी की छाया से बदलती कॉपर की काया

एशिया का सबसे बड़े ताम्र उद्योग हिन्दुस्तान कॉपर लिमिटेड पर भी विश्व में छायी आर्थिक मंदी की छाया नजर आने लगी है। जहां यह उद्योग विगत घाटे की सीमा को पार करते हुए लाभांश की ओर बढ़ते कदम के बल पर मिनी रत्न से अभी हाल में ही नवाजा गया है। वहीं आज विश्व बाजार में कॉपर के लगातार गिरते जा रहे मूल्य को लेकर भावी भविष्य के प्रति चिंतित दिखने लगा है। इस तरह के हालात में आयातित सांद्रित कॉपर अयस्क से तांबा निकाला जाना कॉफी महंगा पड़ रहा है। इस उद्योग के तहत झारखंड राज्य की घाटशिला यूनिट इंडियन कॉपर कॉम्प्लैक्स, छत्तीसगढ़ राज्य की मलाजखण्ड कॉपर प्रोजेक्ट एवं राजस्थान प्रदेश की खेतड़ी कॉपर कॉम्प्लैक्स एवं कोलिहान कॉपर माइन्स फिलहाल कार्यरत है। इसी उद्योग का महाराष्ट्र तालोजा कॉपर प्रोजेक्ट भी चालू हालत में है, जहां कॉपर छड़ का उत्पादन होता है। मंदी के दौर से गुजरते उद्योग को बचाने के लिए फिलहाल उच्च प्रबंधक वर्ग ने आयातित सांद्रित अयस्क को मंगाने का कार्यक्रम रोक कर खेतड़ी कॉपर कॉम्प्लैक्स के स्मेल्टर एवं परिशोधन संयंत्र को अल्प अवधि के लिए बंद रखे जाने का कार्यक्रम बनाया है। जहां फिलहाल स्मेल्टर प्लांट को बंद कर दिया गया है एवं कुछ दिन उपरान्त परिशोधन संयंत्र को भी बंद हो जाने की स्थिति झलक रही है। इन जगहों पर कार्यरत ठेका मजदूरों को तत्काल कार्य से मुक्ति दे दी गई है जिसके वजह से इस वर्ग में उदासी एवं बेचैनी से झलक साफ-साफ देखी जा सकती है। खेतड़ी खदान में संचालित एम.इ.सी.एल. ने भी अपने अस्थायी कर्मचारियों को एक महीने का नोटिस देकर कार्यमुक्ति का पत्र थमा दिया है। जिससे मजदूर वर्ग में काफी असंतोष फैला हुआ है। इस तरह के परिवेश के साथ-साथ अस्थायी रूप से कार्यरत श्रमिक वर्ग में असुरक्षित भविष्य को लेकर चिंता घिर आयी है जहां प्रबंधक वर्ग की ओर से 20 प्रतिशत की कटौती पर स्वैच्छिक रूप से अल्प अवधि अवकाश पर जाने की खबर असंतोष का कारण बनी हुई है। अफवाहों का बाजार भी यहां गर्म देखा जा सकता है। जहां भविष्य को लेकर तरह-तरह की बातें हो रही हैं। प्रबंधक वर्ग की ओर से जहां मंदी के दौर से उद्योग को बचाने की दिशा में इस तरह के कदम को सकारात्मक बताया जा रहा है। वहीं इस तरह के परिवेश में असुरक्षित भविष्य की उभरती छाया से यहां कार्यरत श्रमिक वर्ग में उभरते अशांत भाव को आसानी से देखा जा सकता है। एक तरफ आयातित सांद्रित कॉपर अयस्क को बंद कर दिया गया है तो दूसरी ओर यहां तैयार सांद्रित कॉपर अयस्क को इस उद्योग की दूसरी इकाई झारखंड राज्य में स्थित इंडियन कॉपर कॉम्प्लैक्स को भेजे जाने का क्रम जारी है जहां ट्रांसपोर्ट पर आने वाला अनावश्यक खर्च का भार इस मंदी के दौर में कंपनी पर पड़ता साफ-साफ दिखाई दे रहा है। इस तरह के उभरते परिवेश इस उद्योग को मंदी के दौर से बचाने के कौनसे तरीके का स्वरूप परिलक्षित कर पा रहे हैं, जहां स्मेल्टर प्लांट को बंद कर तैयार सांद्रित अयस्क को दूसरे युनिट भेजा जा रहा है, विचारणीय मुद्दा है। इस तरह के परिवेश पर भी यहां चर्चा का दौर जारी तो है परंतु विरोध के उभरते स्वर कहीं भी दिखाई नहीं दे रहे हैं। इस तरह के हालात में यहां तैयार सांद्रित अयस्क को इकट्ठा कर स्मेल्टर प्लांट को पुन: शीघ्र चालू करने की योजना बनाई जानी चाहिए। इस तरह की भी यहां आम चर्चा तो है परन्तु श्रमिक वर्ग को प्रतिनिधित्व करने वाले सभी संगठन इस दिशा में मौन दिखाई दे रहे हैं।
जहां तक कॉपर अयस्क के भौगोलिक परिवेश की वास्तविकता का प्रश्न है, खेतड़ी कॉपर कॉम्प्लैक्स से जुड़ी शेखावाटी क्षेत्र का बनवास व सिंघाना क्षेत्र अभी भी इस दिशा में अव्वल है। जहां हजारों वर्ष तक अच्छे ग्रेड में तांबा निकाले जाने हेतु 1.8 प्रतिशत का कॉपर अयस्क भूगर्भ में विराजमान है। इस क्षेत्र में बनवास खदान की चर्चा तो कई बार चली। पूर्व में नये सॉफ्ट लगाने हेतु उद्धाटन भी हुआ। खदान को नये सिरे से चालू कर इस क्षेत्र से कॉपर अयस्क निकाले जाने की योजना भी बनी परंतु सभी योजनाएं कागज तक ही सिमट कर गई है। 'सदियों से गड़ा शिलान्यास का पत्थर/बन गया वहीं अब रास्ते का पत्थर। फाइलों के पर अब झरने लगे हैं/रास्ते में अभी बहुत से दफ्तर॥'
वर्तमान हालात में इस उद्योग को सही रूप से मंदी के दौर से बचाने के लिए किसी भी यूनिट को बंद करने के बजाय चालू रखने की प्रक्रिया पर बल दिया जाना चाहिए। आयातित सांद्रित कॉपर अयस्क निश्चित तौर पर महंगा पड रहा होगा। इसे बंद करने का निर्णय तो उचित माना जा सकता है परन्तु यहां तैयार सांद्रित कॉपर अयस्क को बाहर भेजने का कोई औचित्य दिखाई नहीं देता। इसे इकट्ठा कर बंद पड़ी योजनाओं को शीघ्र से शीघ्र चालू करने का जामा पहनाया जाना चाहिए। इस उद्योग को चालू रखने के लिए बनवास क्षेत्र में नई खदान शीघ्र खोले जाने की महती आवश्यकता भी है। कोलिहान एवं खेतड़ी खदाने काफी पुरानी हो चुकी है जहां अयस्क निकालना भी काफी महंगा पड़ सकता है। इस तरह के हालात में बनवास क्षेत्र में नई खदान को शीघ्र चालू कर सिंघाना क्षेत्र तक फैले भूगर्भ के 50 मिलियन टन से भी ज्यादा कॉपर अयस्क को निकाल कर इस उद्योग को आत्मनिर्भर बनाया जा सकता है। इस क्षेत्र के सांसद भी वर्तमान में केन्द्रीय खान मंत्री है। जिनसे काफी अपेक्षाएं है। इस उद्योग के अन्दर हो रहे अनावश्यक खर्च लापरवाही एवं चोरी जैसे अनुचित कार्यों पर प्रतिबंध लगाकर उद्योग को मंदी के दौर से बचाया जा सकता है।
बाजार भाव तो चढ़ते उतरते रहेंगे। इस उद्योग को अपने क्षेत्र में उपलब्ध कॉपर अयस्क को प्रचुर मात्रा में निकालकर स्वावलम्बी बनाये जाने की प्रक्रिया ही इसे बचा सकती है एवं विपरीत परिस्थितियों से मुकाबला करने की ताकत पैदा कर सकती है। कुशल प्रबंधन, संरक्षण, आत्मविश्वास एवं अयस्क के क्षेत्र में स्वावलंबन के सिध्दान्त ही इस उद्योग की गरिमा को बनाये रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हुए लगातार लाभांश की ओर इसके कदम बढा सकेंगे। इंतजार है कि यह उद्योग भी स्वावलंबी बनकर अन्य उद्योगों की भांति मिनी रत्न से नवरत्न की श्रेणी में अपने आपको खड़ा कर सके। इस दिशा में सभी के सकारात्मक सोच एवं कदम की महती आवश्यकता है जो आर्थिक मंदी की छाया से कॉपर की बदलती काया को बेहतर स्वरूप दे सकती है।

Tuesday, December 9, 2008

जो जीता वही सिकन्दर

देश में विधानसभा चुनाव संपन्न तो हो गये। जहां चुनाव उपरान्त आये परिणाम में यह बात साफ-साफ नजर आने लगी है कि पूर्व की भांति हर बार की तरह इस बार भी जनता ने विकास के पक्ष में मतदान किया है। जहां मुद्दे ज्यादा टकराये, वहां बदलाव की स्थिति देखी जा सकती है। इस दिशा में राजस्थान प्रदेश को लिया जा सकता है जहां चुनाव के दौरान सर्वाधिक मुद्दे उभरकर सामने आये तथा बागी तेवरों के वजह से अन्य राज्यों से यहां पर भिन्न स्थिति उभर पायी। दिल्ली, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश में सरकार की स्थिति वही रही, जो पूर्व में थी परन्तु राजस्थान में किसी भी दल को स्पष्ट जनादेश तो नहीं मिला है पर कांग्रेस सर्वाधिक सीट लेकर सरकार बनाने की स्थिति में उभरती दिखाई दे रही है। जब चुनाव की घोषणा हुई तो इस प्रदेश में हुए विकास कार्यों के आधार पर पुन: भाजपा सरकार की वापसी दिखाई तो दे रही थी परन्तु जैसे-जैसे चुनाव की तिथियां नजदीक आती गई एवं टिकट बंटवारे को लेकर मतभेद उभरते गये। कांग्रेस के वापस आने की स्थिति भी साफ-साफ नजर आने लगी और इसी तरह की स्थिति चुनाव उपरान्त भी प्रदेश में देखने को मिली।
आज का मतदाता पहले से ज्यादा जागरूक दिखाई दे रहा है। तभी तो चुनाव पूर्व किये सारे आंकलन चुनाव उपरान्त बदले-बदले नजर आते हैं। इस चुनाव में भी इसी तरह के हालात नजर आये। जहां सत्ताधारी दल की वापसी स्पष्ट रूप से किसी भी राज्य में नजर नहीं आ रही थी। मतदाता की जागरूकता की परख इस दिशा में भी देखी जा सकती है जहां अपने मतदान के प्रयोग के लिए मतदाता चुनाव के दौरान एक बूथ से दूसरे बूथ पर भटकता दिखाई दिया। मतदाता सूची में नाम नहीं पाकर भ्रष्ट एवं लापरवाही व्यवस्था के प्रति आक्रोश भी उसका नजर आया। हर बार की तरह भी इस बार भी मतदाता सूची में अनेक त्रुटियां उभरकर सामने आयी। जहां मतदाता सूची में से अनेक मतदाताओं के नाम नदारद पाये गये। कहीं नाम गलत है तो कहीं फोटो गलत। जो मतदाता इस धरती पर ही नहीं, उसके नाम तो सूची में मौजूद हैं पर जो विराजमान हैं उसके नाम गायब। जो बेटियां शादी उपरान्त अपने ससुराल चली गई, उसके नाम सूची में शामिल हैं पर जो घर में है वे सूची से बाहर। जो लड़का नौकरी हेतु परदेश चला गया वह सूची में मौजूद है पर जो पढ़ रहा है, साथ में रह रहा है वह सूची से गायब। आखिर मतदाता जागरूक होकर भी क्या करे? हर बार मतदाता सूची संशोधित होती है। सरकारी घोषणा की जाती है पर हर बार इस तरह की त्रुटियां मतदाता सूची में रह जाती है जिसका कारण गलत मतदान होने के आसार स्वत: उभर चलते हैं तथा सही मतदान करने से वंचित रह जाता है। वहीं आक्रोश, वहीं आवाज, वहीं भटकाव जो हर चुनाव में नजर आता है, इस चुनाव में उभरकर सामने आया। इस तरह के हालात में मतदाता की जागरूकता क्या करेगी, जहां उसे अपने मौलिक अधिकार से हर बार वंचित होना पड़ता है।
इस बार मतदान के दौरान महिलाओं में सबसे ज्यादा जागरूकता देखी तो गई परन्तु मतदान प्रक्रिया के दौरान वोट मशीन का प्रयोग इस वर्ग में विशेष रूप से अनुपयोगी सिध्द हुआ। जहां दुरूपयोग होने के आभास भी सामने आये। वोट के दौरान मशीन का प्रयोग साक्षर वर्ग के बीच तो उपयुक्त माना जा सकता है जहां आज भी निरक्षरता जारी हो और वो भी महिला वर्ग में विशेष रूप से, फिर वहां मशीन का प्रयोग मतदान के स्वरूप को कहां तक सार्थक बना पाया होगा, विचारणीय मुद्दा है। मतदान के दौरान मशीन का बार-बार खराब हो जाना तथा अधिकांश जगहों पर मशीन खराब होने की प्रारंभिक सूचना जहां राजस्थान प्रदेश के राज्यपाल को भी खराब मशीन होने के कारण मतदान करने के लिए काफी देर तक प्रतीक्षा करनी पड़ी हो, मतदान की सार्थकता पर प्रश्नचिन्ह लगाता है। मतदान के पूर्व मतदान में प्रयोग आने वाले सिस्टम की पूर्ण जानकारी मतदाताओं को होनी चाहिए। जिस दिशा में हमारा प्रशासन सदा ही लापरवाह देखा गया है। जिसके कारण मतदान की सही प्रक्रिया सदैव ही अपूर्ण रह जाती है।
मतदान के दौरान जातीय समीकरण का स्वरूप भी दिन प्रतिदिन बढ़ता ही दिखाई दिया। इस विधानसभा चुनाव में भी यह स्थिति साफ-साफ नजर आती है। जिसके प्रभाव से लोकतांत्रिक परिवेश में अस्थिरता धीरे-धीरे पांव जमाती जा रही है। इस दिशा में प्राय: सभी राजनीतिक दलों की सोच एक जैसी ही दिखती है। जहां प्रत्याशी चयन की प्रक्रिया में जातीय समीकरण को सर्वाधिक रूप से प्राथमिकता दी जाती रही है। आज यह धारणा राजनैतिक विकृति का रूप ले चुकी है। जहां से बंटवारे की बू के साथ-साथ राजनीतिक स्थिरता को भारी धक्का पहुंचा है। इस परिवेश से उभरे अनेक क्षेत्रीय दलों में राष्ट्रीय दलों की अस्मिता को खतरे में डाल दिया है।
इस विधानसभा चुनाव में बागी तेवर के बढ़ते चरण भी देखे गये। इस तरह के परिवेश प्रदेश में परिवर्तन का मुख्य कारण बने हैं। साथ ही राजनीति में भ्रष्ट व्यवस्था को भी पनपने का मौका दिया है। राजनीतिक दलों ने नये चेहरे तो उतारे परन्तु नये चेहरों की कीमत भी उसे कहीं-कहीं चुकानी पड़ी है। वंशवाद एवं भाई-भतीजावाद की छाप को वैसे आम जनता ने स्वीकार तो नहीं किया है परन्तु बागी प्रत्याशियों के तेवर से इस हालात में कोई खास परिवर्तन नहीं देखा जा सकता। प्रदेश में भीतरघात से बदलते राजनीति के तेवर देखे जा सकते हैं।
आज चुनाव आयोग के अंकुश के बावजूद भी चुनाव दिन पर दिन महंगे होते जा रहे हैं। जहां सामान्य से व्यक्ति के लिए आज के परिवेश में चुनाव लड़ पाना कठिन ही नहीं, असंभव बन गया है। चुनाव में जिस तरह से माफिया तंत्र हावी होता जा रहा है, आने वाले समय में चुनाव में अर्थ का बोलबाला काफी बढ़ता दिखाई दे रहा है। चुनाव आयोग द्वारा चुनाव के दौरान माइक्रो ऑब्जर्वर प्राय: सफल देखा गया है जिसके कारण मतदान के अंदर होने वाली गड़बड़ी का अनुपात कम देखा गया परन्तु मतदाता परिचय पत्र होने के बावजूद भी फर्जी मतदान होने की बात हर बार की तरह की इस चुनाव में भी उभरकर सामने आयी है। जो मतदान करने वाली व्यवस्था की निष्ठा पर प्रश्नचिन्ह लगाती है। इस तरह के हालात के बीच राज्यों के हुए विधानसभा चुनाव के दौरान जो जीता वही सिकंदर।

मुद्दों की राजनीति के बीच उलझ गया है चुनावी समर

देश के विभिन्न 6 राज्यों में हो रहे विधानसभा चुनाव वर्तमान में अनेक मुद्दों के बीच उलझे दिखाई दे रहे हैं जिससे किसी भी राज्य में स्पष्ट जनादेश के लक्षण नजर नहीं आ रहे। अर्थबल एवं बाहूबल से प्रभावित लोकतंत्र की यह प्रक्रिया आज विशेष रूप से जातीय संघर्ष, वर्ग विभेद, बाहरी प्रत्याशी एवं भाई-भतीजावाद से प्रेरित विरोधी पृष्ठभूमि के बीच उलझकर रह गई। जिसकी छाप दोनों राष्ट्रीय दल कांग्रेस एवं भाजपा पर पड़ती दिखाई दे रही है। टिकट बंटवारे को लेकर इन दोनों दलों में जो मतभेद उभरकर प्रारंभ में सामने आये, वे अंत समय तक गहराते ही जा रहे हैं। जिसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है।
कुछ राज्यों में प्रारंभिक दौर के मतदान हो चुके हैं तो कुछ राज्यों में बाकी हैं। 4 दिसंबर को अंतिम दौर का मतदान है। मतदान की तिथि जैसे-जैसे नजदीक आती जा रही है, राजनीतिक दलों में उत्साह तो देखा जा रहा है परन्तु मतदान के प्रति लोगों में कहीं भी विशेष उत्साह नजर नहीं आ रहा है। जिससे आने वाले समय में लोकतंत्र की इस जागरूक पृष्ठभूमि पर मंडराता खतरा साफ-साफ नजर आ रहा है। इस तरह की उदासीनता का मूल कारण राजनीतिक पृष्ठभूमि में सही नेतृत्व का अभाव है। इस तरह के हालात प्राय: देश के सभी राजनीतिक दलों में उभरते नजर आ रहे हैं। जहां नेतृत्व की परिभाषा प्राय: गौण हो चली है। जहां राजनीति व्यापार का एक केन्द्र बन चली है। जहां केवल मतदाताओं को छलने का ही कार्यक्रम परिलक्षित नजर आ रहा है। असामाजिक तत्वों का राजनीति के क्षेत्र में बढ़ते प्रभाव ने लोकतंत्र की परिभाषा ही बदल दी है। जहां आम जन का विश्वास धीरे-धीरे इस तरह के महत्वपूर्ण पहलू पर से उठता जा रहा है। अब सभी राजनीतिक दल इस दिशा में एक जैसे लगने लगे हैं। यह स्थिति मतदान के प्रति उभरती उदासीनता का प्रमुख कारण भी मानी जा रही है। इस विधानसभा चुनाव में भी यह स्थिति देखने को मिलेगी जहां सही मतदान के प्रतिशत ग्राफ पहले से गिरते नजर आयेंगे।
विधानसभा चुनावों से जुड़े अलग-अलग राज्यों की अलग-अलग कहानी है। जो चुनावी मतदान की आंकलन को प्रभावित कर सकती है। जम्मू-कश्मीर एवं मिजोरम में आतंकवाद का ज्यादा जोर है। जहां इस गंभीर समस्या से निदान पाने के लिए विकल्प की तलाश में इन राज्यों में जुड़े मतदाता अपना निर्णय लेंगे। राजस्थान प्रदेश में सत्तापक्ष भाजपा विकास के मुद्दे पर चुनाव को प्रमुखता से लड़ती जहां दिखाई दे रही है वहीं इसके शासन काल में पनपे भ्रष्टाचार को विपक्षी कांग्रेस अपना प्रमुख हथियार बनाकर इस समर में कूद पड़ी है। इन दोनों दलों को प्रदेश में टिकट बंटवारे से उभरे आंतरिक मतभेद से गुजरना पड़ रहा है जहां इन दोनों दलों के दिग्गज समझे जाने वाले नेता कई जगहों पर निर्दलीय रूप से आमने-सामने हैं तो कई अन्य दलों को दामन थाम समर में कूद पड़े हैं। एक तरफ राज्य में विकास का मुद्दा जहां भाजपा शासन काल में हजारों लोगों को रोजगार मिला है एवं कर्मचारियों को संतुष्ट रखने की हर कोशिश की गई है तो दूसरी ओर प्रदेश में आरक्षण से जुड़े जातीय संघर्ष के बीच उभरे मुद्दे एवं टिकट बंटवारे को लेकर उभरे मतभेद को भी इस दल को झेलना पड़ रहा है। इस तरह की परिस्थिति में प्रदेश की जनता किसे महत्व देती है, यह तो चुनाव उपरान्त ही पता चल पायेगा परन्तु वर्तमान हालात में सत्ता पक्ष भाजपा को इस प्रदेश में अनेक मुद्दों के बीच से उलझना पड़ रहा है। जबकि चुनाव की घोषणा के साथ इस दल की प्रदेश में पुन: वापसी विकास के मुद्दे पर नजर आने लगी थी। जो धीरे-धीरे अन्य मुद्दों के बीच उलझ कर आज अस्पष्ट रूप धारण कर चुकी है। इसी तरह के हालात कांग्रेस का भी है जहां उसे बाहरी प्रत्याशी थोपे जाने, नेतृत्व की बागडोर का स्पष्ट रूप न होने एवं भाई-भतीजावाद से प्रेरित विरोधी पृष्ठभूमि को झेलना पड़ रहा है। प्रदेश में कांग्रेस, भाजपा के साथ-साथ बसपा, सपा, जद सहित अन्य दल एवं बागी के रूप में निर्दलीय प्रत्याशी इस चुनावी समर में नजर आ रहे हैं। इस तरह के हालात के बीच इस प्रदेश में स्पष्ट जनादेश की स्थिति उलझकर रह गई है। छत्तीसगढ़, दिल्ली व मध्यप्रदेश की वस्तुस्थिति इस प्रदेश से भिन्न है। इन राज्यों में जातीय संघर्ष के मुद्दे तो नहीं है परन्तु टिकट के बंटवारे को लेकर उभरे असंतोष जरूर व्याप्त हैं। इस तरह के हालात में स्पष्ट जनादेश की स्थिति किसी भी राज्य में नजर तो नहीं आ रही है परन्तु चुनावी विशेषज्ञ अपने-अपने आंकलन के तरीके पर कहीं कांग्रेस की बढ़त बता रहे हैं तो कहीं भाजपा की। इस तरह की घोषणाओं में हमारे ज्योतिषी भी पीछे नहीं है। जो अंकगणित के आधार पर अपनी राय व्यक्त करते नजर आ रहे हैं। इस तरह की अधिकांश घोषणाएं प्रायोजित मानी जा सकती है। जो मतदान को प्रभावित करने की दिशा में राजनैतिक दलों की चाल भी हो सकती है।
पूर्व में गुजरात में हुए चुनाव परिणाम विकास के मुद्दे को प्रभावित तो कर पाये। इस बार के विधानसभा चुनावों के परिणाम किस तरह के मुद्दे को विशेष रूप से उजागर कर पायेंगे यह तो चुनाव उपरान्त ही पता चल पायेगा। आजकल का भारतीय मतदाता पहले से ज्यादा जागरूक हो चला है। जिसके अन्दर हो रही प्रतिक्रियाओं को सही ढंग से समझ पाना किसी भी राजनीतिक दल या चुनावी विशेषज्ञ के बूते की बात नहीं है। आजकल विशेष रूप से महंगाई, आतंकवाद, क्षेत्रवाद का परिवेश भी मतदाताओं को अन्य मुद्दों के साथ प्रभावित कर सकते हैं। इस तरह के मुद्दों से गुजरती राजनीति का सही आंकलन कर पाना कठिन ही नहीं मुश्किल है। चुनाव के पूर्व अब तक घोषित सारे आंकलन पलटते नजर ही आये हैं। अनेक मुद्दों के बीच उलझा यह चुनावी समर एक नयी तस्वीर ही पेश करेगा जहां पूर्व में किये जा रहे घोषित सारे आंकलन विफल नजर आयेंगे।

Saturday, November 22, 2008

मंदासुर

नये आर्थिक युग के इस दौर में मल्टीनेशनल कम्पनियों की बाढ़ सी आ गई, जिसके पांव देश के प्रमुख महानगरों में चारों ओर पसर गये, जहां अच्छी पगार, आकर्षक सुविधाओं की चकाचौंध में देश की युवा पीढ़ी दिन पर दिन फंसती जा रही है। चार दिन की चांदनी फिर अंधेरी रात वाली कहावत चरितार्थ न हो जाय। इस तरह के आभास अभी से होने लगे हैं, जबसे आर्थिक युग का मंदासुर पैदा हो गया है। विश्व में व्याप्त आर्थिक मंदी के दौर में कई कम्पनियों के पांव उखड़ते नजर आने लगे हैं। छंटनी का दौर फिर से शुरू हो चला है। इस तरह के उभरते परिवेश से सोहनलाल का मन अप्रत्याशित भय से भयभीत हो चला है। सोहनलाल एक अच्छी मल्टीनेशनल कम्पनी में कार्यरत है जहां उसकी पगार लाखों में है, भविष्य करोड़ों के ताने-बाने में उलझा है। जिसके पांव जमीन पर नहीं आसमां पर टिके हैं। हर शाम नये युग की चकाचौंध युक्त मॉल से गुजरती है। नये आर्थिक युग के इस दौर ने उसे आज का बादशाह बना दिया है, जहां महल जैसे आशियाना है, एक नही ंदो-दो कारें हैं। जिसके बच्चे बेशकीमती सूट में सजे-धजे सबसे महंगे स्कूल में जाने लगे हैं। जिसके घर किट्टी पार्टी का दौर हर रोज होने लगा है। इस तरह की तमाम सुख-सुविधाएं उसे इस आर्थिक युग के दौर में हाथ फैलाते ही मिल गई जिसकी कल्पना कभी सपने में भी उसने नहीं की थी। उसे याद है जब इस मल्टीनेशनल कंपनी में पांव रखने से पूर्व देश के सार्वजनिक प्रतिष्ठान में एक अभियन्ता के रूप में अपनी सेवाएं दे रहा था। उस समय केवल वह एवं उसका परिवार बाजार के पास से गुजर जाता, मन की बात मन में रह जाती पर आज वह जो चाहे, बाजार से खरीद सकता है। बाजार जाना तो वह प्राय: भूल ही गया, इस युग के मॉल ने उसे इस तरह फांस लिया है जहां बाजार फीका-फीका लगने लगा है। भले ही उसके पांव मॉल के कर्ज बोझ से दबे चले जा रहे हो, पर उसे चिंता नहीं। उसकी लाखों की पगार देख मॉल भी उसे मालोंमाल करने पर तुला है। होठ खुले नहीं, सामान घर पर। आज उसके पास तमाम सुविधाओं की भरमार है। पर जब से मंदासुर की खबर उसने सुनी है, उसकी नींद हराम हो गई है। तमाम सुख-सुविधाओं के बावजूद भी वह चिंतित दिखाई देने लगा है। यदि उसकी कम्पनी को भी मंदासुर ने ग्रास बना लिया तो उसका क्या होगा? वह अच्छी तरह तमाम सुख- सुविधाओं के राज को जानता है, उसके पास सबकुछ है पर अपना केवल कहने मात्र को है। सभी सामान कर्ज के बोझ तले दबे हैं। जिसकी किश्त उसकी पगार से हर माह चली जाती है। जब मंदासुर की काली छाया उसके ऊपर भी पड़ जाय, जब उसकी लाखों की पगार हाथ से निकल जाय तब क्या होगा। उधार लिये सामानों की किश्त कहां से जमा होगी। तब न तो उसके पास महल जैसा आशियाना रह जायेगा, न बेशकीमती सामान, कार आदि। सबकुछ तो आज है पर सभी पर बैंक का अधिकार है। कल उसके पास इस तरह की तमाम चीजें तो नहीं थी पर मन पर किसी तरह का बोझ नहीं था। आज उसके पास पहले से कहीं गुणा अधिक सामान है पर अपना कहने को कुछ भी नहीं। कल हजारों की पगार पाकर उसे जो खुशी थी, आज लाखों की पगार पाकर भी वह दु:खी है। 'बाहर से हंसता है, अन्दर से रोता है, तन पर पहन लिया जो आधुनिक लिबास।' सोहनलाल इस तरह की बनावटी जिन्दगी से अब ऊबने लगा। जब से उसे यह खबर लगी कि पास की मल्टीनेशनल कंपनी को मंदासुर इस तरह निगल गया जहां कुछ भी नहीं बचा। उसका प्यारा दोस्त रमेश महल से सड़क पर आ गया। करीम ने तो आत्महत्या ही कर ली। उसके कई साथी इस मंदासुर के ग्रास बन गये। उसकी कंपनी में भी मंदासुर के पदचाप सुनाई देने लगे हैं। वह भी कब अपने साथियों की तरह महल से सड़क पर आ जाय, कोई भरोसा नहीं। यहीं सब सोचते-सोचते जब घर पहुंचा तो सामने उसकी पत्नी सावित्री खड़ी उसी का इंतजार करती मिली।
'मॉल से टेलीफोन आया था, कब से मैं मॉल जाने को तैयार बैठी हूं।' -सोहन के घर में पांव रखते ही सावित्री बोल पड़ी।
'अब मॉल के चक्कर में मत पड़ो सावित्री। वरना मंदासुर........' कहते-कहते सोहन रूक गया।
'ये मंदासुर कौन सी बला है जी.....'
'मंदासुर इस आर्थिक युग का नया पिशाच है जिसके महाजाल में उलझकर धन्ना सेठ भी कंगाल हो चले हैं।'
'इस मंदासुर से हमें क्या लेना-देना है, जल्दी तैयार हो जाओ, मॉल चलना है।'
'अब मॉल नहीं चलेंगे सावित्री। मॉल के चक्कर में पहले से ही पांव इस तरह फंस चुके हैं, जिससे निकल पाना मुश्किल है।'
'ऐसी क्या बात हो गई, सोनू के पापा। मॉल जाने से मना कर रहे हो जबकि मॉल के बिना तो हमारी जिंदगी ही चल नहीं सकती।'
'ऐसी बात नहीं सावित्री.....। मॉल तो आज बने हैं, कल तक तो हम बाजार में खड़े थे, तब ज्यादा सुखी थे, खुश थे, किसी तरह की मानसिक अशांति नहीं थी, आज मॉल ने हमें कंगाल बना दिया है। कहने को तो सबकुछ है, पर अपना कुछ भी नहीं...।'
'इस तरह क्यों कह रहे हो सोनू के पापा। आज आपको हो क्या गया है? जब से ऑफिस से आये हो, उखड़ी-उखड़ी बातें करने लगे हो....।'
'यही सच्चाई है सावित्री.... मॉल से लिए हर सामान पर बैंक का कब्जा है। यहां तक कि जिस फ्लैट में तुम रह रही हो, उस पर भी हमारा अधिकार नहीं....।'
सावित्री भी जानती थी, फ्लैट से लेकर घर के हर बेशकीमती सामान पर बैंक के कर्ज बोझ तले दबे हैं। इसी कारण वह थोड़ी देर चुप तो रही पर नारी स्वभाव, दूर तक नहीं जा सकी।
'हम बैंक की किश्त तो हर माह चुका ही रहे हैं सोनू के पापा। फिर आखिर चिंता की बात क्या?'
'जब तक पगार मिल रही है सावित्री तभी तक तो किश्त जमा हो पायेगी, जब पगार ही नहीं रहेगी तो किश्ते कहां से जमा होंगी। मॉल के चंगुल में हम पहले ही इतना ज्यादा फंस चुके हैं, कई वर्षों तक निकल पाना मुश्किल है।'
'पगार कैसे नहीं रहेगी, सोनू के पापा अभी तो आपकी पगार बढ़ने वाली भी है।'
'जब कंपनी ही नहीं रहेगी, जब हमारी नौकरी ही नहीं रहेगी, पगार कहां रहेगी सावित्री। जब से मंदासुर आया है, एक-एककर कम्पनियां इसका नेवाला बनती जा रही है। रमेश की कंपनी तो बंद हो गई, करीम की छंटनी हो गई, इन सभी के ऊपर मॉल का इतना बोझ पड़ा कि करीम ने तो आत्महत्या ही कर ली। रमेश फ्लैट छोड़ झोंपड़ी तलाश रहा है, उसे वह भी नसीब नहीं हो रही। मेरी कंपनी में भी मंदासुर आने की हलचल मची हुई है। जब से मंदासुर का नाम सुना है तबसे अनिश्चित भविष्य को लेकर ज्यादा चिंतित रहने लगा हूं। इस हालात में सावित्री तुम्हारी मदद की हमें सख्त जरूरत है, मंदासुर के आने से पहले ही हमें ठोस कदम उठाने पड़ेंगे। अपने खर्चों में कटौती करने की आदत डालनी पड़ेगी वरना आज के बाजार में हम उखड़ जायेंगे। 'ताते पांव पसारिये, जैती लाम्बी सौर' का धरातल ही हमें मंदासुर के ग्रास बनने से बचा सकेगा।
सावित्री को अब सारी बातें समझ में आ गई। मॉल की ओर बढ़ने वाले कदम थम गये। मंदासुर से बचाव के तौर तरीके में वह नये सिरे से विचार विमर्श करने की दिशा में सोहनलाल के पास आकर खड़ी हो गइ। परिवार के रक्षार्थ यही कदम उचित भी लगा।

Monday, November 10, 2008

जनतंत्र में कार्यों का मूल्यांकन ही सर्वोपरि

राजस्थान प्रदेश में विधानसभा चुनाव की सरगर्मियां तेज हो चली हैं। प्रदेश के प्रमुख दोनों राजनैतिक दल भाजपा एवं कांग्रेस इस चुनावी समर में अपनी विजय पताका फहराने एवं सत्ता पर कब्जा करने की दिशा में रणनीति के अंतिम दौर में पहुंच चुके हैं जहां टिकट वितरण को लेकर उभरे मतभेद के बीच से दोनों दलों को गुजरना पड़ रहा है। इस चुनाव में दोनों प्रमुख दलों ने पुराने रवैये को पीछे छोड़ नये चेहरे को मैदान में उतारने का फैसला लिया है, जहां तत्कालीन विधायक, मंत्री रहे जनप्रतिनिधियों के कोपभाजन का शिकार इन्हें होना पड़ रहा है। नये चेहरों में जहां अपने ही सगे संबंधियों एवं पुत्र-पुत्रियों को टिकट दिये जाने का आरोप शामिल है कहीं पैसे लेकर टिकट दिये जाने का भी प्रसंग इस बार उभरकर सामने आया है। इस तरह के आरोपों से घिरे विधानसभा की नई तस्वीर का स्वरूप क्या होगा, अभी यह कह पाना मुश्किल तो है, परन्तु 'पूत के पांव पालने में' जैसा उभरता प्रसंग नई विधानसभा को विवादों में उलझे स्वरूप को ही परिभाषित कर पा रहा है।
टिकट वितरण को लेकर तो वैसे सभी विधानसभा क्षेत्रों में मतभेद उभरकर सामने आ रहे हैं परन्तु राजस्थान प्रदेश में कांग्रेस के भीतर उभरे मतभेद ने एक नई ही तस्वीर पेश की है जहां से नेतृत्व में उभरते अविश्वास को साफ-साफ देखा जा सकता है। प्रदेश में पहली बार टिकट वितरण को लेकर कांग्रेस पार्टी कार्यालय में जो अभद्र प्रदर्शन एवं विरोध का उग्र स्वरूप परिलक्षित हुआ, जहां पार्टी के जनाधार रहे वरिष्ठ नेताओं की तस्वीर अनादर पृष्ठभूमि से गुजरती नजर आई, कांग्रेस के भावी भविष्य को अस्थिरता के पैमाने पर तलाशती नजर आ रही है। इस चुनाव में प्रदेश में कांग्रेस अभी तक नेतृत्व के मामले में भटकती नजर आ रही है वहीं सत्ताधारी भाजपा नेतृत्व की पृष्ठभूमि में स्पष्ट नजर तो आ रही है परन्तु विधानसभा चुनाव हेतु प्रत्याशियों की सूची जारी करने की प्रक्रिया में विलम्ब की रणनीति, उसके मन में व्याप्त भय को भी कहीं न कहीं उजागर अवश्य कर रही है। इस विलम्ब में उसकी रणनीति मतभेद को दूर करने की भी हो सकती है कि जितनी विलम्ब से सूची जारी होगी कम मतभेद पैदा होने की संभावना होगी। कांग्रेस ने अपनी सूची जारी कर उभरते मतभेद का आंकलन तो कर लिया है, परन्तु भाजपा इस प्रक्रिया में अभी नाप-तोल करती नजर आ रही है। भाजपा में भी टिकट वितरण के मामले में मतभेद की लहर तो व्याप्त है परन्तु सूची का अंतिम स्वरूप नजर नहीं आने से दबाव की पृष्ठभूमि भी अभी उभरकर सामने नहीं आई है। इस तरह के परिवेश से दोनों दलों को नुकसान उठाना तो पड़ सकता है।
प्रदेश में विधानसभा चुनाव की नई तस्वीर के अलग-अलग आंकलन निकाले तो जा रहे हैं परन्तु विधानसभा चुनाव को विशेष रूप से प्रभावित करने वाले कर्मचारी एवं युवा पीढ़ी की सोच में सत्ता पक्ष के विरोधी स्वर कहीं नजर नहीं आ रहे हैं। इस तरह का परिवेश फिर से प्रदेश में सत्ता पक्ष की वापसी का स्वरूप परिलक्षित करता नजर तो आ रहा है परन्तु टिकट वितरण उपरान्त उभरे मतभेद से यह परिवेश कितना स्पष्ट हो सकेगा, यह तो मतदाता के आस-पास उभरे परिवेश की तस्वीर से ही सही आंकलन किया जा सकता है। वैसे आज का मतदाता पहले से काफी सजग एवं जागरूक हो चला है जिसे मतदान के पूर्व पहचान पाना काफी कठिन है। इसी कारण मतदान पूर्व किये गये सर्वेक्षण एवं आकलन सही स्वरूप धारण नहीं कर पा रहे हैं। पूर्व चुनावों में प्रदेश में मीडिया की नजर में नं. 1 तत्कालीन मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के नेतृत्व में कांग्रेस की जो पराजय हुई, उसकी कतई उम्मीद किसी भी स्तर में नहीं थी। कर्मचारी एवं युवा वर्ग में उभरे असंतोष का स्वरूप मतदान के दौरान खुलकर सामने आया जिसका परिणाम रहा भाजपा को भारी सफलता मिली एवं सत्ता की आशा में खड़ी कांग्रेस को पराजय स्वीकार करनी पड़ी थी। इस बार भी प्रदेश का मतदाता मौन है, कोई हलचल नहीं, न पूर्व की भांति कर्मचारी एवं युवा पीढ़ी में कोई आक्रोश एवं असंतोष उभरकर भी सामने नजर नहीं आ रहा है। इस चुनाव में टिकट वितरण को लेकर उभरे मतभेद से दोनों दलों के सीट आंकलन के गणित में उलटफेर हो सकता है। प्रदेश में जातीय समीकरण का प्रभाव भी जोरों पर है। जाट समुदाय दोनों दलों में अपना प्रभुत्व कायम रखने के प्रयास में जहां सक्रिय है वहीं प्रदेश का गुर्जर समुदाय कांग्रेस के विरोध में अपना आक्रोश ज्यादा जताते नजर आ रहा है। भाजपा वर्ग से जुड़े गुर्जर समुदाय के नेतृत्व का गुर्जर आंदोलन से जुड़ाव भाजपा को राजनैतिक लाभ दिलाने का परिवेश उजागर कर सकता है। कांग्रेस के परंपरागत चले आ रहे अनुसूचित जाति एवं पिछड़ी जाति के वोट को प्रदेश में सक्रिय अन्य दल भी प्रभावित कर रहे हैं। इस चुनाव में कांग्रेस को अपने ही दल में पहली बार उभरे आक्रामक तेवर को झेलने के साथ-साथ बसपा एवं सपा से उभरे नये परिवेश का सामना जहां करना पड़ रहा है, वहीं सत्ता पक्ष भाजपा को अपने अंदर व्याप्त असंतोष से लड़ना पड़ सकता है। सत्ता पक्ष भाजपा के कार्यकाल में कर्मचारी एवं युवा वर्ग में किसी भी तरह का असंतोष तो नजर नहीं आ रहा है जिसका लाभ इस दल को मिलता दिखाई दे रहा है वहीं इस दल में रहे विधायक एवं मंत्रियों के टिकट कटने से उभरे असंतोष का परिवेश से आंकलन की नई तस्वीर उभरने के भी आसार हैं। दोनों राजनीतिक दल अपने-अपने तरीके से इस समर को जीतने की तैयारी में जुट चले हैं। दोनों के भीतरी घात के आघात का डर है। अब देखना यह है कि सत्ता के कार्यकाल के दौरान किये गये कार्यों का मूल्यांकन इस चुनाव में हावी रहता है, या दल के अन्दर उभरे मतभेद प्रभावी होते हैं। इस तरह के परिवेश में प्रदेश की नयी विधानसभा का स्वरूप परिलक्षित है।
सत्ता के दौर में जहां भाजपा अपने कार्यकाल के दौरान किये गये विकास कार्यों, दिये गये नये रोजगार की चर्चा प्रमुखता के साथ कर रही है वहीं कांग्रेस भाजपा के कार्यकाल के दौरान भूमि विवाद एवं अन्य क्षेत्रों में हुये घोटालों को तलाश रही है। एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप के बीच जारी चर्चाओं में कार्यकाल के दौरान हुई नीति की चर्चा जनमानस के बीच कौनसा स्वरूप धारण कर पाती है, सत्ता के केन्द्र बिन्दू में इस तरह के परिवेश समाहित हैं। इसी तरह का परिवेश प्राय: प्रदेश के अलावे अन्य विधानसभा क्षेत्रों में भी उभरते नजर आ रहे हैं जहां विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं। जहां एक तरफ कार्यकाल के दौरान जनमानस के बीच कार्यों का मूल्यांकन है तो दूसरी ओर दलों उभरे मतभेद। वैसे जनतंत्र में कार्यों का मूल्यांकन ही सर्वोपरि होता है। जहां प्रदेश में कांग्रेस के अनेक मुख्यमंत्री के दावेदार हैं वहीं भाजपा में एक ही मुख्यमंत्री का दावेदार है। इस तरह की स्थिति पर सत्ता के निर्णय में महत्वपूर्ण पृष्ठभूमि उभार सकती है।

Friday, October 24, 2008

मतदाता आखिर जाएं तो कहां जाएं

तुलसी कृत रामचरितमानस की पंक्तियां 'समरथ को कोई दोष न गोसाईं' आज पूर्णरूपेण भारतीय लोकतंत्र के परिवेश में भी लागू होती दिखाई दे रही हैं। जिसके पास ताकत है, जो अर्थबल, बाहुबल से संपन्न हैं, लोकतंत्र पर भी कब्जा उसी का है। इस तरह की ताकत भले ही उसे अनैतिक ढंग से ही क्यों न प्राप्त हुई है। देश का अधिकांश मतदाता उसी के पीछे दौड़ता दिखाई दे रहा है जिसके पास इस तरह की ताकत है। उसी का सम्मान करता नजर आ रहा है जिसके पास यह सबकुछ है। 'पूजे जा रहे अक्सर, देश के ही तस्कर' इस तरह का परिवेश लोकतंत्र का जीता-जागता उदाहरण बन चुका है। यह सर्वविदित है कि इस तरह की ताकत सीधे-सादे लोगों के पास तो हो नहीं सकती, यह भी जगजाहिर है कि इस तरह के परिवेश से जुड़े लोगों का नैतिकता से कोई लेना-देना नहीं। अर्थबल एवं बाहुबल जिसके पास है, वे किस तरह के लोग हैं, सभी जानते हैं, परन्तु लोकतंत्र पर इसी की छाप सर्वोपरि है। जब भी देश में चुनाव की स्थिति उभरती है चाहे पंचायती राज के चुनाव हों या विधानसभा, लोकसभा के चुनाव हों, देश के सभी राजनीतिक दल इस तरह के लोगों की तलाश में जुट जाते हैं जो ऐन-केन-प्रकारेण उन्हें सत्ता तक पहुंचा दें। इस तरह के परिवेश में अर्थबल व बाहुबल वालों पर ही नजर सभी दलों को टिकी रहती है। फिर नेतृत्व में नैतिकता का प्रश्न ही नहीं उभरता। जहां चुनाव आज दिन पर दिन महंगा होता जा रहा, जहां पानी की तरह पैसे का बहाव देखा जा सकता है। चुनाव आज जहां व्यापार का रूप ले चुका है, भ्रष्टाचारी परिवेश से कैसे मुक्ति पाई जा सकती है?
लोकतंत्र के दिन पर दिन बदलते परिवेश जहां अलोकतांत्रिकता साम्राज्य पग पसारता जा रहा है, नेतृत्व की परिभाषा पूर्णत: बदलकर लाठीतंत्र का स्वरूप धारण कर चुकी हो, आखिर मतदाता जाए तो कहां जाए, किस पर विश्वास करे, जहां हर कुएं में भांग पड़ी हो। निश्चित तौर पर इस तरह का परिवेश भारतीय लोकतंत्र के लिए घातक अवश्य है परन्तु चिन्ता किसे? भले ही देश के पूर्व उपराष्ट्रपति श्री भैंरोंसिंह शेखावत आज भ्रष्टाचार पर अपने आक्रोशात्मक तेवर व्यक्त करते हुए भारतीय मतदाताओं को अनैतिक एवं भ्रष्टाचारी को मत नहीं देने के संदेश के साथ भ्रष्ट नेतृत्व के प्रति मतदान न करने हेतु सचेत करते हैं, अच्छी बात है। पर आज के परिवेश में जहां नेतृत्व पर पूर्णरूपेण अलोकतांत्रिक परिवेश का कब्जा हो, जहां अर्थबल एवं बाहुबल का नंगा नाच हो रहा हो, जहां जातिगत जहर युक्त विषैला नाग फुंफकार कर रहा हो, पग-पग पर जहां भू-माफिया, अर्थ-माफिया, शराब-माफिया आदि सरगनाओं का नेतृत्व पर कब्जा होता जा रहा हो, बेचारा भारतीय मतदाता क्या करे, किसे चुने, किसे मत दे? इस तरह के हालात में मतदाता आखिर जाएं तो कहां जाए, जहां हर नेतृत्वधारी का इतिहास नापाक इरादों से नेस्तनाबूत है। जहां हर नेतृत्वधारी का स्वहित राष्ट्रहित से सर्वोपरि बना हुआ है।
आज देश में राजनीतिक दलों की बाढ़ सी आ गई है। हर रोज नये-नये दल उभरकर सामने आ रहे हैं। छोटे-बड़े सभी दल सत्ता तक पहुंचने के प्रयास में नैतिक मूल्यों को सबसे पहले ताक पर रख आगे बढ़ते हुए उनका दामन थाम लेते हैं जो ऐन-केन-प्रकारेण चुनावी वैतरणी को पार करा दे। इस दिशा में नैतिकता की बात करना केवल महज धोखा है। अपराधिक प्रवृत्ति से जुड़े लोगों को हर दल में प्राथमिकता के साथ प्रत्याशी तय करने की दिशा में होड़ देखी जा सकती है। इस तरह के परिवेश में राजनीतिक दलों की कथनी-करनी में व्याप्त अन्तर को साफ-साफ देखा जा सकता है। जातिगत आधार पर प्रत्याशी तय किये जाने की परम्परा राजनीतिक दलों में प्रारंभ से ही चली आ रही है। इस प्रक्रिया में दिन पर दिन बढ़ोतरी ही होती गई है। आज प्राय: सभी राजनैतिक दल इस दलगत राजनीति के शिकार हैं। जिससे अस्थिर राजनीतिक परिवेश उभरकर सामने आए हैं। अनेक क्षेत्रीय दल उभर चले हैं तथा राष्ट्रीय दल टूटते जा रहे हैं। केन्द्र एवं प्रदेश में स्थिर सरकार के गठन का स्वरूप प्राय: इस तरह के परिवेश में समाप्त हो चला है। सरकार के गठन में खरीद-फरोख्त के साथ अनैतिक परिवेश का उभरना अब स्वाभाविक हो गया है जिसे नकारा नहीं जा सकता।
इसी दलगत राजनीति से उभरी जातिवाद की संकीर्णता ने आज आरक्षण का जो जहर घोल रखा है, उससे पूरा देश संकटकालीन स्थिति के बीच दिन पर दिन उलझता जा रहा है। इससे पनपा कहर ठहरने का नाम ही नहीं ले रहा है। आज वोट की राजनीतिक रोटियां देश में पनपे अनेक दलों द्वारा सेंकी जा रही है। जातीय समीकरण से जुड़ी राजनीति ने देश को विघटन के कगार पर ला खड़ा कर दिया है। इस परिवेश से देश का कोई भी राजनीतिक दल अछूता नहीं रहा है। चुनाव के दौरान प्रत्याशी का चयन का मापदंड जातीय आधार अब प्राय: हर दल का बन चुका है। इस तरह के परिवेश के विरोध में स्वर उभरते दिखाई तो दे रहे हैं परन्तु स्वार्थप्रेरित राजनीति के तहत इस तरह के विरोधी स्वर भी टांय-टांय फिस्स होकर रह जाते हैं। जातीय समीकरण की राजनीति से सांप्रदायिकता की आग भी प्रज्ज्वलित हुई है, जिसके शिकार समाज का निर्दोष वर्ग ही हर बार हुआ है तथा वोट की राजनीति का खेल खेला जाता रहा है।
आज देश आरक्षण के साथ-साथ आतंकवाद का भी शिकार हो चला है। जगह-जगह बमकांड की घटनाएं घटती जा रही है। कब कौन शहर, नगर इसका शिकार हो जाय, कह पाना मुश्किल है। इस तरह के परिवेश को भी राजनीतिक हवा मिल रही है। दलगत राजनीतिक परिवेश से जुड़ा यह प्रसंग भी आज देश के लिए घातक बना हुआ है जहां वोट की राजनीति का घृणित खेल आसानी से देखा जा सकता है। इस तरह के परिवेश को प्राय: अपराधी प्रवृत्ति से जुड़े लोगों का अप्रत्यक्ष रूप से संरक्षण मिल रहा है, जो नेतृत्व में भी वजूद बनाये हुए हैं। वोट की राजनीति ने इस तरह के हालात को देश को राहत दिलाने के बजाय आज उलझा ज्यादा दिया है।
वोट की राजनीति के तहत पनपा देश में बढ़ता आतंकवाद, सांप्रदायवाद एवं आरक्षण की बढ़ती आग ने भ्रष्ट नेतृत्व का दामन थाम लिया है जिसे नकारा नहीं जा सकता। आज नेतृत्व में भ्रष्टाचार का बोलबाला है। अर्थ एवं बाहुबल के प्रभावी नेतृत्व की बागडोर ने लोकतंत्र के वास्तविक स्वरूप को इस तरह बदल दिया है जहां नेतृत्व में नैतिकता का स्थान नगण्य हो चला है। जिससे देश दिन पर दिन गंभीर संकट के बीच उलझता ही जा रहा है। नेतृत्व में नैतिकता के अभाव ने भ्रष्ट नेताओं की फौज खड़ी कर दी है जहां, अर्थ-माफिया, भू-माफिया, शराब-माफिया का ही बोलबाला है। 'पूजे जा रहे अक्सर, देश के ही तस्कर' इस तरह के हालात में जहां लोकतंत्र के सजग प्रहरी ही भ्रष्ट आचरण का दामन थाम लिए हैं, जहां कुर्सी के लिए सारी नैतिकता दांव पर लगी है, भारतीय मतदाता आखिर जाएं तो कहां जाएं, किसे मत दें। वह न भी दें तो भी यहां कोई फर्क नहीं पड़ने वाला, विचारणीय पहलू है।
भ्रष्ट नेताओं को मतदाता मत नहीं दे, यह कहना सहज तो है, परन्तु व्यावहारिक रूप से यह कथन कटु सत्य की तरह है। लोकतंत्र के सही स्वरूप उजागर करने के लिए यह जरूरी तो है परन्तु इस तरह के परिवेश के लिए सभी राजनीतिक दलों की सोच स्वहित से ऊपर उठकर राष्ट्रहित में बने। जातिगत, दलगत राजनीति से ऊपर उठकर सभी दल सोचें। अर्थबल एवं बाहुबल का प्रभाव लोकतंत्र से बाहर हो। चुनाव का खर्च सरकार वहन करे तथा अपराधिक प्रवृत्ति से जुड़े लोगों के चयन में सभी राजनीतिक दल नकारात्मक सोच बनाएं तभी लोकतंत्र का सही रूप उजागर हो सकेगा। देश में राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, मिजोरम, दिल्ली पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं जिनके लिए सभी राजनीतिक दल प्रत्याशी चयन की प्रक्रिया में जुड़ चले हैं। यदि यह प्रक्रिया दलगत राजनीति से ऊपर उठकर अपना स्वरूप उजागर कर पाती हैं तो लोकतंत्र के स्वरूप को सही ढंग से परिलक्षित किया जा सकता है। इस हालात में मतदाता सही प्रत्याशी के चयन में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका भी निभा सकते हैं।
-स्वतंत्र पत्रकार, डी-9, IIIए, खेतड़ीनगर-333504 (राज.)

तेते पांव पसारिए जेती लाम्बी सौर

विकास के नाम पूंजीवादी देशों द्वारा जारी इस युग के नये अध्याय आर्थिक उदारीकरण के दौर के पड़ते प्रतिकूल प्रभाव आर्थिक मंदी के उजागर स्वरूप को आसानी से देखा जा सकता है जहां आम जन की रोटी तो छिनती दिखाई देने लगी है, बढ़ती महंगाई के पांव तले हर वर्ग का जीना दूर्भर हो चला है। मल्टीइंटरनेशनल कंपनियों के नीचे एवं छठे वेतन की बीच फंसे चंद लोगों के पांव भले ही आज के बाजार में टिकते दिखाई दे रहे हो, पर आर्थिक मंदी के दौर में ये ठहराव ज्यादा दिन टिक पायेगा, कह पाना मुश्किल है, जहां इस दौर के जनक मंदासूर के नेवाला एक से एक विशाल धन्नासेठ बनता जा रहा है। शेयरों के निरंतर गिरते जा रहे भाव, बैंकों के बंद होते द्वार, बड़े-बड़े घरानों के उखड़ते पांव कौन से नये आर्थिक युग का सूत्रपात कर रहे हैं, विचारणीय मुद्दा है।
पूंजीवादी देश अमेरिका के आर्थिक जगत में जो हलचल आज मची हुई है, भलीभांति सभी परिचित हैं। नई आर्थिक नीति से उपजे मंदासूर का पहला ग्रास यहीं देश बना है जहां आर्थिक मंदी के दौर ने सभी का जीना दूर्भर कर दिया है। इनसे जुड़े सभी बैंकों की गिरती जा रही साख जहां इनके दिवालियापन होने के संकेत दे रहे हैं, आज सरकारी संरक्षण को तलाश रहे हैं। भले ही इस तरह के हालात पर पर्दा डालने का भरपूर प्रयास नई आर्थिक नीति के जनक कर रहे हों पर यह जगजाहिर हो चुका है, इस तड़क-भड़क जिन्दगी में मात्र छलावा है, जहां अंतत: रोना ही रोना है। शून्य पर खाता खोले जाने, अंधाधुंध ऋण देकर आम जीवन को तबाह करने वाले एवं बेरोजगारी के पैगाम के तहत पैसा लुटाये जाने का खेल खेलने वाले ये तमाम आर्थिक समूह आज मंदासूर का ग्रास बनते जा रहे हैं। निश्चित तौर पर इससे जुड़े लोगों के जनजीवन की क्या दशा होगी, आसानी से विचार किया जा सकता है। इस तरह के परिवेश का खुला नजारा देश के भीतर देखने को मिलने लगा है जहां अभी हाल में हवाई जगत के उड़ान से जुड़ी तमाम जिन्दगी दाने-दाने को मोहताज होती दिखाई देने लगी। जेट विमान की छंटनी एवं एयर इंडिया में छुट्टी के नाम हजारों की छंटनी का उजागर स्वरूप इस नई आर्थिक नीति से ही जुड़ा प्रसंग है जहां वेतन में प्रारंभिक दौर पर कटौती कर जेट विमान की छंटनी को फिलहाल ठहराव मिल चुका है परन्तु भविष्य खतरे से खाली नहीं। इस नई आर्थिक नीति के तहत ही देश भर में संचालित अनेक सार्वजनिक प्रतिष्ठानों, उद्योगों से जुड़े लाखों जनजीवन आज स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेकर सड़क पर भटक रहे हैं। रोजगार बेरोजगार हो चले हैं तथा नये को रोजगार नहीं, ये हालात नई आर्थिक नीतियों के तहत ही उपजे हैं जिनका नजारा आज हर जगह देश भर में देखने को मिल सकता है।
एक समय था, जब देश में बेरोजगारी खत्म करने के लिए मित्र राष्ट्रों के सहयोग से बड़े-बड़े सार्वजनिक प्रतिष्ठान खड़े किये गये। लाखों लोगों को रोजगार दिया गया। एक समय आज आ गया है जहां इन प्रतिष्ठानों से जुड़े लाखों लोगों को बेघर कर दिया जा रहा है। यह दौर नई आर्थिक नीति का है। जहां चंद लोगों पर बेपनाह दौलत लुटाई जा रही है तो तमाम जिन्दगियों को तबाह के सागर में गोते लगाने के लिए छोड़ दिया जा रहा है। इस नये आर्थिक युग के इस दौर में विकास की बातें तो खूब की जा रही है परन्तु खाली पड़े पदों पर नियमित नियुक्ति के बदले अस्थाई तौर पर भर्ती किये जाने की नई परंपरा चालू हो गई है जहां न तो सही वेतन है, न सामाजिक सुरक्षा की कोई जिम्मेवारी। ठेका पध्दति का बोलबाला है जहां लेन-देन व्यापार के तहत भ्रष्टाचार फल-फूल रहा है एवं आम जनजीवन शोषण का शिकार हो रहा है। इस तरह के दृश्य आज सभी सरकारी, अर्ध्दसरकारी, सार्वजनिक कार्यालयों, प्रतिष्ठानों, उद्योगों में देखा जा सकते हैं, जहां शोषण की जनक ठेका पध्दति का फैलाव जारी है।
नई आर्थिक नीति के दौर के पूर्व के वेतनमान के स्वरूप पर एक नजर डालें जहां नीचे से ऊपर के पदों के बीच का अंतराल नहीं के बराबर था। आज यह अंतराल काफी बढ़ चला है। आज सर्वाधिक वेतनमान लाख के आस-पास पहुंच चुका है एवं न्यूनतम 5000रू. है। यह परिवेश मल्टीइंटरनेशनल कंपनियों के कारण ही उपजा है जो इस नये आर्थिक युग की प्रमुख देन है। इस तरह के सर्वाधिक वेतनमान परिवेश के पड़ते प्रतिकूल प्रभाव को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता, जहां अनेक जिन्दगियां बर्बादी के कगार पर खड़ी होती दिखाई देने लगी है। इस तरह की व्यवस्था को पनाह देने वालों को मालूम होना चाहिए कि देश की अधिकांश जनसंख्या सामान्य वेतनमान की जिन्दगी बसर आज भी कर रही हैं जिनकी मासिक आय दो हजार से भी कम है, इस तरह के लोग मल्टीइंटरनेशनल की चकाचौंध से खड़े बाजार में कैसे टिक पायेंगे। बाजार तो सभी के लिए एक जैसा ही है। आज बाजार में सब्जी 25रू. किलो है, चावल 20रू. किलो है, गेहूं 15रू. किलो है तो ये भाव दो हजार मासिक पाने वाले के लिए भी है, दैनिक मजदूरी वालों के लिए भी है तथा पचास हजार, लाख तक मासिक पाने वालों के लिए भी है। इस तरह की विसंगतियां असंतोष का कारण्ा ही बनती है। जहां वेतनमान को लेकर एकरूपता नहीं, अधिक बिखराव है। जहां बाजार पर नियंत्रण नहीं, वहां जीवन जीना निश्चित तौर पर कठिन है। नई आर्थिक नीति ने इस दिशा में सबसे ज्यादा विसंगतियां पैदा की है जिसका खुला नजारा हर जगह देखने को मिल रहा है। एक समय ज्यादा पगार से ढली जिन्दगी अल्प पगार या बेपगार के कगार पर होते ही तबाह होती दिखाई देने लगती है, आत्महत्या के बढ़ते हालात इस तरह की बर्बाद जिन्दगी की मिसाल बनते जा रहे हैं जो नई आर्थिक नीति के तहत ज्यादा देखने को मिल रहे हैं।
नई आर्थिक नीति के तहत उपजे आर्थिक मंदी के दौर से गुजरते देश को बचाने के लिए अपनी राष्ट्रीय नीति का स्वरूप तय किया जाना चाहिए जहां आज के बाजार का स्वरूप देश की सर्वाधिक जनमानस के अनुरूप हो, जहां वेतन में व्याप्त अनेक विसंगतियों को दूर करते हुए न्यूनतम एवं उच्चतम अंतराल को अपने परिवेश के अनुरूप समेटने का प्रयास किया जाय। जहां पूरे देश में निजी, सरकारी, अर्ध्दसरकारी, सार्वजनिक सहित समस्त क्षेत्रों के वेतनमान की दशा एक जैसी रखी जाय तथा लाभांश को विकास कार्यों में लगाया जाय। जहां ठेका पध्दति से लेकर स्थाई कार्यों के तहत वेतनमान का स्वरूप एक जैसे करते हुए सामाजिक सुरक्षा से सभी को जोड़ा जाय। इस तरह के परिवेश जो स्वयं के विवेक एवं देश के अनुकूल होंगे जिस पर अन्य की छाया विराजमान नहीं होगी। निश्चित तौर पर देश को इस नये संकट के दौर से उबार सकेंगे वरना नई आर्थिक नीति से उपजे मंदासूर के ग्रास का शिकार पूरा देश हो जायेगा। वरना इस नये आर्थिक युग का यह मंदासुर एक-एककर सभी को निगल जायेगा। जब यह अपने जन्मदाता को ही नहीं बख्शा तो हमें कैसे छोड़ेगा, विचारणीय मुद्दा है। आज विश्व के एक-एक करके सभी विकसित देश इसका निवाला बनते जा रहे हैं। इसकी छाया हमारे देश पर भी नजर आने लगी है। जिसके परिणामस्वरूप बढ़ती महंगाई, घटते रोजगार, बढ़ते बेरोजगार का उभरता तथ्य स्पष्ट देखा जा सकता है। यदि समय रहते अपने देश के परिवेश के अनुरूप नई आर्थिक नीति के मायाजाल से बचते हुए कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया तो वह समय दूर नहीं जब पूरा देश इस मंदासुर का ग्रास न बन जाय। कवि वृंद ने कहा भी है 'तेते पांव पसारिये जेती लाम्बी सौर'।
-स्वतंत्र पत्रकार, डी-9, IIIए, खेतड़ीनगर-333504 (राज.)

Saturday, October 4, 2008

चुनावी मौसमी बयार के नशे में सभी तरबतर

चुनावी मौसमी बयार वातावरण में बह चली है जिसके नशे में यहां प्राय: सभी राजनीतिक दल तरबतर नजर आ रहे हैं। जिसकी झलक हर शहर, गली, मौहल्ले, नगर, महानगर में देखने को मिलने लगी है। शिकवे, शिकायत, मनाने-रिझाने का सिलसिला तेज हो चला है। नहीं पूछने पर भी दावत एवं सहानुभूति का दौर आसानी से देखा जा सकता है। बंद हाथ जुड़ चले हैं, नजरें एक-दूसरे को निहारने लगी है एवं सत्ता की गेंद अपने पाले में लाने की रणनीति का खेल शुरू हो गया है। इस वर्ष आगामी माह के अंतिम सप्ताह में कुछ प्रमुख राज्यों के विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं तो आगामी वर्ष के प्रारंभिक दौर में ही लोकसभा चुनाव की गूंज सुनाई देने की तैयारियां होने लगी है। चुनावी सरगर्मियां तेज हो चली हैं, कहीं-कहीं विधानसभा एवं लोकसभा चुनाव को साथ-साथ कराने की भी सुगबुगाहट होने लगी है। इस तरह के हालात को स्वार्थ का जामा पहनाये जाने की प्रक्रिया में सभी प्रमुख राजनीतिक दल वैचारिक मंथन में जुट चले हैं। विधानसभा चुनाव को लोकसभा चुनाव के साथ कराने की मंशा में छिपे स्वार्थ को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। इस तरह के हालात में राजनीतिक दलों की अपनी-अपनी सोच-समझ है जो स्वार्थ के इर्द-गिर्द घूमती नजर आ रही है। विधानसभा चुनाव समय पर हों या लोकसभा के साथ हों, सत्ता तक पहुंचने एवं सत्ता पर पुन: कब्जा बनाये रखने की प्रक्रिया में अपने-अपने तरीके से प्राय: देश के सभी प्रमुख राजनीतिक दल सक्रिय अवश्य हैं। परन्तु जातिगत आधार पर राजनीतिक दलों के बनते जा रहे नये समीकरण सत्ता पर एकाधिकार बनाये रखने वाले प्रमुख राजनीतिक दलों के लिए चिंता का विषय अवश्य हैं। जातिगत आधार पर उपजे इस समीकरण ने देश को राजनीतिक स्थिति में अस्थिरता के भंवरजाल में अवश्य डाल दिया है। जहां देश में अनेक छोटे-छोटे क्षेत्रीय दल पनप गये हैं जिनकी पकड़ जातिगत आधार पर दिन पर दिन मजबूत होती जा रही हैं। इस तरह के परिवेश ने राष्ट्रीय दलों के समीकरण पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हुए केन्द्र एवं प्रदेश की राजनीति को निश्चित तौर पर अस्थिर कर दिया है। जिससे आज किसी भी एक दल की सरकार का स्वयं के बलबूते पर बन पाना कतई संभव नहीं है।
आज कांग्रेस की जो स्थिति है, सभी के सामने है। देश की राजनीति में एकछत्र साम्राज्य कायम रखने वाली यह पार्टी अल्पमत में आ गई है तथा दिन पर दिन इसका ग्राफ गिरता ही जा रहा है। बदलते जातीय समीकरण में सबसे ज्यादा कमजोर इस पार्टी को ही किया है। इसके अंचल में परंपरागत चले आ रहे अनुसूचित जाति के वोटों पर बसपा ने प्रहार कर अपनी ओर खींचा तो पिछड़ी जाति के मतों पर मंडल आयोग के मार्फत सपा, जनता दल आदि ने कब्जा जमा लिया। कांग्रेस के परंपरागत चले आ रहे मुस्लिम मत भी इस तरह के परिवर्तन से अछूते नहीं रहे। कुछ बसपा की झोली में चले गये तो कुछ सपा के पास। राम मंदिर निर्माण के नाम पर कांग्रेस से जुड़े अधिकांश ब्राह्मण्ा मत भी कांग्रेस से छिटक कर भाजपा की झोली में जा गिरे। इस तरह के उत्तर भारत के दो बड़े प्रान्त बिहार एवं उत्तरप्रदेश से कभी एक नंबर पर परचम लहराने वाली राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस अल्पमत में आ गई। वर्तमान में भी इन दो राज्यों में इस पार्टी के जनाधार में कोई खास परिवर्तन नहीं दिखाई दे रहा है। जातीय समीकरण के कारण इस पार्टी के बिखरे वोट अभी भी विभिन्न क्षेत्रीय दलों की झोली में अटके पड़े हैं। इस तरह के हालात निश्चित तौर पर लोकसभा के दौरान केन्द्रीय राजनीति की स्थिरता को प्रभावित करेंगे।
फिलहाल जिन राज्यों पर विधानसभा के चुनाव होने जा रहे हैं, उन राज्यों में प्रमुख राजस्थान, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, दिल्ली हैं जहां मुख्य रूप से कांग्रेस एवं भाजपा के बीच ही आमने-सामने की टक्कर है। जातीय समीकरण्ा से देश के विभिन्न भागों में उपजे अन्य राजनीतिक दल सपा, जनता दल, जद (यू), लोकदल, बसपा, राष्ट्रवादी कांग्रेस, लोकजनशक्ति आदि भी इन राज्यों में अपना पांव टिकाने की कोशिश तो अवश्य करेंगे परन्तु इनका कोई खास जनाधार बिहार एवं उत्तरप्रदेश की तरह अभी इन राज्यों में उभर नहीं पाया है। हां, कांग्रेस एवं भाजपा के बीच के समीकरण को प्रभावित करने की इनकी वस्तुस्थिति उभरकर अवश्य सामने आ सकती है। जिस पर सत्ता के करीब पहुंचने एवं दूर होने का गणित टिका है। विधानसभा चुनाव से प्रभावित राज्य राजस्थान, मध्यप्रदेश एवं छत्तीसगढ़ में भाजपा की सरकार है तो दिल्ली में कांग्रेस की सरकार। इन राज्यों के राजनीतिक परिदृश्य भी अलग-अलग हैं। दिल्ली में दो बार कांग्रेस की सत्ता होने एवं केन्द्र में भी कांग्रेस के प्रभुत्व वाली सरकार होने से आम जनमानस के बीच उभरे असंतोष का गणित राजनीतिक परिदृश्य में उलटफेर कर सकता है। राजस्थान के परिदृश्य में वर्तमान शासित सरकार भाजपा के कार्यकाल के दौरान राज्य में रोजगार क्षेत्र के साथ-साथ अन्य क्षेत्रों में भी हुए विकास एवं कर्मचारियों को संतुष्ट रखने की रणनीति फिर से इसी सरकार की वापसी के परिवेश को उजागर तो कर रही है, परंतु चुनाव के दौरान टिकट वितरण से उपजे असंतोष एवं आरक्षण आंदोलन से उभरे परिवेश अनुमानित सीट के आंकलन को अवश्य प्रभावित कर सकते हैं। विपक्ष में बैठी कांग्रेस की नजर अवश्य सत्ता की ओर है परन्तु नेतृत्व के नाम अटके दांवपेच एवं तत्कालीन मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की नीति से भड़के कर्मचारियों की अपरिवर्तनीय मनोदशा का प्रभाव कांग्रेस के मतों पर पड़ना स्वाभाविक है। इसके साथ ही प्रदेश में उभरे क्षेत्रीय दल बसपा, सपा, लोकदल आदि के मत भी मुख्य रूप से इसी पार्टी को प्रभावित करेंगे। राज्य में तीसरे मोर्चे की प्रासंगिकता की चर्चा भी मुखर होती दिखाई देने लगी है। प्रदेश के जाट नेता जहां अपना प्रभुत्व उभारने में लगे हैं वहीं तत्कालीन मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के नाम से जुड़े मत छिटक जाने का भी खतरा इस पार्टी के लिये बरकरार है। इस पार्टी के सक्रिय राजनीति में रहे तत्कालीन विदेश मंत्री नटवर सिंह के अलग-थलग होने का भी प्रतिकूल प्रभाव चुनाव के दौरान पड़ सकता है। इस तरह प्रदेश में कांग्रेस के लिए अनेक चुनौतियां सामने हैं जहां विकास के नाम पर फिलहाल भाजपा फिर से सत्ता की गेंद को अपने पाले में लाने के प्रयास में सफल होती दिखाई दे रही है। इस दल को भी अधिकांश निष्क्रिय सिपहसालारों की पृष्ठभूमि से खतरा बना हुआ है। जो पास आते-आते सत्ता की गेंद को भी उछाल सकता है। इस तरह की स्थिति पर भी मंथन जारी है। मध्यप्रदेश एवं छत्तीसगढ़ दोनों प्रदेश के राजनीतिक परिदृश्य राजस्थान से अलग-थलग हैं पर राजस्थान की स्थिति भाजपा के लिए इन दोनों राज्यों से बेहतर मानी जा रही है। जातीय समीकरण पर आधारित चुनावों का गणित कब गड़बड़ा जाय, कह पाना मुश्किल है। पूर्व घोषित सर्वेक्षण के आंकलन मौन जनता के गर्भ में छिपे निर्णय से हमेशा भिन्न देखे जा रहे हैं। जिसके कारण फिलहाल किसी भी राजनीतिक दल के पास सत्ता की गेंद होने का स्पष्ट स्वरूप परिलक्षित नहीं हो रहा है। इस विधानसभा चुनाव में जहां भाजपा नेतृत्व को लेकर स्पष्ट है, वहीं कांग्रेस भटक रही है। इस तरह का परिवेश भी राजनीतिक गणित को प्रभावित कर सकता है। चुनावी मौसमी की इस बयार में सभी मदहोश हैं जो ऐन-केन-प्रकारेण सत्ता की गेंद को अपने पाले में लाने की रणनीति में सक्रिय हो चले हैं।


स्वतंत्र पत्रकार, डी-9, IIIए, खेतड़ीनगर-333504 (राज.)

Friday, September 12, 2008

सुविधाएं बनी जी का जंजाल

विकास की ओर अग्रसर होना चैतन्य मानवीय दृष्टिकोण तो है पर जैसे-जैसे हमारे पग विकसित दिशा की ओर बढ़ते चले जा रहे हैं, आलस्य, लापरवाही, विलासी जैसी अनेक अप्रासंगिक प्रवृत्तियों के घेरे में हम स्वत: कैद होते जा रहे है। जिसके प्रतिफल स्वरूप जीवन को असंतुलित करने वाली अनेक प्रकार की घातक बीमारियों के चंगुल में हम धीरे- धीरे फंसते जा रहे हैं। परिणामत: विकास के तहत अनेक प्रकार की सुख सुविधाओं के संसाधन बटोरकर भी सुखी जीवन से आज कोसों दूर खड़े हैं। इस परिवेश को विस्तृत रूप से जानने के लिए विकास की दिशा में बढ़ते कदम से बटोरी गई सम्पदाएं एवं उसके उपभोग को परखा जाना अति आवश्यक है। इस दिशा में प्राचीन काल के आईने में देखा जाना वास्तविकता के करीब माना जा सकता है।
प्राचीन काल में गेहूं से आटा बनाने की घर-घर में चक्की हुआ करती थी, चावल कुटाई के ओखल से लेकर घरेलू दैनिक प्रयोग में आने वाले ऐसे अनेक संसाधन होते थे जिनसे शारीरिक श्रम का होना स्वत: स्वाभाविक था, जिससे नारी वर्ग का स्वास्थ्य सदा एकदम चुस्त एवं दुरूस्त स्वरूप में देखा जा सकता। आज हर घर में आटे की चक्की, कुटाई की ओखल, मसाले पीसने की सिलवटी शरीर को चुस्त-दुरूस्त रखने वाले संसाधन गायब हो चले हैं, जिसकी जगह विकास की दिशा में बढ़ते कदम से प्राप्त आज आधुनिक संसाधन उपलब्ध हो चले हैं, जहां शारीरिक श्रम का होना कतई संभव नहीं। इस क्रिया को करने के लिए आज हमारे कदम व्यायामशाला की ओर अवश्य बढ़ चले हैं जहां व्यायाम के माध्यम से उपरोक्त संसाधन से जनित श्रम की अपेक्षा की जा रही है। कुछ इसी तरह यातायात की दिशा में बढ़े कदम ने भी कुछ इस तरह पंगु बना दिया है, जहां दो कदम की यात्रा भी सहारा ढूंढती नजर आ रही है। ऑफिस से लेकर हाट-बाजार एवं रिश्तेदारों से मिलने का क्रम भी सहारा ढूंढता नजर आने लगा है। जिसके कारण घुटनों का दर्द, शुगर, ब्लड प्रेशर जैसे अनेक खतरनाक बीमारियों के चंगुल में हम फंसते जा रहे हैं परन्तु विकास के नाम दिखावे की जिन्दगी से अपने आपको अलग नहीं कर पा रहे हैं। यातायात की दिशा में बढ़े कदम ने हमें इस कदर आलसी एवं सुविधाभोगी बना दिया है जहां सुख बटोरने की जगह दु:ख को बटोरते जा रहे हैं। शुध्द वातावरण की जगह दूषित वातावरण्ा जनित श्वांस लेकर घुट-घुट कर जीना सीख लिया हैं। महानगर की जिन्दगी जहां सड़क छोटी होती जा रही है, कितनी कष्टदायी है, देखा जा सकता है जहां से हर गुजरने वाला दु:खी तो है, पर मौन है। विश्व का जनसंख्या में सबसे बड़े देश चीन में विकास की दिशा में बढ़े कदम को देखा जा सकता है जहां आज भी यातायात में साईकिल की प्रधानता बनी हुई है। इस परिवेश ने चीन को प्रदूषण मुक्त रखने के साथ-साथ शारीरिक श्रम से भी वहां के जनजीवन को जोड़ रखा है। यहां तो मार्निंग वाक से जुड़ा प्रसंग सड़क को लीलने के साथ-साथ जीवन को ग्रास बनाता जा रहा है तथा आज आधुनिकता के नाम सुख की जगह दु:ख को बटोरने की परंपरा प्रगति के नाम जारी है। इस बदले परिवेश ने जो वातावरण को दूषित कर रखा है, इसका साक्षात् स्वरूप यहां देखा जा सकता है। अर्थ एवं ऐश्वर्य के पीछे-पीछे भागते लोगों के जीवन में सुख केवल कल्पना मात्र बनकर रह गया है। सामने छप्पन प्रकार के भोगों से सजी थाली है, जीभ लपलपा रही है, मन तरस रहा है उसका उपभोग करने को पर अनेक प्रकार की व्याधियों से ग्रस्त शरीर उसे ग्रहण करने के काबिल नहीं रहा। आखिर वह धन एवं ऐश्वर्य ही किस काम का, जिसका उपभोग न किया जा सके। विकास के नाम आधुनिकता से जुड़े हर जीवन की प्राय: यही व्यथा भरी घटना है।
विकास के नाम बटोरी गई आधुनिक सुविधाओं से हमारी जिन्दगी को इस तरह काहिल बना दिया है जिसके चलते सभी मानसिक तनाव के शिकार होने लगे हैं। सफर में बस खराब हो जाय, ट्रेन रूक जाय, पंखे, मोबाईल, कम्प्यूटर चलते-चलते बंद हो जाय, टेलीफोन आदि काम न करें तो मत पूछिये, हालात के बारे में, आम उपभोक्ता जल्द ही डीप्रेशन का शिकार होकर दु:खी हो जाता है। इस तरह की परिस्थितियां आधुनिक विकास युग जनित सुविधाओं की देन है जहां पूर्व की भांति शारीरिक श्रम की क्षमता क्षीण हो चली है। जिसके चलते आज हम अनेक तरह की बीमारियों को गले लगा कर असुरक्षित जिन्दगी जी रहे हैं। सुविधाएं सुखी जीवन के बजाय जी का जंजाल बनती जा रही है। विकास के रास्ते मनुष्य ने विनाश के संसाधन भी बटोर लिए हैं। शारीरिक श्रम के हृास होने होने से मानसिक तनाव के साथ-साथ कुत्सित विचार भी जनित होने लगे हैं जो सभी के लिए घातक है। इतिहास के आइने में झांककर घटित घटनाओं पर एक विहंगम दृष्टि डालकर सबकुछ आसानी से देखा जा सकता है। रामायण, महाभारत एवं आधुनिक युग की नागासाकी परमाणु विस्फोट की घटनाएं विकास के किस रूप को परिभाषित कर पा रही हैं, विचारणीय पहलू है। आज के मानव ने भी विकास के तहत मौत के संसाधन ज्यादा पैदा कर लिए हैं। कब कहां धमाका हो जाय, चलता जीवन कब थम जाय, आज के विकसित युग में कह पाना मुश्किल है।
 -स्वतंत्र पत्रकार, डी-9, IIIए, खेतड़ीनगर-333504 (राज.)

Tuesday, September 9, 2008

हिंदी के विकास में जनसंचार माध्यमों की भूमिका

हर देश की अपनी एक खास भाषा होती है जिसमें सभी देशवासी संवाद करते हैं। जिसमें उस देश की विशिष्ट पहचान समायी नजर आती है। इस दिशा में विश्व के अनेक विकसित देश रूस, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, चीन आदि के भाषायी प्रयोग के स्वरूप को देखा जा सकता है। भारत में उन्हें विकसित देशों में से एक महत्वपूर्ण देश है। जहां की संस्कृति आज भी इन विकसित देशों से सर्वोपरि है। परन्तु भाषायी प्रयोग की दिशा में स्वतंत्रता के साठ दशक उपरांत भी आज तक इस देश को केवल राष्ट्रभाषा का दर्जा देने से ज्यादा कुछ नहीं कर पाये हैं। जहां आज भी देश के प्रमुख उत्सवों पर आमंत्रित विशिष्ट अतिथियों के संवाद की भाषा अंग्रेजी ही बनी हुई है। संसद के अधिकांश क्षण प्रश्नोत्तर काल के दौरान अंग्रेजियत पृष्ठभूमि को उभारते नजर आ रहे हैं। जबकि व्यवहारिक तौर पर इस देश में आज भी हिंदी सर्वाधिक बोली एवं समझी जाती है परंतु राजकीय एवं राजनीतिक पृष्ठभूमि में इसके प्रयोग पर दोहरेपन पृष्ठभूमि को आसानी से देखा जा सकता है। वैसे पहले से इस दिशा में आये अंतराल को भी देखा जा सकता है। जहां हर दिशा में हिंदी बंटती नजर आ रही है। आज हिंदी देश ही नहीं विश्व स्तर पर अपना परचम इस तरह के परिवेश के बावजूद भी लहरा रही है। विश्व की चर्चित भाषाओं में आज यह तीसरे स्थान पर पहुंच चुकी है। इस तरह के विकास पथ पर निरंतर बढ़ रहे इसके पग को सबलता प्रदान करने की दिशा में जनसंचार माध्यमों की भूमिका सदा से ही अग्रणी रही है। इसके इतिहास के आईने को देखें जहां यह देश वर्षों तक गुलामी की जंजीर में जकड़ा रहा, सात समुंदर पार की अंग्रेजी भाषा का वर्चस्व वर्षों तक यहां हावी रहा और आज भी कहीं न कहीं इसका स्वरूप देखने को मिल ही जाता है। स्वाधीनता के कई वर्ष तक राष्ट्रभाषा के रूप में घोषित हिंदी उपेक्षित जीवन को सहती रही। राजनीतिक स्तर पर उपजे विरोध को झेलती रही। पर आज इसके विकसित रूप में भारतीय जनजीवन का स्वरूप परिलक्षित होने लगा है। इस तरह के स्वरूप को उजागर होने में जनसंचार माध्यमों की भूमिका निश्चित तौर पर सदैव सक्रिय बनी रही है। 
जनसंचार माध्यमों में मुख्य रूप से प्रिन्ट, दृश्य एवं श्रव्य की भूमिका महत्वपूर्ण रही है। प्रिन्ट मीडिया का इतिहास काफी पुराना है। स्वाधीनता आंदोलन के दौरान हिंदी भाषा में प्रकाशित पत्र-पत्रिकाओं ने देश को आजाद कराने की पृष्ठभूमि में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हुए हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार में अहम् योगदान दिया है। यहां के लोक कवि एवं साहित्यकारों ने हिंदी भाषा में अपनी रचनाएं जन-जन तक पहुंचा कर हिंदी के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। स्वाधीनता काल की प्रकाशित पत्रिका 'सरस्वती', 'मार्तण्डय' आदि के सक्रिय योगदानों को देखा जा सकता है। हिन्दू, आज, आर्यावर्त, सन्मार्ग, नवज्योति, हिन्दूस्तान, विश्वामित्र, नवभारत, स्वतंत्र भारत जैसे अनेक चर्चित हिन्दी दैनिक समाचार पत्रों ने हिंदी के विकास में जो भूमिका निभायी है उसे भुलाया नहीं जा सकता। आज हिंदी के विकास में देश के विभिन्न अंचलों से हजारों पत्र-पत्रिकाएं सक्रिय भूमिका निभा रही है। राजस्थान पत्रिका, पंजाब केसरी, दैनिक भास्कर, जागरण, हरिभूमि, सहारा, डेली न्यूज जैसे अनेक समाचार पत्र जहां लाखों पाठकों के घर-घर पहुंच रहे हैं वहीं एक्सप्रेस मीडिया, मीडियाकेयर नेटवर्क जैसे इलैक्ट्रानिक संसाधनों के माध्यम से हिंदी आज देश में प्रकाशित चर्चित दुनिया, सवेरा, जलते दीप, हमारा मुंबई, हिंदी मिलाप, रांची एक्सप्रेस, लोकमत दैनिक समाचार पत्रों द्वारा पूरे देश में हिंदी संवाद को स्थापित करने में सक्रिय भूमिका निभा रही है। आज हिंदी दैनिक समाचार पत्रों के साथ-साथ हजारों साप्ताहिक, पाक्षिक पत्र भी अपनी भूमिका हिंदी के प्रचार-प्रसार में निभा रहे हैं जो गली-गली, गांव-गांव को हिंदी से जोड़ने का कार्य कर रहे हैं। हजारों पत्रिकाएं भी इस दिशा में अपना कार्य कर रही है जिसका प्रभाव सामने है। अंग्रेजी के वर्चस्व से धीरे-धीरे हिंदी को मुक्ति मिलती दिखाई देने लगी है। कभी यहां हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए बना हिंदी अधिकारी अपने आपको हिंदी अफसर कहना बेहतर समझता था आज वही अपने आपको गर्व के साथ हिंदी अधिकारी कहते नजर आता है। यह जनसंचार के माध्यम से हिंदी के बढ़ते चरण का ही प्रभाव है।
जनसंचार का श्रव्य माध्यम भी हिंदी के प्रचार-प्रसार में अपनी भूमिका प्रारंभ से ही निभाता रहा है। इस दिशा में आकाशवाणी के बीबीसी लंदन की हिंदी समाचार सेवा प्रभार की भूमिका को देखा जा सकता है। जिससे देश का अधिकांश समुदाय श्रव्य माध्यमों से भी जुड़ा हुआ था। आकाशवाणी का यह केन्द्र आज भी सर्वाधिक लोकप्रिय है। जिसका परिणाम यह रहा कि हिंदी लाखों लोगों के बीच श्रव्य के माध्यम से संपर्क की भाषा बन गई। आज इलैक्ट्रानिक युग में इलैक्ट्रानिक मीडिया ने हिंदी के विकास में अभिनव एवं अद्भुत पृष्ठभूमि बनाई है। आज तक, स्टार प्लस, जीटीवी, सहारा, दूरदर्शन, ईटीवी आदि नेटवर्क हिंदी में सर्वाधिक कार्यक्रम प्रसारित कर रहे हैं। इनके द्वारा प्रसारित हिंदी धारावाहिक के माध्यम से आज करोड़ों जनसमुदाय हिंदी से जुड़ता चला जा रहा है। घर-घर की कहानी, महाभारत, रामायण, कृष्णलीला, सास भी कभी बहू थी, दुल्हन आदि की बढ़ती लोकप्रियता ने सभी नेटवर्कों को हिंदी के प्रति कार्य करने की अद्भुत प्रेरणा दी है। इस परिवेश ने आज हिंदी को विश्व स्तर तक पहुंचा दिया है। आज संसद में भी हिंदी सुगबुगाने लगी है तथा अंग्रेजी के प्रति मोह प्रदर्शित करने वालों की नजर धीरे-धीरे झुकने लगी है। जनसंचार माध्यमों की भूमिका ने हिंदी को जन-जन से जोड़ने का अभूतपूर्व कार्य किया है। आज देशभर में सर्वाधिक हिंदी की समाचार पत्र-पत्रिकाएं प्रकाशित हो रही हैं एवं दूरदर्शन पर हिंदी धारावाहिक एवं चलचित्र प्रदर्शित हो रही हैं। जनसंचार का यह फैलाव निश्चित तौर पर हिंदी को उस परिवेश से बाहर निकाल लाया है जहां हिंदी बोलने एवं लिखने में झिझक होती थी।
आज भी हिंदी के प्रति उभरते दोहरी मानसिकता के परिवेश को देखा जा सकता है परन्तु जनसंचार के माध्यम से हिंदी के बढ़ते कदम के आगे धीरे-धीरे इस तरह की मानसिकता में बदलाव भी आता दिखाई दे रहा है। विश्व स्तर पर प्रारंभ में हिंदी में दिये गये भाषणों को जन-जन तक पहुंचाने का कार्य भी जनसंचार माध्यमों ने ही किया। जिससे हिंदी आज जन-जन की भाषा बनती दिखाई देने लगी है। हिंदी के आवेदन पत्र एवं आवेदन पत्र पर हिंदी के हस्ताक्षर तथा हिंदी में ही किये गये अनुमोदन टिप्पणी का स्वरूप इस बात को परिलक्षित करने लगा है कि अब हिंदी दोहरी मानसिकता के चंगुल से निकलकर स्वतंत्र स्वरूप धारण करते हुए भारतीयता का प्रतीक बनती जा रही है। यह परिवर्तन निश्चित तौर पर हिंदी के विकास में जनसंचार माध्यमों की महत्वपूर्ण भूमिका का ही जीता-जागता उदाहरण है। आने वाले समय में यह अप्रासंगिक राजनीतिक क्षितिज से ऊपर उठकर संपूर्ण भारत का सिरमौर स्वरूप धारण करते हुए हमारी अस्मिता की पहचान शीघ्र बन जायेगी ऐसा विश्वास जागृत हो चला है। 

Friday, September 5, 2008

दोहरी मानसिकता की शिकार है हिन्दी

हर देश की अपनी एक भाषा होती है जिसमें पूरा देश संवाद करता है। जिसके माध्यम से एक दूसरे को पहचानने व समझने की शक्ति मिलती है। जो देश की सही मायने में आत्मा होती है। परन्तु 60 वर्ष की स्वतंत्रता उपरान्त भी हमारे देश की सही मायने में कोई एक भाषा नहीं बन पाई है। जिसमें पूरा देश संवाद करता हो। आज भी वर्षों गुलामी का प्रतीक अंग्रेजी भाषा का वर्चस्व ही सभी ओर हावी है। जबकि स्वाधीनता उपरान्त सर्वसम्मति से हिन्दी को भारतीय गणराज्य की राष्ट्रभाषा के रूप में संविधान के तहत मान्यता तो दे दी गई पर सही मायने में आज तक दोहरी मानसिकता के कारण इसका राष्ट्रीय स्वरूप उजागर नहीं हो पाया है। आम जनमानस के प्रयोग की बात कौन करे, जब इस देश की सर्वोच्च संसद में ही इसकी मान्यता का सही स्वरूप उजागर नहीं दिखाई देता। संसद में आज भी अंग्रेजी का वर्चस्व हावी है। देश की जनता द्वारा चुने गये उन जनप्रतिनिधियों को भी जिन्हें हिन्दी अच्छी तरह आती है, सामान्य संवाद/संसदीय प्रश्नोत्तरकाल में अंग्रेजी का प्रयोग धड़ल्ले से करते हुए देखा जा सकता है। जिनकी चुनावी भाषा अंग्रेजी कभी नहीं रही, वे भी धड़ल्ले से अंग्रेजी का प्रयोग करते कभी नहीं हिचकिचाते। इसे विडम्बना ही कहे कि जिस देश की संसद की मान्यता प्राप्त जो भाषा है, वही अपने ही घर में उपेक्षित हो रही है। देश की संसद जो अस्मिता की प्रतीक है, वहां जनप्रतिनिधियों द्वारा अंग्रेजी में किये जा रहे वार्तालाप की गूंज आजादी के किस स्वरूप को उजागर कर पाती है, इस स्वरूप को देखकर इसे भारतीय संसद कह पाना कहां तक संभव होगा, विचारणीय है। आज भी कार्यालयों में हिन्दी द्वारा लिखे गये आवेदन पत्रों पर अधिकारियों की टिप्पणी अंग्रेजी भाषा में ही देखी जा सकती है, जबकि हिन्दी में अधिक से अधिक प्रयोग किये जाने का संदेशपट उस अधिकारी की मेज या सामने की दीवार पर टंगे अवश्य मिल जायेंगे। इस दोहरेपन ने हिन्दी को राष्ट्रीय सरोकार से दूर ही अभी तक रखा है।
प्रतिवर्ष जैसे-जैसे हिन्दी दिवस की तिथि नजदीक आती है, हिन्दी के प्रति चारों तरफ उमड़ता प्यार दिखाई देने लगता है। जगह-जगह हिन्दी को अपनाने के लिये रंग-बिरंगे संदेशात्मक पैमाने नजर आने लगते हैं। प्रतियोगिताओं का दौर चल पड़ता है। भाषण-गोष्ठियां, कवि सम्मेलन आदि-आदि अनेक गतिविधियां इस दौरान सिकय हो उठती है। पुरस्कारों की लड़ी लग जाती है। कहीं सप्ताह तो कहीं पखवाड़ा! पूरा देश हिन्दीमय लगने लगता है। पर जैसे ही हिन्दी दिवस की विदाई होती है, हिन्दी की आगामी हिन्दी दिवस तक के लिये विदाई हो जाती है। सबकुछ पूर्वत: यथावत् स्थिति में सामान्य गति से संचालित होने लगता है। जबकि आज हम विश्व में हिन्दी की बात करते नजर आ रहे हैं। इस कड़ी में द्वितीय विश्व हिन्दी सम्मेलन के तत्काल आयोजित दौर को देखा जा सकता है। देश से अनेक इस सम्मेलन के आधार पर हिन्दी के नाम विश्व यात्रा लाभ भी करके स्वदेश लौट आये हैं। पर हिन्दी के हालात पर नजर डालें तो वह वहीं है जहां इसे आयोजनों से पूर्व छोड़ा गया। प्रतिवर्ष होने वाले हिन्दी आयोजनों की सफलता का राज 60 वर्ष के उपरान्त भी अंग्रेजी के वर्चस्व के रूप में विद्यमान हैं।
हिन्दी की रोटी खाने वाले भी यहां हिन्दी को सही ढंग से आज तक उतार नहीं पाये हैं। जिसके कारण हिन्दी अधिकारी का परिचय हिन्दी अफसर के रूप में बदल गया है। हिन्दी से प्रेम दर्शाने वालों के बच्चे अंग्रेजी माध्यम के कॉन्वेन्ट स्कूल में तो पढ़ते ही हैं, पत्नी को मैडम और बच्चों का टिंकू नाम से संबोधित करते हुए सुबह-सुबह अंग्रेजी का अखबार पढ़ते हुए गुड मार्निंग के साथ चाय के रसास्वादन लेते हुए इन्हें आसानी से देखा जा सकता है। मुझे हिन्दी से प्यार है, कहते हुए इन्हें संकोच नहीं होता, परन्तु हिन्दी बोलने में इन्हें संकोच होता है। देश की स्वाधीनता के 60 वर्ष बाद भी अंग्रेजी के मोहजाल से इस तरह के लोग नहीं निकल पाये हैं। इनके लिबास, रहन-सहन, बोलचाल एवं परिवेश भी वहीं है, जो आजादी से पूर्व थे बल्कि इसमें वृध्दि ही होती जा रही है।  इस तरह के परिवेश में बच्चों से बाबूजी, मां शब्द सुनने के बजाय पापा, मम्मी, डैडी, अंकल शब्द की गूंज सुनाई देती है। इस तरह के लोगों को चाचाजी, मामाजी कहते संकोच तो होता ही है, दादा-दादी की उम्र के लोगों को अंकल, आंटी कहते हुए जरा भी हिचक नहीं होती। अब यही इनकी संस्कति बन चुकी है। इन्हें दोहरेपन में जीने की आदत और सफेद झूठ बोलने की लत सी पड़ गई है। इनका जहां गुड मार्निंग से सूर्योदय होता है तो गुड इवनिंग से सूर्यास्त। निशा की गोद में सोये-सोये इस तरह के इंसान बुदबुदाते रहते हैं गुड नाईट-गुड नाईट। किसी के पैर पर इनका पैर पड़ जाये तो सॉरी, इन्हें गुस्सा आये तो नॉनसेंस, गेट आऊट, इडियट आदि-आदि की ध्वनि इनके मुख से जब निकलती हो तो कैसे कोई कह सकता है, ये उस देश के वासी हैं जिस देश की 90 प्रतिशत जनता हिन्दी जानती समझती एवं बोलती है। जिस देश की राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी को मान्यता दी गई हो।
यह बात यहीं तक सीमित नहीं है। सरकारी कार्यालय हो या निजी आवास, किसी अधिकारी का कार्यालय हो या घर, प्राय: हर जगह दीवारों पर चमचमाते अंग्रेजी के सुनहरे पट तथा गर्द खाते राष्ट्रभाषा के प्रचार-प्रसार में लगे टूटे-फूटे पुराने पट आज भी दिख जायेंगे। जो हिन्दी के प्रति दोहरेपन की जी रही जिन्दगी के आभास आसानी से दे जाते हैं। इसी कारण आम आदमी यहां का अपनी संस्कति व सभ्यता से कोसों दूर होता जा रहा है। इस बदलते परिवेश में बाप-बेटे, गुरू-शिष्य के रिश्तों में अलगाव की बू आने लगी है। अनुशासन नाम की कोई चीज ही नहीं रह गई है। आज यहां अंग्रेजी के दो-चार शब्द बोल देना बुध्दिमत्ता की पहचान बन गई है। अंग्रेजी आती हो या नहीं, इसे कोई मतलब नहीं। अंग्रेजी का अखबार मंगाना फैशन सा हो गया है। घर के सामने अंग्रेजी में ही सूचना एवं नाम की पट्टिका प्राय: देखी जा सकती है। हिन्दी में दिये गये तार, संदेश भी रोमन लिपि में भेजे जाते हैं। इस तरह के दोहरेपन की स्थिति ने हिन्दी के विकास को लचीलापन बनाकर रख दिया है। तुष्टिकरण की नीति से कभी भी हिन्दी का विकास यहां संभव नहीं दिखाई देता। हिन्दी हमारी दोहरी मानसिकता का शिकार हो चुकी है। जिसके कारण यह राष्ट्रीय स्वरूप को उजागर कर पायेगी, कह पाना मुश्किल है। राष्ट्रभाषा राष्टª की आत्मा होती है। जब सभी भारतवासी दोहरी मानसिकता को छोड़कर राष्ट्रभाषा हिन्दी को अपने जीवन में अपनाने की शपथ लें तभी सही मायने में हिन्दी का राष्ट्रीय स्वरूप उजागर हो सकेगा।

Thursday, July 31, 2008

यात्रा से जुड़ी जनसुविधाओं से वंचित धौला कुंआ

दिल्ली का धौला कुंआ राजस्थान एवं हरियाणा क्षेत्र से जुड़ी यात्राओं के क्रम में प्रवेश एवं निकास का मुख्य द्वार है। जहां से प्रतिदिन देश के विभिन्न भागों में दिल्ली होकर सैंकड़ों बसों का आवागमन जारी है। राजस्थान प्रदेश की 44 आगारों से संचालित बसों से हजारों की संख्या में प्रतिदिन यात्री दिल्ली प्रवेश करते समय धौला कुंआ ही प्राय: उतरते हैं जहां से स्थानीय बसों द्वारा व्यापारिक कार्य हेतु दिल्ली के भीतरी भाग में एवं रेल मार्ग द्वारा देश के विभिन्न भागों में जाने की यात्रा प्रारम्भ करते हैं। इसी प्रकार वापसी के दौरान भी राजस्थान एवं हरियाणा के विभिन्न क्षेत्रों में जाने हेतु धौला कुंआ आकर ही बस पकड़ने की प्रतीक्षा करते हैं। सांयकाल धौला कुंआ से निकलने वाली अंतर्राज्यीय बसों की प्रतीक्षा करते भटकते हजारों यात्रियों को यहां देखा जा सकता है। देश के विभिन्न भागों से राजस्थान एवं हरियाणा क्षेत्र में गये हजारों यात्री भी वापसी के दौरान इसी धौला कुंआ पर उतरते हैं। जिन्हें रेल द्वारा आगे की यात्रा करनी होती है। नई दिल्ली एवं पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन हेतु धौला कुंआ से ही स्थानीय बसें उपलब्ध हो पाती हैं। इसी तरह नई दिल्ली एवं पुरानी दिल्ली रेल्वे स्टेशन से उतरकर राजस्थान एवं हरियाणा की ओर यात्रा करने वाले यात्रियों को धौला कुंआ आना ही सुगम होता है। दिल्ली का प्रमुख व्यापारिक संस्थान सदर बाजार, चांदनी चौक, नई सड़क, चावड़ी बाजार भी पुरानी दिल्ली में ही है जहां जाने व वापिस आने के लिए यात्रियों को स्थानीय बसों द्वारा धौला कुंआ ही सुगम पड़ता है। इस प्रमुख द्वार पर स्थानीय बसों का भी जमावड़ा काफी है जिससे हजारों की संख्या में स्थानीय यात्री भी बस में चढ़ते व उतरते देखे जा सकते हैं। इस तरह के महत्वपूर्ण यात्रा प्रसंग से जुड़ा प्रमुख द्वार आज तक यात्रा से जुड़ी तमाम जनसुविधाओं से वंचित है। इस जगह पर धूप, वर्षा से बचाव के लिए बसों की प्रतीक्षा में खड़े हजारों यात्रियों के लिए न तो छत्रछाया है, न ही बैठने के लिए उपयुक्त स्थान। इस जगह पर पानी पीने, शौचालय, मूत्रालय की भी कोई व्यवस्था नहीं है। इस तरह दिल्ली का यह प्रमुख यात्रा प्रसंग से जुड़ा प्रमुख द्वार आज तक यात्रा से जुड़ी जनसुविधाओं से वंचित है जिससे यात्रियों को काफी असुविधाओं का सामना प्रतिदिन करना पड़ता है। जनसुविधाओं के अभाव में सबसे ज्यादा परेशानी यात्रा के दौरान महिलाओं, बच्चों एवं बुजुर्गों को उठानी पड़ती है। आज तक इस दिशा में स्थानीय प्रशासन तो मौन है ही राजस्थान एवं हरियाणा के सांसद जो दिल्ली में रहते हैं, वे भी मौन हैं।
हरियाणा के गुड़गांव, रेवाड़ी, नारनौल, महेन्द्रगढ़, चंडीगढ़ आदि प्रमुख नगरों के साथ-साथ राजस्थान के प्रमुख शहर जयपुर, उदयपुर, चित्तौड़गढ़, बाड़मेर, जैसलमेर, कोटा, बूंदी, झालावाड़, बीकानेर, जोधपुर, सीकर, झुंझुनूं, चुरू आदि स्थानों के लिए नितप्रतिदिन सैंकड़ों की संख्या में दौड़ने वाली बसों से हजारों की संख्या में यात्रा करने वाले यात्रियों के लिए दिल्ली के इस प्रमुख द्वार पर वैध रूप से कोई स्थान आवंटित नहीं है जबकि इसी प्रमुख द्वार पर इस दिशा में संचालित अंतर्राज्यीय बसों से सबसे ज्यादा यात्री दिल्ली में प्रवेश करते समय उतरते हैं तथा वापसी के दौरान इसी जगह पर आकर इन बसों को पकड़ने के लिए प्रतीक्षारत घंटों खड़े रहते हैं। जबकि दिल्ली प्रशासन अंतर्राज्यीय बस अड्ड महाराणा प्रताप आई.एस.बी.टी., आनन्द विहार एवं सराय काले खां को संचालित कर रखा है। राजस्थान एवं हरियाणा की ओर यात्रा से जुड़ी अधिकांश बसें सराय काले खां से संचालित तो होती हैं परन्तु ये बसें राजस्थान एवं हरियाणा की यात्रा करने वाले यात्रियों से धौला कुंआ ही आकर भरती हैं। इस तरह के परिवेश पर विचार करना बहुत जरूरी है। सराय काले खां एवं आनन्द विहार दोनों अन्तर्राज्यीय आगार दिल्ली के दूसरे छोर पर होने के कारण राजस्थान एवं हरियाणा की यात्रा से जुड़े यात्रियों के लिए उलटे पड़ते हैं जिसके कारण रेल एवं दिल्ली के भीतरी भाग से जुड़े इन प्रदेशों की यात्रा से जुड़े यात्रियों के लिए धौला कुंआ ज्यादा सुगम जान पड़ता है। जिसके कारण सराय काले खां से संचालित बसों के लिए आज भी धौला कुंआ प्रमुख बना हुआ है। परन्तु प्रशासन की दृष्टि में इस तरह के प्रमुख द्वार पर इन अन्तर्राज्यीय बसों के ठहरने की कोई व्यवस्था नहीं है। सांयकाल को धौला कुंआ के निकास द्वार का नजारा कुछ अजीबोगरीब देखने को ही सदा मिलता है। जहां अन्तर्राज्यीय बसों को स्थानीय प्रशासन एक जगह ठहरने नहीं देते, इसके साथ ही इन बसों की प्रतीक्षा में खड़े यात्रियों की भी दुर्दशा शुरू हो जाती है। जो अपने सामान को कंधे पर लटकाए इधर-उधर भटकते नजर आते है। वर्षा आ जाने पर तो इनकी तकलीफ और बढ़ जाती है। धौला कुंआ पर वर्तमान में मेट्रो का कार्य चलने से निकास द्वार की हालत और भी ज्यादा खराब है जहां न तो बसों को खड़े होने की जगह है, न यात्रियों के खड़े होने की। इस तरह के हालात भविष्य में किसी तरह की अप्रिय अनहोनी का कारण न बन जाये, विचारणीय मुद्दा है। सुरक्षा की दृष्टि से भी धौला कुंआ असुरक्षित नजर आने लगा है जहां हजारों की तादाद में क्षण-प्रतिक्षण यात्रा प्रसंग से जुड़े यात्री खड़े होते हैं।
यात्रा प्रसंग से जुड़ा दिल्ली का यह प्रमुख द्वार जनसुविधाओं के अभाव में यात्रियों की परेशानी, असुरक्षा एवं दूषित वातावरण का केन्द्र बन चुका है। शौचालय एवं मूत्रालय नहीं होने से बसों से जुड़े पुरूष यात्रियों द्वारा आस-पास मूत्रालय करने से दूषित वातावरण बनना स्वाभाविक है। हजारों किलोमीटर दूर की यात्रा से जुड़े यात्रियों के लिए इस प्रमुख द्वार पर यात्रा से जुड़ी तमाम जनसुविधाओं का न होना यात्रा के सकारात्मक पहलूओं को भी नकारता है। इस तरह के महत्वपूर्ण परिवेश को नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए। यात्रा से जुड़ी तमाम जनसुविधाओं का अभाव दिल्ली से बाहर निकलते व प्रवेश करते समय यहां यात्रियों को खटकता रहता है।
यात्रा प्रसंग से जब धौला कुंआ की पृष्ठभूमि मुख्य द्वार के रूप में उभरकर सामने ऐन-केन-प्रकारेण अब हो गई है तो इस सत्य को स्थानीय प्रशासन द्वारा स्वीकार कर इस प्रमुख द्वार पर यात्रा से जुड़ी तमाम जनसुविधाएं उपलब्ध कराकर यात्रा के जीवन्त पक्ष को उजागर करने में सकारात्मक रूख अपनाया जाना चाहिए। धौला कुंआ राजस्थान एवं हरियाणा क्षेत्र की यात्रा के संदर्भ में प्रमुख द्वार के रूप में उभर चला है। इस तथ्य को स्वीकार करते हुए स्थानीय प्रशासन को धौला कुंआ के आस-पास अन्तर्राज्यीय बसों को ठहरने की उपयुक्त व्यवस्था करनी चाहिए। साथ ही इस जगह पर यात्रा से जुड़ी धूप, वर्षा से बचाव हेतु संसाधन, पानी, पेशाब आदि तमाम जनसुविधाओं की तत्काल व्यवस्था कर यात्रा के जीवन्त पक्ष को उजागर करने में पहल करना मानवता के हित में सकारात्मक कदम माना जा सकता है। धौला कुंआ में वनविभाग की पड़ी जमीन के बीच अंतर्राज्यीय बस स्टैंड का छोटा रूप दिया जा सकता है। इस दिशा में राजस्थान एवं हरियाणा प्रदेश से गये सांसदों को जनहितार्थ में संसद में भी सकारात्मक कदम उठाने की पहल की जानी चाहिए।
धौला कुंआ आज अंतर्राज्यीय बसों के साथ-साथ स्थानीय नगरीय बसों का भी प्रमुख द्वार बन चुका है। इस जगह पर धूप, वर्षा से बचाव करते प्रतीक्षारत यात्रियों को बैठने, पीने के पानी, मूत्रालय, शौचालय आदि जनसुविधाओं की व्यवस्था शीघ्र किया जाना यात्रा प्रसंग के तहत जनहितार्थ माना जा सकता है।

युध्द से भी ज्यादा खतरनाक आतंकवाद

युध्द और आतंकवाद दोनों ही अहितकारी राजनीतिक प्रेरित स्वयंभू पृष्ठभूमि से जुड़ी गतिविधियां है जिनसे आज देश ही नहीं, संपूर्ण विश्व पटल का मानव समुदाय चिंतित एवं दुखी है। एक प्रत्यक्ष है तो दूसरा अप्रत्यक्ष। दोनों हालात में मानवता का हनन होता है। आतंकवाद युध्द से भी ज्यादा खतरनाक है। युध्द में दुश्मन सामने होता है तथा उससे टक्कर लेने की पूरी तैयारी होती है। परन्तु आतंकवाद में दुश्मन साथ-साथ रहते हुए पीठ पीछे से अचानक आक्रमण कर देता है जिसका परिणाम सामने है। देश में आतंकवाद का बढ़ता जोर आज चुनौती का रूप ले चुका है। जब भी विकास की ओर हमारे बढ़ते कदम दिखाई देते उस कदम को अस्थिर करने की दिशा में विश्व की गुमनाम शक्तियां आतंकवाद के सहारे यहां सक्रिय हो जाती है। जिसे अप्रत्यक्ष रूप से कहीं न कहीं यहां राजनीतिक संरक्षण भी मिल रहा है। कुछ दिन पूर्व जयपुर में बम विस्फोटक आतंकवादी आग ठंडी नहीं हुई कि देश के मशहूर व्यापारिक व तकनीकी क्षेत्र में विकसित शहर बैंगलोर के साथ-साथ अहमदाबाद, सूरत इसकी चपेट में आ गये। देश के अन्य प्रगतिशील व्यापारिक शहर को अभी से चुनौती भी मिलने लगी है। आतंकवाद का बढ़ता यह सिलसिला हमारे विकास में बाधक तो है ही, भविष्य में गंभीर चुनौतियों का संकेत भी दे रहा है। इस तरह के परिवेश को अघोषित युध्द की भी संज्ञा दिया जाना अतिशयोक्ति नहीं होगी।
देश में अभी हुये बम काण्ड में करीब 50 लोगों के मरने एवं 300 से अधिक घायल होने की खबर दिल दहला देती है। इस तरह की घटनाएं दिन पर दिन वीभत्स रूप धारण करती जा रही हैं तथा हर बार की तरह इस घटना को भी अंजाम देने वाले तत्व साफ-साफ बच जा रहे हैं। घटना घटित होते ही एक बार पूरा परिवेश जागृत तो हो जाता है परन्तु एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप के इस सिलसिले के साथ सब कुछ टांय-टांय फिस्स हो जाता है। इन घटित घटनाओं पर गठित समितियों का आज तक कोई सकारात्मक हल सामने नहीं आया है। आतंकवादी देश के अंदर जगह-जगह, समय-समय पर अपने कारनामे दिखाते जा रहे हैं। निर्दोष लोग शिकार होते जा रहे हैं। राजनीतिज्ञ बयानबाजी से अपना काम निकालते जा रहे हैं। इस दिशा में आज तक कोई ठोस कदम का स्वरूप नजर नहीं आ रहा है जिसके कारण आतंकवाद अपना पग पसारता जा रहा है। देश में घटित आतंकवादी गतिविधियों पर फिलहाल प्रशासन एवं राजनीतिज्ञों को पूर्व की भांति सजग तो देखा जा सकता है परन्तु एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप के सिवाय इस बार भी कुछ हाथ लगता नहीं दिखाई देता। इस तरह के हालात भविष्य में आतंकवादी गतिविधियों को किस प्रकार रोक पायेंगे, विचारणीय मुद्दा है।
देश में जब कभी भी आतंकवादी गतिविधियों से जुड़े समूह की धरपकड़ की संभावनाएं दिखाई देती है, उसके बचाव के रास्ते भी तैयार हो जाते हैं जिसके कारण इस तरह की गतिविधियों से जुड़ा साफ-साफ बच जाता है तथा एक नई योजना को अंजाम देने में सक्रिय ही नहीं होता, सफल भी हो जाता है। मुंबई बम काण्ड से लेकर देश के विभिन्न भागों में हुये बम काण्ड के दौरान पकड़े गये आतंकवादी समूह से जुड़े प्रतिनिधियों पर की गई कार्यवाही का जो स्वरूप उभरकर सामने आ रहा है, उससे आतंकवाद से निजात पाने के हालात दूर-दूर तक नजर नहीं आ रहे हैं। इसी प्रक्रिया के तहत अभी तक जो भी पकड़े गये हैं उन्हें कहीं न कहीं से अप्रत्यक्ष रूप से संरक्षण तो मिल ही रहा है जो संदेह का लाभ लेकर साफ-साफ बच रहे हैं। संसद पर आक्रमण करने वाले अफजल को बचाने की मुहिम में यहां जो प्रक्रिया जारी रही उसे कैसे नकारा जा सकता है। मुंबई, जयपुर, हैदराबाद, बनारस आदि शहरों में हुये बम काण्ड को लेकर की जा रही कार्यवाहियों का अभी तक जो स्वरूप सामने आया है, नकारात्मक पृष्ठभूमि ही उभार सका है। अभी हाल में हुए बम काण्ड में जिस तरह की बयानबाजी जारी है, इस तरह के हालात में आतंकवाद का निदान ढूंढ पाना कहां तक संभव है, विचार किया जाना चाहिए।
पाक-भारत के संबंध सुधारने की दिशा में अथक प्रयास हुए। वर्षों से बंद पड़ी रेल-बस सेवा के मार्ग के खोल दिये गये। परिणाम यह हुआ कि देश में आतंकवादी गतिविधियां तेज हो गई। जगह-जगह बम काण्ड होने लगे। कब कहां क्या हो जाये, कह पाना मुश्किल है। जब आतंकवाद को पनाह घर से ही मिलने लगे, तो इस तरह के खौफनाक खेल से बच पाना काफी मुश्किल है। देश में इस तरह के परिवेश से जुड़े हालात इस बात को कहीं न कहीं स्वीकार तो कर रहे हैं कि आतंकवाद को देश के भीतर संरक्षण मिल रहा है। जो इस तरह की गतिविधियों का समर्थक है, या संरक्षक है वह इस देश का हो ही नहीं सकता। विचारणीय है।
आतंकवाद आज छद्म युध्द का रूप ले चुका है जिसे स्वयंभू परिवेश से जुड़े समूह का समर्थन अप्रत्यक्ष रूप से मिल रहा है। देश को अस्थिर करने का विश्वस्तरीय ठेका जिनके पास सुरक्षित है, इस तरह के समूह देश के भीतर सक्रिय हैं, जिनकी छानबीन होना बहुत जरूरी है। देश में प्रशासनिक तौर पर खुफिया तंत्र को मजबूत एवं स्वतंत्र होना बहुत जरूरी है। इस दिशा में उभरी राजनीतिक परिस्थितियां इसके वास्तविक स्वरूप को नकारात्मक कर सकती है। आतंकवाद सभी के लिए घातक है। आतंकवादी जिसका स्वरूप सौदागर के रूप में हो चुका है, उसके पल्लू में केवल उसका हित समाया है, वह न तो किसी देश का हितैषी हो सकता व न ही मानव जाति का। उसका उद्देश्य स्वहित में अर्थ उपार्जन मात्र है इसलिए उसे भाई की संज्ञा से संबोधित किया जाना भी अप्रासंगिक लगता है। इस तरह के परिवेश से जुड़े लोगों की जांच निष्पक्ष रूप से की जानी चाहिए। इस तरह की प्रवृत्ति से जुड़े लोग हर जगह अपना आसन जमाये बैठे हैं। खुफिया तंत्र स्वतंत्र होकर इस तरह के लोगों की यदि परख कर सके तथा देश की सीमा से अंदर आने वाले बाहरी अज्ञात व्यक्तियों के परिवेश को रोका जा सके तो आतंकवाद से लड़ पाना संभव हो सकेगा। आज यह युध्द से भी ज्यादा खतरनाक हो चला है। इस तरह के परिवेश से लड़ने के लिए स्वहित प्रेरित राजनीति से ऊपर उठकर राष्ट्रहित में मंथन करना एवं सकारात्मक कदम उठाना जरूरी है।
-स्वतंत्र पत्रकार, डी-9, IIIए, खेतड़ीनगर-333504 (राज.)

Monday, July 14, 2008

संकट के कगार पर खड़ी सरकार

केन्द्र की संप्रग सरकार के नेतृत्व की ओर से परमाणु करार की दिशा में बढ़े कदम डील से नाराज वाम दलों के समर्थन वापसी से एक बार फिर केन्द्र की सरकार संकट के कगार पर खड़ी दिखाई देने लगी है। केन्द्र की संप्रग सरकार को बाहर से समर्थन दे रहे वाम दलों की 59 की संख्या सर्वाधिक होने के कारण सरकार का भविष्य खतरे में अवश्य पड़ गया है परन्तु सपा द्वारा सरकार को समर्थन देने की घोषणा एवं राष्ट्रपति को सहमति पत्र सौंपने के उपरान्त आवश्यक बहुमत जुटाये जाने की स्थिति से वर्तमान हालात में केन्द्र की संप्रग सरकार अपने आपको सुरक्षित महसूस करती नजर आ रही है। राजनीतिक दांवपेंच के इस खेल में सत्ता की गेंद किस पाले में गिरेगी, कह पाना अभी मुश्किल है।
इतिहास के आइने में झांके तो राजनीति में किसी पर भरोसा कर पाना कतई संभव नहीं। पूर्व में स्व. चौधरी चरण सिंह के कार्यकाल में तत्कालीन कांग्रेस पार्टी द्वारा समर्थन देकर चौधरी चरणसिंह को प्रधानमंत्री बनाये जाने की घोषणाएं संसद में विश्वास मत हासिल करने के वक्त कौनसे रूप में उभरकर सामने आई, पूरा देश भलीभांति जानता है। कांग्रेस पार्टी में अचानक आये बदलाव नीति के कारण चौधरी चरणसिंह संसद में अपना बहुमत नहीं सिध्द कर पाये तथा सरकार अल्पमत में आ गई। परिणामत: देश में दुबारा चुनाव हुए। यदि इसी तरह की पुनरावृति 22 जुलाई को संसद में विश्वासमत के समय उभर जाती है तो सरकार का अल्पमत में आना निश्चित ही है। इस दिशा में सपा द्वारा समर्थन की पृष्ठभूमि में प्रमुख भूमिका निभा रहे सपा के महामंत्री अमर सिंह के मन में पूर्व में संप्रग सरकार के गठन के समय उपजे अनादर भाव के प्रतिफलस्वरूप पनपे प्रतिकार एवं चौधरी अजीत सिंह के मन में पूर्व में कांग्रेस द्वारा अपने पिता चौधरी चरणसिंह के प्रति अपनाई गई धोखा नीति के प्रतिफल से उपजे प्रतिकार का स्वरूप विश्वासमत के हालात को बदल सकता है। वैसे फिलहाल इस तरह के संकट के अंदेशे से वर्तमान हालात दूर ही नजर आ रहे हैं। वामदलों के समर्थन वापसी से उपजे संकट से सरकार को बचाने की दिशा में सपा द्वारा स्वयं पहल करने की पृष्ठभूमि को उत्तरप्रदेश में बसपा साम्राज्य से सपा को बढ़ते खतरे से बचाव की दिशा में बढ़ा कदम माना जा रहा है जहां लेन-देन की राजनीति में एक दूसरे के संरक्षण की पृष्ठभूमि उभरती दिखाई देती है। विश्वासमत के समय उभरे इस पृष्ठभूमि से हालात सरकार का भविष्य तय कर सकते हैं जहां सरकार इस तरह के हालात में संकट के कगार पर खड़ी है।
वामदल एवं भाजपा दोनों एक दूसरे के नीतिगत एवं वैचारिक पृष्ठभूमि में विरोधी रहे हैं। एक को नार्थ पोल कहा जाता है तो दूसरे को साउथ पोल। नार्थ पोल एवं साउथ पोल का एक दिशा में ध्रुवीकरण होना कौनसा रूप धारण कर सकता है, भलीभांति सभी परिचित हैं। विश्वासमत के समय दोनों सरकार के विरोध में खड़े दिखाई दे रहे हैं। इस दिशा में दोनों की अपनी-अपनी वकालत है। डील के विरोध में सरकार को विश्वासमत के समय अपना विरोधी मत प्रकट करते वक्त जो वामदलों का नजरिया है, वह भाजपा का कदापि नहीं। भाजपा एवं विरोधी पार्टी के रूप में अपनी पृष्ठभूमि निभाती नजर आ रही है। परमाणु डील के मामले में आर्थिक नीति के पक्षधर रही भाजपा की सोच सकारात्मक तो रही है परन्तु डील पर उभरे विवाद को लेकर संकट में घिरी सरकार से उत्पन्न राजनीतिक परिवेश का पूरा लाभ विपक्ष के रूप में वह उठाना भी चाहती है। संप्रग सरकार के प्रमुख सहयोगी वामदल परमाण्ाु डील पर शुरू से ही अपना विरोध जता रहे हैं। इस मुद्दे पर संप्रग सरकार के नेतृत्व एवं वामदलों के बीच पूर्व में कई बार मनमुटाव की स्थिति भी उभरती दिखाई दी है। संप्रग सरकार के नेतृत्व द्वारा डील पर विशेष सहयोगी वामदलों के नकारात्मक रूख के बावजूद भी अमल करने की पहल सरकार को संकट के कगार पर खड़ी कर दी है। इस तरह के उभरे हालात का विरोध में खड़ी भाजपा पूरा-पूरा राजनीतिक लाभ उठाना चाहती है। इसी कारण डील के पक्ष में सकारात्मक पृष्ठभूमि होते हुए भी महंगाई जैसे ज्वलंत मुद्दे पर सरकार को घेरने की भरपूर तैयारी कर रही है। भाजपा के प्रमुख घटक अकाली दल पर सरकार के पक्ष में जाने का संदेह उभरता तो दिखाई दे रहा है परन्तु घटक की पृष्ठभूमि एवं विरोधी पार्टी का स्वरूप इस तरह के हालात से इस दल को बाहर ही रख पायेगी, ऐसा भी माना जा रहा है। विरोधी पार्टी के रूप में भाजपा एनडीए के साथ सरकार के विश्वासमत के विरोध में मतदान करने की घोषणा कर चुकी है। वामदल, भाजपा एवं इसके सहयोगी दलों की पृष्ठभूमि विश्वासमत के समय सरकार के विरोध मत के रूप में स्पष्ट रूप से दिखाई दे रही है। सपा का केन्द्र सरकार के साथ होने की पृष्ठभूमि से बसपा का भी सरकार के विरोध में मत जाहिर करना स्वाभाविक है। इस तरह के हालात के बावजूद भी संप्रग सरकार अपने आपको सुरक्षित महसूस कर तो रही है परन्तु आंकड़े उपरी सतह पर तैरते नजर आ रहे हैं। इन आंकड़ों के तह में छिपा विश्वासघात सरकार को संकटकालीन स्थिति में क्या उभार पायेगा? विचारणीय मुद्दा है।
देश के साथ विश्व की पूरी निगाहें 22 जुलाई के मतदान पर टिकी है। जहां डील जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे पर सरकार का भविष्य टिका है जहां विश्व की पूंजीवादी नीतिगत पक्ष-विपक्षीय दृष्टिकोण शामिल हैं। यदि डील को लेकर सरकार विश्वासमत हासिल करने में सफल नहीं हो पायी तो डील से जुड़ी शक्तियों को भी भारी आघात पहुंचेगा। वैसे डील को सफल बनाने की पृष्ठभूमि में विश्व की शक्तियां भी ऐन-केन-प्रकारेण अप्रत्यक्ष रूप से सहयोग कर रही हैं। उससे जुड़े लोगों की तादाद भी काफी है। परन्तु स्वार्थमय परिवेश की उभरती पृष्ठभूमि कुछ नया परिदृश्य भी उभार सकती है। झारखंड प्रदेश में जब निर्दलीय मधु कोड़ा की सरकार संचालन की पृष्ठभूमि में उभर सकती है तो वर्तमान सरकार से जुड़े सहयोगी दलों के बीच नेतृत्व की नई तस्वीर पैदा भी की जा सकती है। इस तरह के हालात निश्चित तौर पर विश्वासमत के समय नये स्वरूप उजागर कर सकते हैं। राजनीतिक क्षेत्र में सबकुछ संभव है। छल, बल, साम, दंड, भेद आदि से सदा ही राज की नीति के साथ जुड़े प्रसंग रहे हैं। स्वार्थ परायण राजनीति में कौन अपना है, कौन पराया, कह पाना मुश्किल है। वैसे डील के मुद्दे पर विश्वासमत प्राप्त करने की दिशा में केन्द्र की सरकार घटक दलों के साथ जोर-शोर से सक्रिय हो चली है। इस दिशा में घटित घटनाओं पर नजर टिकी है। डील को देश हित में बताने का भी प्रयास सरकार द्वारा जारी है। परन्तु पूर्व में पोकरण परमाणु परीक्षण के दौरान भारत के साथ अमेरिका का दुर्भावना पूर्ण व्यवहार उसके साथ हो रही डील को संदेह के कटघरे में भी खड़ा करता दिखाई दे रहा है। भारत ने जब भी आत्मनिर्भर बनने की दिशा में अपना कदम बढ़ाया, अमेरिका को रास नहीं आया है। इस तरह के हालात परमाणु डील पर सवालिया निशान खड़े करते अवश्य दिखाई दे रहे हैं। जिसके बीच 22 जुलाई को केन्द्र की संप्रग सरकार विश्वासमत के कटघरे में खड़ी दिखाई देगी। जहां देश का भविष्य टिका है। अब तो सरकार के सहयोगी दलों के बीच से भी विरोधी स्वर उभरते नजर आने लगे हैं जिसके कारण संकट के कगार पर खड़ी सरकार को बचा पाना कठिन है।

सबसे बड़ी ठेकेदार आज की सरकार

ठेका पध्दति से भलीभांति प्राय: सभी परिचित हैं। जहां काम तो है पर दाम नहीं। दाम नहीं से तात्पर्य है, जिस अनुपात में काम लिया जाता उस अनुपात में मजदूरी नहीं दी जाती। मजबूरी में मजदूरी का वास्तविक स्वरूप इस पध्दति में आज तक उजागर नहीं हो पाया है। वास्तविक मजदूरी का अधिकांश हिस्सा बंटादारी में विभाजित होकर शोषणीय प्रवृत्ति को जन्म दे डालता है जिससे इस तरह की व्यवस्था में असंतोष उभरना स्वाभाविक है। इस तरह के परिवेश प्राय: निजी क्षेत्र में देखने को मिलते हैं जहां ठेकेदार में लाभांश कमाने की सर्वाधिक प्रवृत्ति समाई नजर आती है। इस प्रक्रिया में उचित मजदूरी एवं सामाजिक सुरक्षा का प्रश्न ही नही ंउभरता। काम करने वाले समूह के मन में सदा ही अनिश्चित भविष्य के प्रति भय बना रहता है तथा पग अस्थिर देखे जा सकते हैं। इस तरह के परिवेश में सदा ही अपने आपको उपेक्षित महसूस करते विकल्प की तलाश में भटकता रहता है जिससे उसका तन तो कहीं ओर तथा मन कहीं ओर नजर आता है। इस तरह असंतोष भरे वातावरण में उसके मन में पलायन घर कर लेता है। इस तरह की स्थिति अब सरकारी क्षेत्र में भी देखने को मिलने लगी है। पूर्व में सरकार की छत्रछाया में ये ठेकेदार फल-फूल रहे थे, अब स्वयं सरकार ही ठेकेदार का स्वरूप धारण कर चुकी है। जिसके तहत आज उच्च शिक्षा प्राप्त तकनीकी क्षेत्र के स्नातक सबसे ज्यादा शिकार देखे जा सकते हैं। राजस्थान प्रदेश में विद्युत विभाग के तहत हो रही कनिष्ठ अभियंताओं की भर्ती को इस दिशा में देखा जा सकता है। जिन्हें चयन उपरान्त दो वर्षों हेतु मात्र 6450रू. के मानदेय पर अपनी सेवाएं देने हेतु प्रतिनियुक्ति दी जाती है तदोपरान्त वेतनमान उन्हें प्रदान किया जाता है। इस तरह के हालात में चार वर्षीय इंजीनियरिंग क्षेत्र में शिक्षा पाने के उपरान्त बेहतर वेतन एवं परिवेश पाने की लालसा मन में रखने वालों की भावनाएं कुंठित होकर रह जाती हैं। बेरोजगारी के दौर में वे इस तरह के परिवेश स्वीकार तो कर लेते हैं परन्तु असंतोष भरे परिवेश में उन सभी का मन विकल्प की तलाश में भटकता नजर आता है। फिलहाल राजस्थान की प्रदेश सरकार ने इस दिशा में विभागीय तौर पर पलायन कर रहे अभियंताओं को रोके जाने हेतु वेतन बढ़ाये जाने की मांग पर सहमति जताते हुए बिजली की पांच कंपनियों में प्रोबेशनरी इंजीनियरों का प्रारंभिक वेतन बढ़ाये जाने को स्वीकृति तो दे दी है परन्तु इस दिशा में की जा रही वृध्दि बाजार के पैमाने से अभी भी काफी कम है। डिग्रीधारी अभियंताओं को निजी क्षेत्र में प्रारंभिक तौर पर मिलने वाली पगार से यह रकम आधी ही है। बढ़ती महंगाई के आगे इस तरह के पगार के बीच युवा पीढ़ी को रोक पाना फिर भी संभव नहीं हो सकेगा। विचारणीय मुद्दा है।
आज रोजगार के क्षेत्र में आयी मल्टीइंटरनेशनल कंपनियां जहां स्नातक इंजीनियरों को प्रारंभिक दौर में कम से कम 15000रू. एवं अन्य सुविधाएं प्रदान कर रही हैं, जहां अच्छे पैकेज की व्यवस्था दिख रही हो, इस तरह के हालात में राज्य सरकार द्वारा प्रदत्त योजना में असंतोष उभरना स्वाभाविक है। जिससे इस विभाग में पदों की स्थिति एक समय अन्तराल के उपरान्त खाली देखी जाती है। जिसका कार्यक्षेत्र पर भी प्रतिकूल प्रभाव देखा जा सकता है। इस तरह के क्षेत्र में स्नातक अभियंताओं के मन में ये भावना भी कुंठित भाव उजागर कर रही है जहां दूसरे राज्यों में प्रशिक्षण के दौरान ही पूर्ण वेतनमान एवं स्नातक योग्य पद उपलब्ध कर दिये जाते हों, वहीं राजस्थान प्रदेश में इस क्षेत्र में अंतराल देखा जा सकता है। राजस्थान प्रदेश में डिप्लोमा एवं डिग्री इंजीनियरों में प्रारंभिक दौर पर कोई अंतर नहीं है जहां दूसरे राज्यों में कनिष्ठ अभियंता पर डिप्लोमा कोर्स की योग्यता वाले लिये जाते हैं वहीं राजस्थान प्रदेश में इस पद हेतु डिग्री कोर्स की योग्यता का पैमाना तय है। इस तरह के हालात से भी इस क्षेत्र में स्नातक अभियंताओं के मन में आक्रोशित एवं कुंठित भाव पनपते देखे जा सकते हैं जिसके कारण समय मिलते ही इनके पग पलायन की ओर बढ़ चलते हैं। इस तरह के हालात राज्य सरकार के अधीनस्थ समस्त सेवाओं के तहत देखे जा सकते हैं। जहां जन स्वास्थ्य, सड़क, परिवहन, जलदाय आदि विभाग शामिल हैं। इन सभी विभागों में अन्य राज्यों की अपेक्षा इस राज्य में लागू पद व वेतनमान के अन्तराल से उपजे स्नातक अभियंताओं सहित समकक्षीय योग्यता वाली युवा पीढ़ी के मन में भारी असंतोष पनप रहा है जिस पर मंथन किया जाना आवश्यक है।
ठेके का दूसरा रूप राज्य सरकार के अधीनस्थ सेवाओं में खाली पदों के तहत हो रही नियुक्तियों के दौरान देखा जा सकता है जहां अस्थायी तौर पर नियुक्तियां जारी हैं। इस तरह के पदों पर भी कार्यरत लोगों को सही ढंग से वेतनमान एवं सुविधाएं देने की व्यवस्था न होकर ठेकेदार की ही तरह अल्प वेतन एवं सुविधाओं से वंचित किये जाने की प्रक्रिया जारी है। जहां मजबूरी का पूरा-पूरा लाभ उठाये जाने की परंपरा लागू है। राज्य पथ परिवहन निगम, विद्युत, चिकित्सा, शिक्षा, जलदाय, स्वास्थ्य, सार्वजनिक निर्माण सहित अन्य विभागों में अस्थायी तौर पर नियुक्तियों के स्वरूप को देखा जा सकता है। जिससे उभरते यहां असंतोष को नकारा नहीं जा सकता।
युवा पीढ़ी में भावी निर्माण की आधारभूमि समाहित होती है। यह हमारी अनमोल धरा है जिसकी रक्षा करना एवं उनके अंदर पनपते असंतुष्ट भाव को दूर कर पलायन से रोकना सरकार का दायित्व है। काम के अनुसार दाम के सिध्दान्त को सही ढंग से अमल में लाने एवं व्यवस्था से उभरते असंतोष को दूर कर सुव्यवस्थित व्यवस्था दिये जाने का भी दायित्व सरकार के कंधों पर होता है। जनतंत्र में सरकार ही जनता की सर्वोच्च कार्यपालिका मानी गयी है। जिन्हें जनहित एवं राष्ट्रहित में सुव्यवस्थित व्यवस्था देने का संपूर्ण अधिकार है। ठेकेदार की स्वहित में उभरी गलत परंपराओं को रोकना सरकार का दायित्व है। जब सरकार ही स्वयं ठेकेदार का रूप धारण कर स्वहित में शोषणीय प्रवृत्ति को अपनाने लगे तो इस तरह के परिवेश से उभरे असंतोष से बच पाना नामुमकिन है। इस दिशा में मंथन होना चाहिए। आज अपने क्रियाकलापों से सरकार ही सबसे बड़े ठेकेदार का स्वरूप धारण करती जा रही है। जो जनतंत्र के विपरीत परिदृश्य को उजागर करता है। इस स्वरूप में अपनी कार्यशैली से बदलाव लाकर उभरते असंतोष को दूर करने का भरपूर प्रयास ही सही जनतंत्र को उभार सकता है।
आज की हर सरकार सबसे बड़ा ठेकेदार बन चुकी है। यह स्वरूप उसके सामाजिक सरोकार को साफ-साफ नकारता है। जिससे सरकार एवं आम जनसमूह के बीच दिन पर दिन अंतराल बढ़ता ही जा रहा है। इस तरह की स्थितियां प्रदेश से लेकर केन्द्र तक फैले क्रियाकलापों के तहत देखी जा सकती है। इस तरह के हालात असंतोष के कारण बनते जा रहे हैं। जिससे सरकार पर से आम जनता का विश्वास धीरे-धीरे उठने लगा है। जनहित एवं राष्ट्रहित में यह जरूरी है कि अपने सरोकार को बनाये रखने के लिए सरकार ठेकेदारी प्रवृत्ति का त्याग करे तभी आम जन का विश्वास वर्तमान जनतंत्र के प्रति उभर सकता है।

महंगाई की मार पर करार के लिए बेकरार

दिन पर दिन महंगाई बढ़ती ही जा रही है। बाजार-भाव आसमान छूने लगे हैं। एक हफ्ते के दौरान ही महंगाई की दर 8.5 फीसदी से बढ़कर 11.5 फीसदी होने जा रही है। इस कमरतोड़ महंगाई की मार से देश की आम जनता सबसे ज्यादा परेशान नजर आने लगी है। पर केन्द्र सरकार को इस बढ़ती महंगाई की लेशमात्र भी चिंता कहीं नजर नहीं आ रही है। वह तो परमाणु करार के पीछे बेकरार हो रही है। परमाणु करार को लेकर वर्तमान केन्द्र सरकार के प्रधानमंत्री सबसे ज्यादा चिंतित व परेशान नजर आ रही है जबकि सरकार के विशेष सहयोगी वामदल इस करार के विरोध में बार-बार अपना मत जताते नजर आ रहे हैं। साथ ही यह भी कहते नजर आ रहे हैं कि सरकार को कोई खतरा नहीं। बढ़ती महंगाई को लेकर अपने आप को आम जनता का सबसे ज्यादा हितैषी बताने वाले यह वामदल भी फिलहाल मौन ही दिखाई दे रहे हैं। विपक्ष में खड़ी भाजपा की इस दिशा में सुगबुगाहट राजनीतिक लाभांश के मार्ग में सक्रिय होती दिखाई दे रही है। आज इस तरह के पूरे परिवेश का प्रतिकूल प्रभाव बाजार पर पड़ता दिखाई दिखाई दे रहा है। जहां बाजार से अब सामान भी धीरे-धीरे गायब होने लगे हैं। इस तरह के हालात में उपभोक्ताओं की आवश्यक वस्तुओं की मांग एवं बाजार में कमी महंगाई को बढ़ाने में सहायक सिध्द हो रही है। जिसे कालाबाजारी का नाम भी दिया जा सकता है। इस तरह की विकट स्थिति को पैदा कर अवैध रूप से काला धन बटोरे जाने की यहां परंपरा पूर्व से ही रही है जहां अप्रत्यक्ष रूप से जारी राजनीतिक संरक्षण को देखा जा सकता है। बाजार को अनियंत्रित किये जाने की बागडोर प्राय: पूंजीपति वर्ग के हाथ ही होती है जिस पर लगाम नहीं कसने से बाजार का संतुलन बिगड़ना स्वाभाविक है।
आज हमारी मांग बढ़ती जा रही है। आधुनिक लिबास के रंग-ढंग एवं ठाठ-बाट खर्च की सीमा को बढ़ाते जा रहे हैं। इस पैमाने पर संचित आय भी संकुचित होती जा रही है। मल्टीइंटरनेशनल कंपनियों के पसरते पग एवं उससे उभरे बाजार के हालात की चकाचौंध ने भारतीय आम जनजीवन का जीना दूर्भर कर दिया है। इस तरह के परिवेश भारत जैसे विशाल जनसंख्या के हित में कदापि नहीं है जहां आज भी अधिकांश जनजीवन दैनिक मजदूरी एवं फुटपाथ की जिंदगी जी रहा है। जहां जिन्हें हर पल रोटी के लाले पड़े रहते हैं। मजदूरी नहीं मिली तो रोटी भी छिन जाती है। इस तरह के परिवेश में जीवनयापन कर रहे लोगों को ऊपर उठाने का संकल्प लेकर संसद तक पहुंचने वाले जनप्रतिनिधि पूंजीवादी व्यवस्था के तहत निर्मित चकाचौंध की दुनिया में उलझकर सबकुछ यथार्थ को भूल जाते हैं जिसके कारण आज देश में दिन पर दिन बढ़ती जा रही महंगाई इस तरह के जीवनयापन करने वालों को ग्रास बनाती जा रही है।
पूर्व में परमाणु क्षेत्र में केन्द्र की वर्तमान सरकार के नेतृत्व में यूएसए से किये समझौते को अंतिम अमली जामा पहनाने के प्रयास अभी भी जारी हैं। जिसके विरोध में केन्द्र सरकार के प्रमुख सहयोगी वामदलों द्वारा गतिरोध भी देखा जा सकता है। परमाणु क्षेत्र में किये गये समझौते के लागू होने के उपरान्त देश में कौनसे हालात उभरेंगे, यह तो मुद्दा अभी मंथन के गर्भ में छिपा है परन्तु पूंजीवादी व्यवस्था से पनपी महंगाई का जो स्वरूप उभरकर सामने आ रहा है, उसका निदान ढूंढना आज अति आवश्यक है। पूंजीवादी देश की नजर भारत जैसे विशाल लोकतांत्रिक देश पर पहले से ही लगी हुई है। विश्व में सबसे बड़ा बाजार भारत ही है। जहां से धन उगाही सबसे ज्यादा की जा सकती है। भारत की स्वतंत्रता एवं विकास विश्व के अन्य विकसित देशों की आंखों की किरकिरी बन चुका है। जिसके परिणामस्वरूप पड़ौसी राष्ट्रों के माध्यम से यहां जारी आतंकवादी गतिविधियां एवं लोकतांत्रिक स्वरूप पर अप्रत्यक्ष रूप से उभरते एकाधिपत्य को देखा जा सकता है। जहां देश के लोकतांत्रिक निर्णय में कहीं न कहीं विश्व की शक्तियां अप्रत्यक्ष रूप से शामिल नजर आ रही है। तभी तो देश में उभरी ज्वलंत समस्या महंगाई की चिंता को छोड़ आज सरकार परमाणु क्षेत्र में किये करार को लेकर बेकरार हो रही है। जबकि इस तरह के गंभीर मुद्दे से सरकार का आगामी भविष्य भी जुड़ा हुआ है। यदि समय रहते महंगाई पर नियंत्रण नहीं हो पाया तो देश में होने वाले चुनाव के दौरान वर्तमान केन्द्र सरकार को भारी खामियाजा भुगतना पड़ सकता है। इस तरह के हालात से सरकार के जुड़े यहां के जनप्रतिनिधि एवं वर्तमान सजग प्रहरी भलीभांति परिचित हैं परन्तु इस तरह के गंभीर मुद्दे को छोड़ करार के लिए बेकरार होने के पीछे कौनसी परिस्थितियां हैं, चिंतन का विषय है। जहां इनके अस्तित्व के गले में खतरे की घंटी बंधी दिखाई दे रही है।
पेट्रोलियम पदार्थों में हुई वृध्दि को महंगाई बढ़ने का मूल कारण तो बताया जा रहा है। इस तरह की वृध्दि भी महंगाई को बढ़ाने में सहायक तो है परन्तु बाजार का अनियंत्रित होना एवं कालाबाजारी का बढ़ना भी इस दिशा में प्रमुख भूमिका बना हुई है। इस तरह के परिवेश निश्चित तौर पर पूंजीवादी व्यवस्था की ही देन है। बाजार को नियंत्रण में रखने एवं कालाबाजारी रोके जाने के सार्थक प्रयास किये जाने की आज महती आवश्यकता है। इस दिशा में सरकार ही ठोस कदम उठा सकती है। वर्तमान हालात में परमाणु करार के बजाय राष्ट्रहित एवं जनहित में बढ़ती महंगाई को रोके जाने के ठोस सकारात्मक कदम उठाये जाने की आवश्यकता है। देश के विकास में आमजन को राहत एवं सुव्यवस्थित व्यवस्था उपलब्ध कराना प्रमुख पृष्ठभूमि के तहत आता है। बढ़ती जा रही महंगाई से देश में उभरा असंतोष विकास के मार्ग में बाधा ही उत्पन्न कर सकता है। इस यथार्थ को समझा जाना चाहिए। महंगाई की मार से आम जन को बचाते हुए परमाणु करार के मुद्दे पर राष्ट्रहित को सर्वोपरि रखकर गंभीरता से हर पहलू पर मंथन किया जाना चाहिए। इस दिशा में किसी भी तरह की जल्दबाजी करना राष्ट्रहित में कदापि नहीं माना जा सकता। परमाणु करार पूंजीवादी व्यवस्था से जुड़े विश्व के सबसे बड़े कूटनीतिज्ञ राष्ट्र अमेरिका से जुड़ा प्रसंग है जो पूर्व में देश द्वारा परमाणु क्षेत्र में किये गये पोकरण परीक्षण प्रकरण पर अपनी नाराजगी जता चुका है। इस देश को भारत की इलैक्ट्रोनिक क्षेत्र में आत्मनिर्भरता भी कभी रास नहीं आई थी। इस तरह के प्रसंग पर भी गंभीरता से मंथन किया जाना अति आवश्यक है। इस तरह के ज्वलंत मुद्दे जो सरकार को कटघरे में खड़ा कर विवादास्पद बन सकते हैं, राष्ट्रहित में कदापि नहीं हो सकते। महंगाई की मार, पर करार के लिए सरकार हो रही बेकरार की पृष्ठभूमि के इर्द-गिर्द उभरते सवाल पर मंथन होना राष्ट्रहित में अति आवश्यक है।

Tuesday, June 10, 2008

नवरत्न की दिशा में बढ़ता ताम्र उद्योग

संत, सूफी, शूर-वीरों एवं देश के कोने-कोने में उद्योगों एवं व्यापार का महाजाल फैलाने वाले उद्योगपतियों की अग्रणी जन्मस्थली शेखावाटी सदा से ही खनन के क्षेत्र में अव्वल रही है। इस क्षेत्र में मीलों तक फैली अरावली पर्वत कंदराओं की गोद में बहुमूल्य धातु ताम्र अयस्क के विशाल भंडार आज भी समाहित हैं। जिसे वर्षों से इस क्षेत्र के खेतड़ी उपखण्ड में भारत सरकार के उपक्रम हिन्दुस्तान कॉपर लिमिटेड की प्रमुख इकाई खेतड़ी कॉपर काम्प्लैक्स के तहत निकाले जाने का क्रम जारी है। इस क्षेत्र के अरावली पर्वतामालाओं की गोद में विराजमान सिंघाना क्षेत्र में मिले अवशेष भी मुगलकाल में ताम्र निकाले जाने के प्रमाण दे रहे हैं जिसे आइने अकबरी में उल्लेखित प्रसंग से भलीभांति जान सकता है। स्वतंत्रताउपरान्त समय-समय पर शेखावाटी क्षेत्र में धातु सम्पदा की खोज में कार्यरत भारत सरकार का संस्थान GSI (भारतीय भूगर्भ सर्वेक्षण) एवं MECL (धातु गन्वेषण निगम लिमिटेड) के द्वारा खेतड़ी, बनवास, सिंघाना एवं आकावाली के साथ-साथ अन्य क्षेत्रों में ताम्र अयस्क के मिले भंडार एवं अभी हाल ही में GSI द्वारा धनोटा क्षेत्र में मिले स्वर्ण भंडार ने खनन के क्षेत्र में इसके गौरवमयी पृष्ठभूमि को नये सिरे से उजागर कर राजस्थान के साथ-साथ देश के विकास में अहम् भूमिका निभाने के दृष्टिकोण को नया आयाम दिया है। वर्तमान में भारत सरकार के केन्द्रीय खनन मंत्री पद्म श्री शीशराम ओला की भी जन्मस्थली शेखावाटी है जहां इस तरह के अद्भुत खनन की संभावनाएं उभरती दिखाई दे रही हैं। जिनके सकारात्मक सोच ने हिन्दुस्तान कॉपर लिमिटेड के जीवन्त पक्ष को उजागर करने एवं मजबूत बनाने में अहम पृष्ठभूमि निभाई है। राजनीतिक क्षेत्र के मर्मज्ञ एवं वर्षों तक इस क्षेत्र के लोकप्रिय बने रहे सांसद शीशराम ओला पूर्व से ही विनिवेश एवं निजीकरण्ा के विरोधी पक्ष को उजागर करते रहे हैं, जिसके प्रतिफल में तत्कालीन एन.डी.ए. सरकार के कार्यकाल में पनपी विनिवेश एवं निजीकरण की बढ़ती प्रक्रिया के तहत ग्रसित होने से बचते हुए इस क्षेत्र का यह ताम्र उद्योग दिन दूनी रात चौगुनी विकास पथ की ओर निरन्तर बढ़ता दिखाई दे रहा है। वैसे उस काल के पड़े प्रतिकूल प्रभाव से यह पूरा क्षेत्र बच नहीं पाया जिसके प्रतिफलस्वरूप आज भी क्षेत्र में घटते रोजगार, घूमते बेरोजगार एवं सशंकित जनाधार दिखाई दे रहा है। तत्कालीन एन.डी.ए. सरकार की विनिवेश एवं निजीकरण की विषाक्त हवा ने इस क्षेत्र के ताम्र उद्योग परिवेश को निश्चित तौर पर प्रभावित किया जिसके प्रतिफल में भयभीत होकर हजारों लोग इस क्षेत्र से पलायन कर गये। आज इसके स्वरूप में कुछ बदला-बदला माहौल दिखाई देने लगा है। इस क्षेत्र के सांसद शीशराम ओला के केन्द्रीय खान मंत्री बनने से निश्चित तौर पर एक बार फिर से इस उद्योग के स्थिरता के क्षण उभरते दिखाई देने लगे एवं लोगों में विश्वास का नया रूप जागृत हो चला है। तत्कालीन एन.डी.ए. सरकार की करारी हार, संप्रग सरकार में वामदलों की उभरती पृष्ठभूमि एवं वर्तमान केन्द्रीय खान मंत्री की सकारात्मक सोच से फिर से शेखावाटी क्षेत्र के इस ताम्र उद्योग को निश्चित तौर पर नया जीवन मिला है जहां खनन के विकास की भावी संभावनाएं उभरती परिलक्षित होती दिखाई देने लगी हैं। वर्षों से लम्बित पड़े वेतनमान को नये संशोधित रूप में आने एवं उद्योग में निरन्तर उत्पादन के बढ़ते चरण से क्षेत्र की रौनकता में फिर से चमक-दमक आती नजर आने लगी है। जीवन्त पक्ष उजागर होने से लोगों का नया विश्वास जागृत होता नजर आने लगा है। जिससे फिर से इस क्षेत्र में रोजगार की भी नई पृष्ठभूमि उभरने के साथ-साथ विकास की भावी संभावनाएं भी जागृत हो चली हैं। इस क्षेत्र में नये तौर से मिले स्वर्ण भंडार की खदान ने क्षेत्र के वर्तमान सांसद केन्द्रीय खान मंत्री के दायित्व को स्वत: ही बढ़ा दिया है जहां पूरे क्षेत्र की नजर इस दिशा में उठने वाले हर कदम पर टिकी हुई है।
वर्तमान केन्द्रीय खान मंत्री शीशराम ओला एवं हिन्दुस्तान कॉपर इकाई के अध्यक्ष सतीशचंद्र गुप्ता की सकारात्मक सोच ने ताम्र उद्योग को जो नया विकसित स्वरूप प्रदान किया है उसका जीता-जागता उदाहरण इस क्षेत्र में स्थापित खेतड़ी कॉपर कॉम्प्लैक्स के वर्तमान उत्पादन दर में हो रही निरन्तर वृध्दि दर एवं बदलता परिवेश है। आज यह उद्योग निरन्तर मुनाफे की ओर बढ़ता दिखाई दे रहा है। ताम्र धातु खनन के विकास की भावी योजनाएं एवं क्षेत्र के बदले उल्लास भरे हालात, शेखावाटी क्षेत्र के उज्जवल भविष्य के परिचायक बनते जा रहे हैं। जहां शेखावाटी के गर्भ में खेतड़ी खदान के तहत बनवास व आस-पास के क्षेत्र में संभावित 1.3प्रतिशत ग्रेड का 59 मिलियन टन ताम्र अयस्क होने का अनुमान है जिसे वर्षों तक खनन किया जा सकता है। वर्तमान में धातु बाजार में निरन्तर बढ़ते ताम्बे के भाव एवं उद्योग में निरन्तर हो रहे उत्पादन से हिन्दुस्तान कॉपर लिमिटेड को बेहतर लाभांश की दिशा की ओर ले जाने में शेखावाटी क्षेत्र में स्थित इस खेतड़ी कॉपर कॉम्प्लैक्स यूनिट का महत्वपूर्ण योगदान है। इस क्षेत्र से ताम्र उत्पादन के साथ-साथ गंधकाम्ल का भी उत्पादन बाई प्रोडक्ट के रूप में निरन्तर हो रहा है। पूर्व में यहां से खाद भी उत्पादित होता रहा है जो फिलहाल बंद है। नये सर्वे में इस क्षेत्र से मिली स्वर्ण धातु अयस्क की उपस्थिति शेखावाटी क्षेत्र में ताम्र उत्पादन के साथ-साथ स्वर्ण उत्पादन का नया कीर्तिमान स्थापित करते हुए क्षेत्र का भविष्य बदल सकती है। शेखावाटी क्षेत्र में उभरती वर्तमान में धातु खनन की संभावनाएं इसके उज्ज्वल एवं प्रगतिमय भविष्य का द्योतक है। इस दिशा में इस क्षेत्र से जुड़े उद्योगपति, जनप्रतिनिधि, बुध्दिजीवी वर्ग में सकारात्मक सोच, चिंतन एवं रचनात्मक सहयोग की महती आवश्यकता है। शेखावाटी क्षेत्र के विकास में वर्तमान केन्द्रीय खान मंत्री की भूमिका काफी महत्व हो सकती है जिनके प्रयास से इस क्षेत्र से जुड़े लोगों का ध्यान इस दिशा की ओर रचनात्मक दृष्टिकोण्ा से आगे बढ़ सके। इस क्षेत्र की बेरोजगार युवा पीढ़ी रोजगार पाने की लालसा में आशा भरी दृष्टि लिये प्रतीक्षारत दिखाई दे रही है जहां खनन को लेकर क्षेत्र में अनेक तरह की विकास की संभावनाएं उभरती नजर आ रही हैं। इस दिशा में इस क्षेत्र से जुड़े देश के कोने-कोने में फैले उद्योगपतियों की भूमिका काफी महत्वपूर्ण हो सकती है जिनके सहयोग में शेखावाटी क्षेत्र का उज्ज्वल भविष्य समाहित है।
देश में तांबे का उत्पादन प्रारंभ काल से ही राष्ट्रहित में महत्वपूर्ण रहा है। रक्षा के क्षेत्र के साथ-साथ संचार एवं जनोपयोगी उत्पादन में इसके प्रयोग को देखा जा सकता है। देश में तांबे की कुल खपत का मात्र 50 प्रतिशत तांबा ही सार्वजनिक क्षेत्र में स्थित इकाइयों से प्राप्त हो सका है जबकि देश में तांबे की अपनी खदानें है। राजस्थान के शेखावाटी क्षेत्र सीकर, झुंझनूं जिले में ही 50 मिलियन टन से अधिक ताम्र अयस्क होने का अनुमान है। भारतीय भूगर्भ विज्ञान द्वारा इस दिशा में अनुसंधान का कार्य जारी है जिसके द्वारा अन्वेषण में वर्तमान हालात में प्राप्त ताम्र अयस्क की पट्टियों से कई वर्षों तक तांबा निकाला जा सकता है। तांबे के क्षेत्र में देश को आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में इस कदम को और सशक्त बनाने की महती आवश्यकता है। आज इस क्षेत्र में पहले से काफी उत्पादन बढ़ा है जिससे लगातार यहां लाभांश की स्थिति देखी जा सकती है। भारत सरकार के खान मंत्रालय के अधीन एन।एम.डी.सी. एवं नाल्को, जिसकी स्थिति पूर्व में ताम्र उद्योग से बेहतर नहीं रही है, आज ये दोनों प्रतिष्ठान नवरत्न की श्रेणी में घोषित किये जा चुके हैं। इसी मंत्रालय के अधीन कॉपर उद्योग की स्थिति में काफी सुधार हुआ है। जहां निरंतर लाभांश के उभरते हालात देखे जा सकते हैं। आज यह उद्योग भी नवरत्न की दिशा में बढ़ता नजर आने लगा है। देश के विकास में अहम भूमिका निभाने वाले इस महत्वपूर्ण उद्योग को भी शीघ्र नवरत्न की श्रेणी में शामिल किये जाने की महती आवश्यकता है। जिससे यह उद्योग पहले से भी कहीं ज्यादा राष्ट्रहित में उत्पादन एवं उपयोग की दिशा में बेहतर उपयोगी सिध्द हो सके। जिससे भारत के रणबांकुरे एवं उद्योगपतियों की जन्मस्थली राजस्थान के इस शेखावाटी भाग का गौरवमयी इतिहास बन सके।

-स्वतंत्र पत्रकार, डी-9, IIIए, खेतड़ीनगर-333504 (राज.)

Monday, June 2, 2008

स्वार्थमय परिवेश से उलझता देश

जहां देश आज आतंकवाद, आरक्षण की आग, अलगाववाद के गंभीर संकट के बीच से गुजर रहा है वहीं इन समस्याओं से निजात दिलाने के बजाय स्वार्थ की राजनीति नजर आ रही है। निश्चित तौर पर इस तरह का परिवेश देश की अस्मिता, एकता, अखंडता के लिए घातक बनता जा रहा है, जहां देश एक बार फिर से बिखरने के कगार पर खड़ा दिखाई देने लगता है।
अभी हाल ही में उभरे आतंकवाद से प्रदेश गंभीर चुनौती के बीच जूझ ही रहा था कि आरक्षण की तेज आग ने उसे चपेट में ले लिया। आतंकवाद के कारणों का निदान तो दूर रहा, पूरी व्यवस्था इस तरह की आकस्मिक समस्या के बीच उलझकर रह गई। स्वार्थमय राजनीति के बीच राजस्थान प्रदेश में गुर्जर को अनुसूचित जनजाति में शामिल किये जाने की मांग को लेकर उभरी आरक्षण की आग बुझने के बजाय दिन पर दिन बढती ही जा रही है जिसकी चपेट में राजस्थान प्रदेश के सीमांत प्रांत भी आ चले हैं। प्रदेश के भरतपुर जिले से भड़की यह आग आज प्रदेश के गुर्जर बाहुल्य क्षेत्र को प्रभावित करती हुई दिल्ली, उत्तरप्रदेश तक पहुंच गई है जहां का जनजीवन अशान्त हो चला है। इस तरह की मांग को, जिसका ठोस समाधान किसी के पास दिखाई नहीं दे रहा हो, प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष रूप से समर्थन देने से स्वार्थमय राजनीति की उभरती पृष्ठभूमि को नकारा नहीं जा सकता। जो सभी के लिए अंतत: घातक ही साबित होगी। वोट की स्वार्थमय राजनीति के तहत इस तरह के परिवेश को जिस नजरिये से देखा जा रहा है, समाधान की कहीं गुंजाइश नजर नहीं आ रही है। एक दूसरे पर दोषारोपण की राजनीति हालात को गंभीर बनाने में घी में आग का काम कर रही है। इस तरह के हालात निश्चित तौर पर आतंकवादियों के मंसूबे को भी अप्रत्यक्ष रूप से पलायन कर गये, जिनके बारे में छानबीन का प्रसंग स्वत: ही गौण हो गया। आरक्षण की आग के बीच बिगड़े हालात का लाभ आतंकवादी भी कहीं न कहीं अप्रत्यक्ष रूप से ऐन-केन-प्रकारेण उठाने की फिराक में लगे हुए अवश्य हैं जिसपर सोच पाना वर्तमान हालात में कहीं नजर नहीं आता, निश्चित तौर पर इस तरह के परिवेश से आतंकवादियों को स्वत: संरक्षण मिलता दिखाई दे रहा है जो देशहित में कदापि नहीं है। प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लागू किये जाने की वकालत करना भी वर्तमान हालात में प्रासंगिक नहीं माना जा सकता है। देश के सभी राजनीतिक दलों की गैर राजनीतिक सोच की आज महती आवश्यकता है। जो इस तरह की गंभीर समस्या से निजात दिला सके।
आतंकवाद, अलगाववाद, आरक्षण आदि से उभरे हालात के शिकार सबसे ज्यादा निर्दोष ही होते हैं। आज स्वहित में इस तरह के हालात पर उभरती राजनीति को नकारा नहीं जा सकता जिसके कारण इस तरह की समस्याएं दिन पर दिन गंभीर और घातक स्वरूप धारण करती जा रही हैं। वोट की राजनीति ने इस तरह के हालात में उपजी समस्याओं से निजात दिलाने के बजाय और ही ज्यादा उलझा दिया है जहां क्षण प्रतिक्षण निर्दोष जानें जा रही है एवं अरबों-खरबों का सार्वजनिक सम्पत्ति का नुकसान होता साफ-साफ दिखाई दे रहा है जिसकी भरपाई कर पाना कई वर्षों तक संभव नहीं। देश आज इस तरह की गंभीर समस्याओं के साथ-साथ आंतरिक आर्थिक विषमता के दौर से भी गुजर रहा है जहां महंगाई बढ़ती जा रही है। आतंकवाद, अलगाववाद, आरक्षण से उपजे हालात भी महंगाई को बढ़ाने में सहायक सिध्द हो रहे हैं जिससे देश की अर्थव्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है।
आतंकवाद, अलगाववाद, आरक्षण आदि से निजात पाने के ठोस कारगर उपाय राजनीतिक दलों की स्वहित रहित भावना से उपजी गैर राजनीतिक सोच में समाहित है। इस तरह की समस्याओं को उभारने में राजनीतिक दलों की स्वार्थमय राजनीति की पृष्ठभूमि काफी महत्वपूर्ण मानी जाती है। महाराष्ट्र में अलगाववाद से जुड़े स्वहित की राजनीति से प्रेरित क्षेत्रवादी नारों की गूंज, असम की अशांति एवं भयभीत परिवेश, वोट की राजनीति के तहत ऐन-केन-प्रकारेण्ा समय-समय पर आरक्षण के प्रति उपजे समर्थन की भावना एवं आतंकवादियों को अप्रत्यक्ष रूप से बचाने की मुहिम आदि आज निश्चित तौर पर देश को अशांत करने पर तुले हैं। इस तरह की गंभीर समस्याओं का निदान गैर राजनीतिक तरीके से ही किया जा सकता है। आतंकवाद, अलगाववाद, आरक्षण देश के विकास में बाधक ही नहीं, अशांति के मूल कारण हैं। इनकी आग सभी के लिए घातक है। राजनीतिक लाभ हेतु इससे उपजे हालात को हवा देना, देश के लिए अहितकारी ही साबित होगा, इस तथ्य को समझा जाना चाहिए। देश सभी का है, एक जगह से दूसरी जगह आने-जाने व रहने का अधिकार सभी को है। इस तरह के हालात पर ओछी राजनीति किया जाना राष्ट्रहित में कदापि नहीं माना जा सकता। आरक्षण से देश की प्रतिभाएं कुंठित होती है एवं जातीय संघर्ष को एक नया आयाम मिलता है, आरक्षण से उपजे हालात साफ-साफ बयां कर रहे हैं। आरक्षण आज स्वार्थप्रेरित छूत का रूप धारण कर चुका है जिससे मुक्ति पाना वर्तमान स्वार्थमय परिवेश में संभव नहीं दिखाई देता। इस तरह के हालात से निजात पाने का ठोस उपाय सभी राजनीतिक दलों को गैर राजनीतिक तरीके से ढूंढना चाहिए। आरक्षण समाप्त करने की वकालत तो नजर आती है परन्तु वर्तमान हालात में इससे मुक्त होना संभव नहीं दिखाई देता। इस तरह के हालात में संख्याबल के आधार पर सभी जातियों को आनुपातिक रूप में आरक्षण को बांट देने का बंदरबांट स्वरूप ही निजात दिलाता नजर आ रहा है।
आरक्षण और अलगाववाद के परिवेश आंतरिक स्वार्थप्रेरित राजनीति से जुड़े प्रसंग तो हो सकते हैं जिसका समाधान गैर राजनीतिक सोच के माध्यम से निकाला जा सकता है परन्तु आतंकवाद तो बाहरी शक्तियों द्वारा देश को अशांत करने की दिशा में उपजी प्रक्रिया का स्वरूप है जो सभी के लिए घातक है। स्वार्थमय परिवेश से उभरे आरक्षण, अलगाववाद के बीच देश उलझता जा रहा है। आरक्षण एवं अलगाववाद की लहर आतंकवाद को पनाह न दें, इस तरह के हालात पर सभी राजनीतिक दलों को राष्ट्रहित में एकमत से विचार किया जाना सकारात्मक कदम माना जा सकता है। स्वहित में स्वार्थप्रेरित जनित घटनाएं आम जनजीवन को अशांति के मार्ग पर ढकेल देती है। इस तरह के ज्वलंत हालात जो अप्रत्यक्ष रूप से बाहरी शक्तियों द्वारा जनित आतंकवाद को संरक्षण देने की भूमिका में उभरते दिखाई दे रहे हैं, उसे पग पसारने की प्रक्रिया में किसी भी तरह सहयोग देना राष्ट्रीय अस्मिता पर प्रहार है। देश स्वतंत्र होने के उपरान्त भी आंदोलन के तहत उभरती जा रही परिस्थितियों में किसी भी तरह का बदलाव नहीं आया है। आज भी सार्वजनिक सम्पत्तियों को नुकसान पहुंचाना तथा आम जनजीवन को तबाह करना आंदोलनीय पृष्ठभूमि में समाया नजर आ रहा है। इस तरह के हालात का असामाजिक तत्वों द्वारा पूर्णरूपेण स्वहित में लाभ उठाया जाना स्वाभाविक है जिसे नकारा नहीं जा सकता।
आज देश स्वार्थमय परिवेश के बीच दिन पर दिन उलझता जा रहा है। इस तरह के परिवेश को उभारने में यहां के प्राय: सभी राजनीतिक दलों की सोच एवं भूमिका एक जैसी ही है। वोट की राजनीति के तहत सत्ता की गेंद पाने की दिशा में एक दूसरे पर दोषारोपण करने एवं स्वार्थप्रेरित झूठे आश्वासन के जाल में आम जनमानस को उलझाकर जटिल समस्याएं पैदा करने की कला में सभी माहिर हैं। वर्तमान उभरते हालात के बीच इस तरह के परिदृश्यों को साफ-साफ देखा जा सकता है जहां वोट की राजनीति के तहत देश में उभरे आरक्षण एवं अलगाववाद का विकृत रूप आज तक मिट नहीं पाया। स्वतंत्रताउपरांत मात्र दस वर्षों हेतु सामाजिक स्तर से दबे लोगों के ऊपर उठाने की दृष्टि से अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के तहत आरक्षण आज तक हट ही नहीं पाया बल्कि इस सूची में देश की अन्य जातियां भी पिछड़े के नाम पर शामिल कर ली गई तथा शेष जातियों द्वारा इसमें शामिल किये जाने की मांग भी की जा रही है। इस दिशा में स्वहित में उभरे राजनीतिक दलों की स्वार्थप्रेरित परिवेश को देखा जा सकता है, यहीं हालात अलगाववाद के साथ भी है जहां वोट की राजनीति के तहत कभी भाषा, कभी क्षेत्र, कभी संस्कृति का जामा पहनाकर लोगों को उलझा दिया जाता है। इस तरह की स्वार्थमय परिवेश के बीच देश उलझता जा रहा है।

-स्वतंत्र पत्रकार, डी-9, IIIए, खेतड़ीनगर-333504 (राज.)