Wednesday, June 16, 2010

कहानी

डॉक्टर
सुबह की डाक में सुरेश को एक पत्र मिला ,जिस पर लिखा था''डॉ. सुरेश'' । रातों रात वह सुरेश से डॉ.सुरेश कब और कैसे हो गया ,समझ नहीं पाया । वह पत्र खोलकर पढने लगा तो मन ही मन प्रफुल्लित हो उठा । उसे एक साहित्यिक समारोह में भाग लेना था ,जहां उसे विद्यावाचस्पति (पी .एच .डी .)की उपाधि से सम्मानित किया जाना था । यह उपाधि प्रतिवर्ष क्षेत्र की चर्चित साहित्यिक संस्था द्वारा साहित्य के क्षेत्र में की जा रही विशिष्ट सेवाओं के लिए साहित्यकारों को प्रदान की जाती रही है ,यह वह भली भांति जानता था । वह यह भी जानता था कि इस तरह कि उपाधि पाकर क्षेत्र के अनेक साहित्यकार बड़े शौक से अपने नाम के पूर्व डॉ.लगाया करते थे । अब वह भी अपने नाम के पूर्व उन्हीं लोगो कि तरह डॉ. लगा सकेगा । यह जानकार उसे मन ही मन अति प्रसन्नता हुई । इस उपाधि के लिए उसने मन ही मन साहित्यिक संस्था का आभार वयक्त किया ,जिसने उसे रातों -रात सुरेश से डॉ.सुरेश बना दिया ।
वह अच्छी तरह यह भी जानता था कि डॉ.शब्द का प्रयोग अपने नाम से पूर्व वही कर सकता है ,जिसने चिकित्सा क्षेत्र में शिक्षा हासिल की हो या फिर किसी विषय में विशेष अनुसंधान कार्य किया हो । उसे न तो चिकित्सा क्षेत्र में किसी तरह का ज्ञान हासिल था ,न ही किसी विषय में उसने कोई अनुसंधान कार्य किया था ,फिर भी उसे यह पदवी मिल गई । वह मन ही मन सोचने लगा कि देश में ऐसे अनेक लोग भी है , जिन्होंने चिकित्सा के क्षेत्र में किसी भी तरह की शिक्षा प्राप्त नहीं की तथा किसी विषय में अनुसंधान कार्य नहीं किया ,फिर भी धड़ल्ले से अपने नाम के पूर्व डॉ.की पदवी लगाकर घूमते -फिरते है।वह यह भी जानता था कि पैसे के बल पर विश्वविद्यालयों से ऐसे लोग भी इस पदवी को प्राप्त कर अपने नाम के पूर्व शौक से डॉ.लगा रहे है ,जिन्हें विषय का ज्ञान ही नहीं ,अनुसंधान तो दूर की बात है ।
वह ऐसे लोगों को भी जानता था ,जो किसी चिकित्सक के यहाँ सहायक के रूप में काम करते है , वे भी डॉ.के नाम से पुकारे जाने लगे थे । इस तरह की श्रेणी में ऐसे लोग भी शामिल थे ,जो अपने प्रोफेसर के आगे -पीछे घूमकर इस दक्षता को हासिल कर अपने नाम के पूर्व डॉ.लगाने लगे थे । उन लोगों से वह अपने आप को कहीं बहुत अच्छा मानता था ,जो एक शब्द भी नहीं लिखकर अपने नाम से पूर्व डॉ.लगाये घूमते फिर ही नहीं रहे थे ,बल्कि इस पदवी के आधार पर रोजगार भी कर रहे थे । वह तो धड़ल्ले से छपता है ,लिखता है ,फिर क्यों नहीं अपने नाम से पूर्व डॉ.शब्द का प्रयोग करे । भले ही साहित्यिक संस्था द्वारा यह मानद उपाधि मिली हो पर अन्य लोगों से वह अपने आपको बेहतर मानने लगा था ।
संस्था द्वारा उपाधि पाकर सुरेश फूला ही नहीं समाया बल्कि डॉ.सुरेश के नाम से चर्चित भी हो चला । अब उसकी रचनाएं भी इसी नाम से प्रकाशित होने लगी थी । डॉक्टरों की महफिल में भी वह बैठने लगा था और उसे भी लोग डॉक्टर नाम से सम्बोधित करने लगे थे । इसकी गूंज उसके गाँव तक भी पहुँच गई थी । जब वह गाँव पहुंचा तो दो -चार मरीज इलाज के लिए भी आ गए ,तब उसे बताना पड़ा कि वह वो डॉक्टर नहीं है ,जो उनका इलाज कर सके । उसे तो साहित्य की सेवा के लिए यह उपाधि मिली है । गाँव वाले भला क्या जानें इस प्रसंग को ,उनकी नजर में तो डॉक्टर वही है ,जो इलाज करता हो ।
डॉ.सुरेश को धीरे -धीरे गहरी पैठ होती जा रही थी । उसका साहित्यिक समारोह में जाने का सिलसिला तो पुराना था ही , अब वह विशेष रूप से आमंत्रित किया जाने लगा । किसी कार्यक्रम की अध्यक्षता करनी हो तो डॉ.सुरेश का नाम पहले प्रस्तावित होता । और तो और ,अब वह मुख्य अतिथि के रूप में भी बुलाया जाने लगा था । विद्यालयों,महाविद्यालयों ,साहित्यिक संस्थाओं के हर साहित्यिक कार्यक्रमों में डॉ.सुरेश की चर्चा विशेष रूप से रहती। अब वह क्षेत्र का ही नहीं ,देश के साहित्यकारों में भी चर्चित होने लगा था ।
एक बार एक साहित्यिक समारोह में किसी ने उससे पूछ ही लिया ,"डॉक्टर साहब ,आपकी रिसर्च का विषय क्या रहा है ?"
अनायास ही इस प्रश्नको सुनकर कुछ देर के लिए तो वह स्तब्ध एवं चकित हो गया ,परन्तु तुरंत ही अपने आप को सम्भालते हुए बोल पड़ा कि उसे तो यह उपाधि साहित्यिक क्षेत्र में किए गए विशेष कार्यो के लिए मिली है ।
इसके बाद सुरेश को अपनी बिरादरी से अलग समझते हुए उसने उससे तत्काल जो दूरी बना ली ,इस बात को सुरेश की पारखी नजर ने तुरंत भांप लिया था मगर वह करता भी क्या ?
इस तरह के प्रसंग पर अनेक बार उसे मौन होना पड़ा । इस डॉक्टर शब्द से उसे धीरे -धीरे एलर्जी होने तो लगी ,परन्तु इसके मोहजाल में फंसा सुरेश अपने आपको इससे अलग नहीं कर पाया । जब कभी वह अपने आपको डॉक्टर शब्द से अलग करने की मानसिक रूप से कोशिश करता तो उसे डॉक्टर शब्द से सम्बोधित कर आसपास से गुजरते लोग उसकी सुसुप्त भावना को फिर से जगा देते ।
एक बार उसके "डॉक्टर "उपाधि के प्रयोग पर प्रश्नचिन्ह भी लग गया ,जब रेल यात्रा के दौरान मध्य रात्रिकाल में टी .टी.ने एक बेहोश हुए यात्री के इलाज के लिए उसे जगाया था । तब उसे वहां भी यह कहना पड़ा कि वह चिकित्सा क्षेत्र का डॉक्टर नहीं है , बल्कि उसे तो साहित्य सेवा के लिए यह उपाधि मिली है । आरक्षण लेते समय फार्म पर डॉक्टर प्रकोष्ठ में सुरेश ने टिक लगाते हुए आरक्षण फार्म पर भी अपना नाम बड़े गर्व से डॉ.सुरेश लिख दिया था । यही प्रयोग उसके लिए इस तरह के प्रश्नों के बीच घिर जाने का कारण बना । वह यह नहीं जानता था कि यह प्रयोग केवल चिकित्सा क्षेत्र के लोगों के लिए ही है ,जो आपातकाल में रेलयात्रा के दौरान अपनी सेवा दे सकें ।
इस तरह वह "डॉक्टर "प्रयोग के बीच उलझता रहा और अपने आपको अलग करने का प्रयास भी करता रहा ,परन्तु इस मोहजाल से निकल नहीं पाया । अब वह डॉक्टर नहीं होते हुए भी पूर्ण रूप से इसकी मान्यता पा चुका था । यदि वह अपने नाम के साथ इसे नहीं भी जोड़ता तो लोग जोड़ देते । अब उसकी जिन्दगी स्वयं में अपने आप डॉक्टर बन चुकी थी ,जिससे अलग हो पाना उसके लिए नामुमकिन था ।

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