Saturday, November 22, 2008

मंदासुर

नये आर्थिक युग के इस दौर में मल्टीनेशनल कम्पनियों की बाढ़ सी आ गई, जिसके पांव देश के प्रमुख महानगरों में चारों ओर पसर गये, जहां अच्छी पगार, आकर्षक सुविधाओं की चकाचौंध में देश की युवा पीढ़ी दिन पर दिन फंसती जा रही है। चार दिन की चांदनी फिर अंधेरी रात वाली कहावत चरितार्थ न हो जाय। इस तरह के आभास अभी से होने लगे हैं, जबसे आर्थिक युग का मंदासुर पैदा हो गया है। विश्व में व्याप्त आर्थिक मंदी के दौर में कई कम्पनियों के पांव उखड़ते नजर आने लगे हैं। छंटनी का दौर फिर से शुरू हो चला है। इस तरह के उभरते परिवेश से सोहनलाल का मन अप्रत्याशित भय से भयभीत हो चला है। सोहनलाल एक अच्छी मल्टीनेशनल कम्पनी में कार्यरत है जहां उसकी पगार लाखों में है, भविष्य करोड़ों के ताने-बाने में उलझा है। जिसके पांव जमीन पर नहीं आसमां पर टिके हैं। हर शाम नये युग की चकाचौंध युक्त मॉल से गुजरती है। नये आर्थिक युग के इस दौर ने उसे आज का बादशाह बना दिया है, जहां महल जैसे आशियाना है, एक नही ंदो-दो कारें हैं। जिसके बच्चे बेशकीमती सूट में सजे-धजे सबसे महंगे स्कूल में जाने लगे हैं। जिसके घर किट्टी पार्टी का दौर हर रोज होने लगा है। इस तरह की तमाम सुख-सुविधाएं उसे इस आर्थिक युग के दौर में हाथ फैलाते ही मिल गई जिसकी कल्पना कभी सपने में भी उसने नहीं की थी। उसे याद है जब इस मल्टीनेशनल कंपनी में पांव रखने से पूर्व देश के सार्वजनिक प्रतिष्ठान में एक अभियन्ता के रूप में अपनी सेवाएं दे रहा था। उस समय केवल वह एवं उसका परिवार बाजार के पास से गुजर जाता, मन की बात मन में रह जाती पर आज वह जो चाहे, बाजार से खरीद सकता है। बाजार जाना तो वह प्राय: भूल ही गया, इस युग के मॉल ने उसे इस तरह फांस लिया है जहां बाजार फीका-फीका लगने लगा है। भले ही उसके पांव मॉल के कर्ज बोझ से दबे चले जा रहे हो, पर उसे चिंता नहीं। उसकी लाखों की पगार देख मॉल भी उसे मालोंमाल करने पर तुला है। होठ खुले नहीं, सामान घर पर। आज उसके पास तमाम सुविधाओं की भरमार है। पर जब से मंदासुर की खबर उसने सुनी है, उसकी नींद हराम हो गई है। तमाम सुख-सुविधाओं के बावजूद भी वह चिंतित दिखाई देने लगा है। यदि उसकी कम्पनी को भी मंदासुर ने ग्रास बना लिया तो उसका क्या होगा? वह अच्छी तरह तमाम सुख- सुविधाओं के राज को जानता है, उसके पास सबकुछ है पर अपना केवल कहने मात्र को है। सभी सामान कर्ज के बोझ तले दबे हैं। जिसकी किश्त उसकी पगार से हर माह चली जाती है। जब मंदासुर की काली छाया उसके ऊपर भी पड़ जाय, जब उसकी लाखों की पगार हाथ से निकल जाय तब क्या होगा। उधार लिये सामानों की किश्त कहां से जमा होगी। तब न तो उसके पास महल जैसा आशियाना रह जायेगा, न बेशकीमती सामान, कार आदि। सबकुछ तो आज है पर सभी पर बैंक का अधिकार है। कल उसके पास इस तरह की तमाम चीजें तो नहीं थी पर मन पर किसी तरह का बोझ नहीं था। आज उसके पास पहले से कहीं गुणा अधिक सामान है पर अपना कहने को कुछ भी नहीं। कल हजारों की पगार पाकर उसे जो खुशी थी, आज लाखों की पगार पाकर भी वह दु:खी है। 'बाहर से हंसता है, अन्दर से रोता है, तन पर पहन लिया जो आधुनिक लिबास।' सोहनलाल इस तरह की बनावटी जिन्दगी से अब ऊबने लगा। जब से उसे यह खबर लगी कि पास की मल्टीनेशनल कंपनी को मंदासुर इस तरह निगल गया जहां कुछ भी नहीं बचा। उसका प्यारा दोस्त रमेश महल से सड़क पर आ गया। करीम ने तो आत्महत्या ही कर ली। उसके कई साथी इस मंदासुर के ग्रास बन गये। उसकी कंपनी में भी मंदासुर के पदचाप सुनाई देने लगे हैं। वह भी कब अपने साथियों की तरह महल से सड़क पर आ जाय, कोई भरोसा नहीं। यहीं सब सोचते-सोचते जब घर पहुंचा तो सामने उसकी पत्नी सावित्री खड़ी उसी का इंतजार करती मिली।
'मॉल से टेलीफोन आया था, कब से मैं मॉल जाने को तैयार बैठी हूं।' -सोहन के घर में पांव रखते ही सावित्री बोल पड़ी।
'अब मॉल के चक्कर में मत पड़ो सावित्री। वरना मंदासुर........' कहते-कहते सोहन रूक गया।
'ये मंदासुर कौन सी बला है जी.....'
'मंदासुर इस आर्थिक युग का नया पिशाच है जिसके महाजाल में उलझकर धन्ना सेठ भी कंगाल हो चले हैं।'
'इस मंदासुर से हमें क्या लेना-देना है, जल्दी तैयार हो जाओ, मॉल चलना है।'
'अब मॉल नहीं चलेंगे सावित्री। मॉल के चक्कर में पहले से ही पांव इस तरह फंस चुके हैं, जिससे निकल पाना मुश्किल है।'
'ऐसी क्या बात हो गई, सोनू के पापा। मॉल जाने से मना कर रहे हो जबकि मॉल के बिना तो हमारी जिंदगी ही चल नहीं सकती।'
'ऐसी बात नहीं सावित्री.....। मॉल तो आज बने हैं, कल तक तो हम बाजार में खड़े थे, तब ज्यादा सुखी थे, खुश थे, किसी तरह की मानसिक अशांति नहीं थी, आज मॉल ने हमें कंगाल बना दिया है। कहने को तो सबकुछ है, पर अपना कुछ भी नहीं...।'
'इस तरह क्यों कह रहे हो सोनू के पापा। आज आपको हो क्या गया है? जब से ऑफिस से आये हो, उखड़ी-उखड़ी बातें करने लगे हो....।'
'यही सच्चाई है सावित्री.... मॉल से लिए हर सामान पर बैंक का कब्जा है। यहां तक कि जिस फ्लैट में तुम रह रही हो, उस पर भी हमारा अधिकार नहीं....।'
सावित्री भी जानती थी, फ्लैट से लेकर घर के हर बेशकीमती सामान पर बैंक के कर्ज बोझ तले दबे हैं। इसी कारण वह थोड़ी देर चुप तो रही पर नारी स्वभाव, दूर तक नहीं जा सकी।
'हम बैंक की किश्त तो हर माह चुका ही रहे हैं सोनू के पापा। फिर आखिर चिंता की बात क्या?'
'जब तक पगार मिल रही है सावित्री तभी तक तो किश्त जमा हो पायेगी, जब पगार ही नहीं रहेगी तो किश्ते कहां से जमा होंगी। मॉल के चंगुल में हम पहले ही इतना ज्यादा फंस चुके हैं, कई वर्षों तक निकल पाना मुश्किल है।'
'पगार कैसे नहीं रहेगी, सोनू के पापा अभी तो आपकी पगार बढ़ने वाली भी है।'
'जब कंपनी ही नहीं रहेगी, जब हमारी नौकरी ही नहीं रहेगी, पगार कहां रहेगी सावित्री। जब से मंदासुर आया है, एक-एककर कम्पनियां इसका नेवाला बनती जा रही है। रमेश की कंपनी तो बंद हो गई, करीम की छंटनी हो गई, इन सभी के ऊपर मॉल का इतना बोझ पड़ा कि करीम ने तो आत्महत्या ही कर ली। रमेश फ्लैट छोड़ झोंपड़ी तलाश रहा है, उसे वह भी नसीब नहीं हो रही। मेरी कंपनी में भी मंदासुर आने की हलचल मची हुई है। जब से मंदासुर का नाम सुना है तबसे अनिश्चित भविष्य को लेकर ज्यादा चिंतित रहने लगा हूं। इस हालात में सावित्री तुम्हारी मदद की हमें सख्त जरूरत है, मंदासुर के आने से पहले ही हमें ठोस कदम उठाने पड़ेंगे। अपने खर्चों में कटौती करने की आदत डालनी पड़ेगी वरना आज के बाजार में हम उखड़ जायेंगे। 'ताते पांव पसारिये, जैती लाम्बी सौर' का धरातल ही हमें मंदासुर के ग्रास बनने से बचा सकेगा।
सावित्री को अब सारी बातें समझ में आ गई। मॉल की ओर बढ़ने वाले कदम थम गये। मंदासुर से बचाव के तौर तरीके में वह नये सिरे से विचार विमर्श करने की दिशा में सोहनलाल के पास आकर खड़ी हो गइ। परिवार के रक्षार्थ यही कदम उचित भी लगा।

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