Saturday, June 19, 2010

अनोखे तीर

वे लेते हैं तो देते भी ,
इसलिए पकड़ें नहीं जाते ।
वे लेते हैं तो देते नहीं ,
इसलिए पकड़ लिए जाते।
वे न लेते हैं न देते हैं,
इसलिए परेशां किये जाते हैं।
सदियों से गड़ा शिलान्यास का पत्थर ,
बन गया वही अब रास्ते का पत्थर ।
फाइलों के पर अब झरने लगे हैं,
रास्ते में है अभी बहुत से दफ्तर ।
अंधे को आँख क्या मिली ,
सूरज से बातें करने लगा ,
परिणाम यह हुआ ,
वह फिर से अंधा हो गया ।
पान खाने का अर्थ नहीं ,
कि आसमां पर थूको ,
पीकदान तुम्हारे पास है,
अपनी हैसियत मत भूलो ।
कल थोड़ी सी जगह मांगी ,
सिर छुपाने के लिए ।
आज वे अन्दर ,
मैं बाहर ।
जब तक जिंदे थे ज़नाब,
उन्हें दूध भी देने आये नहीं,
मर गए तो उनके क़ब्र पर ,
मक्खन आज लगा रहे हैं .
जिस जगह छाया सन्नाटा मौत का,,
उस जगह आदमी अब क्या करेगा?
दब गयी पैरौं तले जहाँ हर कली,
बाग़ का माली बेचारा क्या करेगा ?
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Wednesday, June 16, 2010

कहानी

डॉक्टर
सुबह की डाक में सुरेश को एक पत्र मिला ,जिस पर लिखा था''डॉ. सुरेश'' । रातों रात वह सुरेश से डॉ.सुरेश कब और कैसे हो गया ,समझ नहीं पाया । वह पत्र खोलकर पढने लगा तो मन ही मन प्रफुल्लित हो उठा । उसे एक साहित्यिक समारोह में भाग लेना था ,जहां उसे विद्यावाचस्पति (पी .एच .डी .)की उपाधि से सम्मानित किया जाना था । यह उपाधि प्रतिवर्ष क्षेत्र की चर्चित साहित्यिक संस्था द्वारा साहित्य के क्षेत्र में की जा रही विशिष्ट सेवाओं के लिए साहित्यकारों को प्रदान की जाती रही है ,यह वह भली भांति जानता था । वह यह भी जानता था कि इस तरह कि उपाधि पाकर क्षेत्र के अनेक साहित्यकार बड़े शौक से अपने नाम के पूर्व डॉ.लगाया करते थे । अब वह भी अपने नाम के पूर्व उन्हीं लोगो कि तरह डॉ. लगा सकेगा । यह जानकार उसे मन ही मन अति प्रसन्नता हुई । इस उपाधि के लिए उसने मन ही मन साहित्यिक संस्था का आभार वयक्त किया ,जिसने उसे रातों -रात सुरेश से डॉ.सुरेश बना दिया ।
वह अच्छी तरह यह भी जानता था कि डॉ.शब्द का प्रयोग अपने नाम से पूर्व वही कर सकता है ,जिसने चिकित्सा क्षेत्र में शिक्षा हासिल की हो या फिर किसी विषय में विशेष अनुसंधान कार्य किया हो । उसे न तो चिकित्सा क्षेत्र में किसी तरह का ज्ञान हासिल था ,न ही किसी विषय में उसने कोई अनुसंधान कार्य किया था ,फिर भी उसे यह पदवी मिल गई । वह मन ही मन सोचने लगा कि देश में ऐसे अनेक लोग भी है , जिन्होंने चिकित्सा के क्षेत्र में किसी भी तरह की शिक्षा प्राप्त नहीं की तथा किसी विषय में अनुसंधान कार्य नहीं किया ,फिर भी धड़ल्ले से अपने नाम के पूर्व डॉ.की पदवी लगाकर घूमते -फिरते है।वह यह भी जानता था कि पैसे के बल पर विश्वविद्यालयों से ऐसे लोग भी इस पदवी को प्राप्त कर अपने नाम के पूर्व शौक से डॉ.लगा रहे है ,जिन्हें विषय का ज्ञान ही नहीं ,अनुसंधान तो दूर की बात है ।
वह ऐसे लोगों को भी जानता था ,जो किसी चिकित्सक के यहाँ सहायक के रूप में काम करते है , वे भी डॉ.के नाम से पुकारे जाने लगे थे । इस तरह की श्रेणी में ऐसे लोग भी शामिल थे ,जो अपने प्रोफेसर के आगे -पीछे घूमकर इस दक्षता को हासिल कर अपने नाम के पूर्व डॉ.लगाने लगे थे । उन लोगों से वह अपने आप को कहीं बहुत अच्छा मानता था ,जो एक शब्द भी नहीं लिखकर अपने नाम से पूर्व डॉ.लगाये घूमते फिर ही नहीं रहे थे ,बल्कि इस पदवी के आधार पर रोजगार भी कर रहे थे । वह तो धड़ल्ले से छपता है ,लिखता है ,फिर क्यों नहीं अपने नाम से पूर्व डॉ.शब्द का प्रयोग करे । भले ही साहित्यिक संस्था द्वारा यह मानद उपाधि मिली हो पर अन्य लोगों से वह अपने आपको बेहतर मानने लगा था ।
संस्था द्वारा उपाधि पाकर सुरेश फूला ही नहीं समाया बल्कि डॉ.सुरेश के नाम से चर्चित भी हो चला । अब उसकी रचनाएं भी इसी नाम से प्रकाशित होने लगी थी । डॉक्टरों की महफिल में भी वह बैठने लगा था और उसे भी लोग डॉक्टर नाम से सम्बोधित करने लगे थे । इसकी गूंज उसके गाँव तक भी पहुँच गई थी । जब वह गाँव पहुंचा तो दो -चार मरीज इलाज के लिए भी आ गए ,तब उसे बताना पड़ा कि वह वो डॉक्टर नहीं है ,जो उनका इलाज कर सके । उसे तो साहित्य की सेवा के लिए यह उपाधि मिली है । गाँव वाले भला क्या जानें इस प्रसंग को ,उनकी नजर में तो डॉक्टर वही है ,जो इलाज करता हो ।
डॉ.सुरेश को धीरे -धीरे गहरी पैठ होती जा रही थी । उसका साहित्यिक समारोह में जाने का सिलसिला तो पुराना था ही , अब वह विशेष रूप से आमंत्रित किया जाने लगा । किसी कार्यक्रम की अध्यक्षता करनी हो तो डॉ.सुरेश का नाम पहले प्रस्तावित होता । और तो और ,अब वह मुख्य अतिथि के रूप में भी बुलाया जाने लगा था । विद्यालयों,महाविद्यालयों ,साहित्यिक संस्थाओं के हर साहित्यिक कार्यक्रमों में डॉ.सुरेश की चर्चा विशेष रूप से रहती। अब वह क्षेत्र का ही नहीं ,देश के साहित्यकारों में भी चर्चित होने लगा था ।
एक बार एक साहित्यिक समारोह में किसी ने उससे पूछ ही लिया ,"डॉक्टर साहब ,आपकी रिसर्च का विषय क्या रहा है ?"
अनायास ही इस प्रश्नको सुनकर कुछ देर के लिए तो वह स्तब्ध एवं चकित हो गया ,परन्तु तुरंत ही अपने आप को सम्भालते हुए बोल पड़ा कि उसे तो यह उपाधि साहित्यिक क्षेत्र में किए गए विशेष कार्यो के लिए मिली है ।
इसके बाद सुरेश को अपनी बिरादरी से अलग समझते हुए उसने उससे तत्काल जो दूरी बना ली ,इस बात को सुरेश की पारखी नजर ने तुरंत भांप लिया था मगर वह करता भी क्या ?
इस तरह के प्रसंग पर अनेक बार उसे मौन होना पड़ा । इस डॉक्टर शब्द से उसे धीरे -धीरे एलर्जी होने तो लगी ,परन्तु इसके मोहजाल में फंसा सुरेश अपने आपको इससे अलग नहीं कर पाया । जब कभी वह अपने आपको डॉक्टर शब्द से अलग करने की मानसिक रूप से कोशिश करता तो उसे डॉक्टर शब्द से सम्बोधित कर आसपास से गुजरते लोग उसकी सुसुप्त भावना को फिर से जगा देते ।
एक बार उसके "डॉक्टर "उपाधि के प्रयोग पर प्रश्नचिन्ह भी लग गया ,जब रेल यात्रा के दौरान मध्य रात्रिकाल में टी .टी.ने एक बेहोश हुए यात्री के इलाज के लिए उसे जगाया था । तब उसे वहां भी यह कहना पड़ा कि वह चिकित्सा क्षेत्र का डॉक्टर नहीं है , बल्कि उसे तो साहित्य सेवा के लिए यह उपाधि मिली है । आरक्षण लेते समय फार्म पर डॉक्टर प्रकोष्ठ में सुरेश ने टिक लगाते हुए आरक्षण फार्म पर भी अपना नाम बड़े गर्व से डॉ.सुरेश लिख दिया था । यही प्रयोग उसके लिए इस तरह के प्रश्नों के बीच घिर जाने का कारण बना । वह यह नहीं जानता था कि यह प्रयोग केवल चिकित्सा क्षेत्र के लोगों के लिए ही है ,जो आपातकाल में रेलयात्रा के दौरान अपनी सेवा दे सकें ।
इस तरह वह "डॉक्टर "प्रयोग के बीच उलझता रहा और अपने आपको अलग करने का प्रयास भी करता रहा ,परन्तु इस मोहजाल से निकल नहीं पाया । अब वह डॉक्टर नहीं होते हुए भी पूर्ण रूप से इसकी मान्यता पा चुका था । यदि वह अपने नाम के साथ इसे नहीं भी जोड़ता तो लोग जोड़ देते । अब उसकी जिन्दगी स्वयं में अपने आप डॉक्टर बन चुकी थी ,जिससे अलग हो पाना उसके लिए नामुमकिन था ।

Tuesday, June 15, 2010

काव्य संसार

मकड़ जाल
उलझे हुए बालों को
सुलझाते -सुलझाते
एक दिन कंघी
खुद ही उलझ गई ।
भूल गई
चिरकाल से
चले आ रहे आत्मीय सम्बन्ध ।
कटुता पैदा हो गई
और बेचारी फंस गई
तड़पती मीन की तरह
बेमेल संगम के बीच ।
कभी आगे /कभी पीछे
कभी बीच से
निकलने का प्रयास तो करती
परन्तु निकल न पाई ।
टूट गए उसके दांत
आपसी संघर्ष में ।
फिर भी हिम्मत न हारी
तोड़ती रही एक -एक करके
अभेद द्वार ।
और एक दिन
वह भी मार दी गई
षड्यंत्रों के बीच
निर्दोष अभिमन्यु की तरह
हासिएं पर ।
मगरमछी आसुओं के बीच
निकाली गई उसकी
बेजान शव -यात्रा ।
निकट के संबंधियों ने
शोक में
एक दिन का मौन व्रत भी लिया
और फिर से
जुट गए सभी तलाश में
नई कंघी की खोज में ।
जो संवार सके
संभाल सके
उलझने पर
सुलझा सके ।
नये रिश्ते की
इस डोर में है
आश्वासन भी
प्रलोभन भी
और साथ में है
मकड़ -जाल ।
जहां उसे भी
समय आने पर
काम न आने पर
मार दिया जायेगा ।

Sunday, June 13, 2010

काव्य संसार

एक तंत्र
जहां एक ही राजा राज करे , वहां प्रजातंत्र का क्या होगा ?
शासक शोषक जब बन जाये, फिर आम प्रजा का क्या होगा ?
जिनका कोई अस्तित्व रहा , उन पर अब भरोसा क्या होगा ?
अनपढ़ देता उपदेश जहां ,
अन्धा बन जाए नरेश जहां ,
दल बदलू का परिवेश जहां ,
हर रोज बदलते वेष जहां ,
पल-पल पनपता क्लेश जहां ,
आपस में रहता द्वेष जहां ,
आमद पर हावी ऐश जहां ,
घाटे में रहता शेष जहां ,
जिस जगह ऐसी हालत हो ,
उसका भविष्य अब क्या होगा ?
शासक शोषक ----------------------------------क्या होगा ?
शोषण करना अधिकार जहां ,
बन जाए जुल्म श्रृंगार जहां ,
मिलती हर पल दुत्कार जहां ,
हंटर करता सत्कार जहां ,
अन्याय पूर्ण व्यवहार जहां ,
मानवता की फटकार जहां ,
दबती जाए चीत्कार जहां ,
उभरे न कभी हुंकार जहां ,
जिस देश की ऐसी हालत हो ,
मजदूरों का अब क्या होगा ?
शासक शोषक ------------------------------क्या होगा ?
लगता माया बाजार जहां ,
काले धन का व्यापार जहां ,
हेरा -फेरी हो आधार जहां ,
जहरीला हर आहार जहां ,
कलुषित हर एक विचार जहां ,
मतलब के है सब यार जहां ,
पलता रहे गुनाहगार जहाँ
बने तस्कर कर्णधार जहां ,
जिस देश की ऐसी हालत हो ,
शराफत का अब क्या होगा ?
शासक शोषक -----------------------------------क्या होगा ?
नशीला आम दरबार जहां ,
रंगीला है कारोबार जहां ,
रहता हो नम्बरदार जहां ,
ऐयाशियों की भरमार जहां ,
वासना का उठता ज्वार जहां ,
बढ़ता जाये व्यभिचार जहां ,
छल जाता हो श्रृंगार जहां ,
जिस देश की ऐसी हालत हो ,
अबलाओं का अब क्या होगा ?
शासक शोषक --------------------------------क्या होगा ?
है सही नहीं आचार जहां ,
जी हाँ जी हाँ सरकार जहां ,
पक्षपात चयन का सार जहां,
सौतेला सा व्यवहार जहां ,
अंगूठा टेक सरकार जहां ,
सब पढ़ा लिखा बेकार जहां ,
बढती जाए बेगार जहां ,
चमचो का हो विस्तार जहां ,
जिस देश की हालत ऐसी हो ,
सच्चाई का अब क्या होगा ,
शासक शोषक ------------------------------क्या होगा ?









Saturday, June 12, 2010

काव्य संसार

लोकतंत्र

लोकतंत्र की बिगड़ी काया , प्रजातंत्र की अजब कहानी ,
जनता के शासन में अब भी , शासन करते राजा -रानी।
साक्षी है इतिहास देश का , बदले हुए हर परिवेश का ,
जिसने ज्यादा जो भर माया , उसने ही यहाँ राज चलाया ।
जिसकी लाठी उसी की भैंस , चरितार्थ रही यही कहानी ,
जनता के शासन ---------------------------------राजा-रानी ।
कोई नहीं यहाँ नेक है ,जहां पक्ष - विपक्ष दोनों एक है ,
बंदर बाँट सब कर रहे है , पूरे देश को चर रहे है ।
इनके कर्मो से ही सुखा , झरना -नदियों का सब पानी ,
जनता के शासन ------------------------------राजा-रानी ।
पढे -लिखे सब हुए बेकार, अनपढ़ की बन गई सरकार ,
जंगल में जो घूम रहे है ,वे संसद में दिख रहे है ।
लुट रहे दोनों हाथों से , कर रहे अपनी मनमानी ,
जनता के शासन------ ------------------------राजा -रानी ।
नकली- असली दिख रहा है, किस्मत सबकी लिख रहा है ,
अंधे के हाथ लगा बटेर , बगुला करता हेर -फेर ।
मिलावट जो क्रम जारी , उल्टा पाठ पढे अब ज्ञानी ,
जनता के शासन -------------------------राजा - रानी ।
भोली भाली जनता सारी , फँस गई अब तो बेचारी ,
फैल रहा ऐसा व्यापार , अब दिन रहा सबका अधिकार ।
मौन होकर चुप -चाप सहना , गुलामी की है यह कहानी ,
जो भी आया है शासन में , उसने की अपनी मनमानी ।
जनता के शासन में अब भी शासन करते रजा - रानी । ।
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Friday, June 11, 2010

अनोखे तीर - लघु स्वर

लघु स्वर
तन पर खादी ,
मन उग्रवादी ।
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तन स्वदेशी ,
मन विदेशी ।
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तन वैरागी ,
मन अनुरागी ।
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नर कंकाल ,
मालोमाल ।
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आकर करीब ,
बना गए गरीब ।
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बढाकर हाथ ,
कर बैठे घात ।
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बदलते रूप ,
बन गए भूप ।
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अहिंसा के पुजारी ,
करे हिंसा की तैयारी ।
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पहनकर खद्दर ,
मचा रहे गद्दर ।
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उगलते आग ,
पहुंचाते सुराग ।
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हाथ कंठी माला ,
घर-घर तोड़े ताला ।
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पहुँच गए शिखर पर ,
दल बदल बदल कर ।
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टूटे हुए औजार ,
धोखा देंगे यार ।
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आये हाथ जोड़कर ,
वापिस गए फोड़कर ।
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कल नमस्कार किये ,
आज फटकार दिए ।
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जो नशे के आदी ,
पहन रहे वे खादी ।
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पहले करें हलाल ,
पाछे पूछे हाल ।
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उनका ही बोलबाला ,
करते जो घोटाला ।
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पूजे जाते अक्सर ,
देश के ही तस्कर ।
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जिन पर नहीं लगाम ,
भेजें वे पैगाम ।
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लुट रहे है माल ,
देश के ही लाल ।
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देश से करें मक्कारी ,
सता के अधिकारी ।
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हेराफेरी है आधार ,
बने देश के कर्णधार ।
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सारा का सारा धन काला ,
पर है वह इज्जत वाला ।
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कर दें उनके काम तमाम ,
जिनके पकडे गलत काम ।
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उल्टे -सीधे जिनके काम ,
चर्चित जग में उनके नाम ।
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लगते भोला -भाला ,
करते ये घोटाला ।
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स्वर जनवादी ,
पहने मंहगी खादी ।
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झूठ बोले सुबह -शाम ,
हरे कृष्ण , हरे राम ।
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बसेरा ,
बन गया लुटेरा ।
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रहकर पास -पास ,
तोड़ दिया विस्वास ।
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वाह ! रे मेरे जिगर ,
न इधर न उधर ।
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जाएँ जिधर ,
बदल जाएँ उधर ।
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इधर उधर करते ,
अपना घर भरते ।
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जो केवल लेता ,
वहीँ है नेता ।
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देश के कर्णधार ,
कर दें आर - पार ।
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अधूरा प्यार ,
सिंदूर उधार ।
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सबसे बड़ा मर्ज ,
जीवन भर कर्ज ।
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लुट लिये सारे ,
जनता के दुलारे ।
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पहले फटकारे ,
फिर पुचकारे ।
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नोचकर खाल ,
पूछ रहे हाल ।
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पूछ पूछ कर हाल ,
हों गयें मालोमाल ।
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पूछ कर हाल ,
कर गए कंगाल ।
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अनपढ़ करें रोजगार ,
पढे लिखे बेकार ।
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जो है अपने ख़ास ,
वे ही करें निराश ।
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अनपढ़ सरकार ,
करे तकरार ।
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जान न पहचान ,
बन गये मेहमान ।
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देश का सुधरे कैसे हाल ,
देशी मुर्गी ,विदेशी चाल ।
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