Thursday, July 31, 2008

यात्रा से जुड़ी जनसुविधाओं से वंचित धौला कुंआ

दिल्ली का धौला कुंआ राजस्थान एवं हरियाणा क्षेत्र से जुड़ी यात्राओं के क्रम में प्रवेश एवं निकास का मुख्य द्वार है। जहां से प्रतिदिन देश के विभिन्न भागों में दिल्ली होकर सैंकड़ों बसों का आवागमन जारी है। राजस्थान प्रदेश की 44 आगारों से संचालित बसों से हजारों की संख्या में प्रतिदिन यात्री दिल्ली प्रवेश करते समय धौला कुंआ ही प्राय: उतरते हैं जहां से स्थानीय बसों द्वारा व्यापारिक कार्य हेतु दिल्ली के भीतरी भाग में एवं रेल मार्ग द्वारा देश के विभिन्न भागों में जाने की यात्रा प्रारम्भ करते हैं। इसी प्रकार वापसी के दौरान भी राजस्थान एवं हरियाणा के विभिन्न क्षेत्रों में जाने हेतु धौला कुंआ आकर ही बस पकड़ने की प्रतीक्षा करते हैं। सांयकाल धौला कुंआ से निकलने वाली अंतर्राज्यीय बसों की प्रतीक्षा करते भटकते हजारों यात्रियों को यहां देखा जा सकता है। देश के विभिन्न भागों से राजस्थान एवं हरियाणा क्षेत्र में गये हजारों यात्री भी वापसी के दौरान इसी धौला कुंआ पर उतरते हैं। जिन्हें रेल द्वारा आगे की यात्रा करनी होती है। नई दिल्ली एवं पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन हेतु धौला कुंआ से ही स्थानीय बसें उपलब्ध हो पाती हैं। इसी तरह नई दिल्ली एवं पुरानी दिल्ली रेल्वे स्टेशन से उतरकर राजस्थान एवं हरियाणा की ओर यात्रा करने वाले यात्रियों को धौला कुंआ आना ही सुगम होता है। दिल्ली का प्रमुख व्यापारिक संस्थान सदर बाजार, चांदनी चौक, नई सड़क, चावड़ी बाजार भी पुरानी दिल्ली में ही है जहां जाने व वापिस आने के लिए यात्रियों को स्थानीय बसों द्वारा धौला कुंआ ही सुगम पड़ता है। इस प्रमुख द्वार पर स्थानीय बसों का भी जमावड़ा काफी है जिससे हजारों की संख्या में स्थानीय यात्री भी बस में चढ़ते व उतरते देखे जा सकते हैं। इस तरह के महत्वपूर्ण यात्रा प्रसंग से जुड़ा प्रमुख द्वार आज तक यात्रा से जुड़ी तमाम जनसुविधाओं से वंचित है। इस जगह पर धूप, वर्षा से बचाव के लिए बसों की प्रतीक्षा में खड़े हजारों यात्रियों के लिए न तो छत्रछाया है, न ही बैठने के लिए उपयुक्त स्थान। इस जगह पर पानी पीने, शौचालय, मूत्रालय की भी कोई व्यवस्था नहीं है। इस तरह दिल्ली का यह प्रमुख यात्रा प्रसंग से जुड़ा प्रमुख द्वार आज तक यात्रा से जुड़ी जनसुविधाओं से वंचित है जिससे यात्रियों को काफी असुविधाओं का सामना प्रतिदिन करना पड़ता है। जनसुविधाओं के अभाव में सबसे ज्यादा परेशानी यात्रा के दौरान महिलाओं, बच्चों एवं बुजुर्गों को उठानी पड़ती है। आज तक इस दिशा में स्थानीय प्रशासन तो मौन है ही राजस्थान एवं हरियाणा के सांसद जो दिल्ली में रहते हैं, वे भी मौन हैं।
हरियाणा के गुड़गांव, रेवाड़ी, नारनौल, महेन्द्रगढ़, चंडीगढ़ आदि प्रमुख नगरों के साथ-साथ राजस्थान के प्रमुख शहर जयपुर, उदयपुर, चित्तौड़गढ़, बाड़मेर, जैसलमेर, कोटा, बूंदी, झालावाड़, बीकानेर, जोधपुर, सीकर, झुंझुनूं, चुरू आदि स्थानों के लिए नितप्रतिदिन सैंकड़ों की संख्या में दौड़ने वाली बसों से हजारों की संख्या में यात्रा करने वाले यात्रियों के लिए दिल्ली के इस प्रमुख द्वार पर वैध रूप से कोई स्थान आवंटित नहीं है जबकि इसी प्रमुख द्वार पर इस दिशा में संचालित अंतर्राज्यीय बसों से सबसे ज्यादा यात्री दिल्ली में प्रवेश करते समय उतरते हैं तथा वापसी के दौरान इसी जगह पर आकर इन बसों को पकड़ने के लिए प्रतीक्षारत घंटों खड़े रहते हैं। जबकि दिल्ली प्रशासन अंतर्राज्यीय बस अड्ड महाराणा प्रताप आई.एस.बी.टी., आनन्द विहार एवं सराय काले खां को संचालित कर रखा है। राजस्थान एवं हरियाणा की ओर यात्रा से जुड़ी अधिकांश बसें सराय काले खां से संचालित तो होती हैं परन्तु ये बसें राजस्थान एवं हरियाणा की यात्रा करने वाले यात्रियों से धौला कुंआ ही आकर भरती हैं। इस तरह के परिवेश पर विचार करना बहुत जरूरी है। सराय काले खां एवं आनन्द विहार दोनों अन्तर्राज्यीय आगार दिल्ली के दूसरे छोर पर होने के कारण राजस्थान एवं हरियाणा की यात्रा से जुड़े यात्रियों के लिए उलटे पड़ते हैं जिसके कारण रेल एवं दिल्ली के भीतरी भाग से जुड़े इन प्रदेशों की यात्रा से जुड़े यात्रियों के लिए धौला कुंआ ज्यादा सुगम जान पड़ता है। जिसके कारण सराय काले खां से संचालित बसों के लिए आज भी धौला कुंआ प्रमुख बना हुआ है। परन्तु प्रशासन की दृष्टि में इस तरह के प्रमुख द्वार पर इन अन्तर्राज्यीय बसों के ठहरने की कोई व्यवस्था नहीं है। सांयकाल को धौला कुंआ के निकास द्वार का नजारा कुछ अजीबोगरीब देखने को ही सदा मिलता है। जहां अन्तर्राज्यीय बसों को स्थानीय प्रशासन एक जगह ठहरने नहीं देते, इसके साथ ही इन बसों की प्रतीक्षा में खड़े यात्रियों की भी दुर्दशा शुरू हो जाती है। जो अपने सामान को कंधे पर लटकाए इधर-उधर भटकते नजर आते है। वर्षा आ जाने पर तो इनकी तकलीफ और बढ़ जाती है। धौला कुंआ पर वर्तमान में मेट्रो का कार्य चलने से निकास द्वार की हालत और भी ज्यादा खराब है जहां न तो बसों को खड़े होने की जगह है, न यात्रियों के खड़े होने की। इस तरह के हालात भविष्य में किसी तरह की अप्रिय अनहोनी का कारण न बन जाये, विचारणीय मुद्दा है। सुरक्षा की दृष्टि से भी धौला कुंआ असुरक्षित नजर आने लगा है जहां हजारों की तादाद में क्षण-प्रतिक्षण यात्रा प्रसंग से जुड़े यात्री खड़े होते हैं।
यात्रा प्रसंग से जुड़ा दिल्ली का यह प्रमुख द्वार जनसुविधाओं के अभाव में यात्रियों की परेशानी, असुरक्षा एवं दूषित वातावरण का केन्द्र बन चुका है। शौचालय एवं मूत्रालय नहीं होने से बसों से जुड़े पुरूष यात्रियों द्वारा आस-पास मूत्रालय करने से दूषित वातावरण बनना स्वाभाविक है। हजारों किलोमीटर दूर की यात्रा से जुड़े यात्रियों के लिए इस प्रमुख द्वार पर यात्रा से जुड़ी तमाम जनसुविधाओं का न होना यात्रा के सकारात्मक पहलूओं को भी नकारता है। इस तरह के महत्वपूर्ण परिवेश को नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए। यात्रा से जुड़ी तमाम जनसुविधाओं का अभाव दिल्ली से बाहर निकलते व प्रवेश करते समय यहां यात्रियों को खटकता रहता है।
यात्रा प्रसंग से जब धौला कुंआ की पृष्ठभूमि मुख्य द्वार के रूप में उभरकर सामने ऐन-केन-प्रकारेण अब हो गई है तो इस सत्य को स्थानीय प्रशासन द्वारा स्वीकार कर इस प्रमुख द्वार पर यात्रा से जुड़ी तमाम जनसुविधाएं उपलब्ध कराकर यात्रा के जीवन्त पक्ष को उजागर करने में सकारात्मक रूख अपनाया जाना चाहिए। धौला कुंआ राजस्थान एवं हरियाणा क्षेत्र की यात्रा के संदर्भ में प्रमुख द्वार के रूप में उभर चला है। इस तथ्य को स्वीकार करते हुए स्थानीय प्रशासन को धौला कुंआ के आस-पास अन्तर्राज्यीय बसों को ठहरने की उपयुक्त व्यवस्था करनी चाहिए। साथ ही इस जगह पर यात्रा से जुड़ी धूप, वर्षा से बचाव हेतु संसाधन, पानी, पेशाब आदि तमाम जनसुविधाओं की तत्काल व्यवस्था कर यात्रा के जीवन्त पक्ष को उजागर करने में पहल करना मानवता के हित में सकारात्मक कदम माना जा सकता है। धौला कुंआ में वनविभाग की पड़ी जमीन के बीच अंतर्राज्यीय बस स्टैंड का छोटा रूप दिया जा सकता है। इस दिशा में राजस्थान एवं हरियाणा प्रदेश से गये सांसदों को जनहितार्थ में संसद में भी सकारात्मक कदम उठाने की पहल की जानी चाहिए।
धौला कुंआ आज अंतर्राज्यीय बसों के साथ-साथ स्थानीय नगरीय बसों का भी प्रमुख द्वार बन चुका है। इस जगह पर धूप, वर्षा से बचाव करते प्रतीक्षारत यात्रियों को बैठने, पीने के पानी, मूत्रालय, शौचालय आदि जनसुविधाओं की व्यवस्था शीघ्र किया जाना यात्रा प्रसंग के तहत जनहितार्थ माना जा सकता है।

युध्द से भी ज्यादा खतरनाक आतंकवाद

युध्द और आतंकवाद दोनों ही अहितकारी राजनीतिक प्रेरित स्वयंभू पृष्ठभूमि से जुड़ी गतिविधियां है जिनसे आज देश ही नहीं, संपूर्ण विश्व पटल का मानव समुदाय चिंतित एवं दुखी है। एक प्रत्यक्ष है तो दूसरा अप्रत्यक्ष। दोनों हालात में मानवता का हनन होता है। आतंकवाद युध्द से भी ज्यादा खतरनाक है। युध्द में दुश्मन सामने होता है तथा उससे टक्कर लेने की पूरी तैयारी होती है। परन्तु आतंकवाद में दुश्मन साथ-साथ रहते हुए पीठ पीछे से अचानक आक्रमण कर देता है जिसका परिणाम सामने है। देश में आतंकवाद का बढ़ता जोर आज चुनौती का रूप ले चुका है। जब भी विकास की ओर हमारे बढ़ते कदम दिखाई देते उस कदम को अस्थिर करने की दिशा में विश्व की गुमनाम शक्तियां आतंकवाद के सहारे यहां सक्रिय हो जाती है। जिसे अप्रत्यक्ष रूप से कहीं न कहीं यहां राजनीतिक संरक्षण भी मिल रहा है। कुछ दिन पूर्व जयपुर में बम विस्फोटक आतंकवादी आग ठंडी नहीं हुई कि देश के मशहूर व्यापारिक व तकनीकी क्षेत्र में विकसित शहर बैंगलोर के साथ-साथ अहमदाबाद, सूरत इसकी चपेट में आ गये। देश के अन्य प्रगतिशील व्यापारिक शहर को अभी से चुनौती भी मिलने लगी है। आतंकवाद का बढ़ता यह सिलसिला हमारे विकास में बाधक तो है ही, भविष्य में गंभीर चुनौतियों का संकेत भी दे रहा है। इस तरह के परिवेश को अघोषित युध्द की भी संज्ञा दिया जाना अतिशयोक्ति नहीं होगी।
देश में अभी हुये बम काण्ड में करीब 50 लोगों के मरने एवं 300 से अधिक घायल होने की खबर दिल दहला देती है। इस तरह की घटनाएं दिन पर दिन वीभत्स रूप धारण करती जा रही हैं तथा हर बार की तरह इस घटना को भी अंजाम देने वाले तत्व साफ-साफ बच जा रहे हैं। घटना घटित होते ही एक बार पूरा परिवेश जागृत तो हो जाता है परन्तु एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप के इस सिलसिले के साथ सब कुछ टांय-टांय फिस्स हो जाता है। इन घटित घटनाओं पर गठित समितियों का आज तक कोई सकारात्मक हल सामने नहीं आया है। आतंकवादी देश के अंदर जगह-जगह, समय-समय पर अपने कारनामे दिखाते जा रहे हैं। निर्दोष लोग शिकार होते जा रहे हैं। राजनीतिज्ञ बयानबाजी से अपना काम निकालते जा रहे हैं। इस दिशा में आज तक कोई ठोस कदम का स्वरूप नजर नहीं आ रहा है जिसके कारण आतंकवाद अपना पग पसारता जा रहा है। देश में घटित आतंकवादी गतिविधियों पर फिलहाल प्रशासन एवं राजनीतिज्ञों को पूर्व की भांति सजग तो देखा जा सकता है परन्तु एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप के सिवाय इस बार भी कुछ हाथ लगता नहीं दिखाई देता। इस तरह के हालात भविष्य में आतंकवादी गतिविधियों को किस प्रकार रोक पायेंगे, विचारणीय मुद्दा है।
देश में जब कभी भी आतंकवादी गतिविधियों से जुड़े समूह की धरपकड़ की संभावनाएं दिखाई देती है, उसके बचाव के रास्ते भी तैयार हो जाते हैं जिसके कारण इस तरह की गतिविधियों से जुड़ा साफ-साफ बच जाता है तथा एक नई योजना को अंजाम देने में सक्रिय ही नहीं होता, सफल भी हो जाता है। मुंबई बम काण्ड से लेकर देश के विभिन्न भागों में हुये बम काण्ड के दौरान पकड़े गये आतंकवादी समूह से जुड़े प्रतिनिधियों पर की गई कार्यवाही का जो स्वरूप उभरकर सामने आ रहा है, उससे आतंकवाद से निजात पाने के हालात दूर-दूर तक नजर नहीं आ रहे हैं। इसी प्रक्रिया के तहत अभी तक जो भी पकड़े गये हैं उन्हें कहीं न कहीं से अप्रत्यक्ष रूप से संरक्षण तो मिल ही रहा है जो संदेह का लाभ लेकर साफ-साफ बच रहे हैं। संसद पर आक्रमण करने वाले अफजल को बचाने की मुहिम में यहां जो प्रक्रिया जारी रही उसे कैसे नकारा जा सकता है। मुंबई, जयपुर, हैदराबाद, बनारस आदि शहरों में हुये बम काण्ड को लेकर की जा रही कार्यवाहियों का अभी तक जो स्वरूप सामने आया है, नकारात्मक पृष्ठभूमि ही उभार सका है। अभी हाल में हुए बम काण्ड में जिस तरह की बयानबाजी जारी है, इस तरह के हालात में आतंकवाद का निदान ढूंढ पाना कहां तक संभव है, विचार किया जाना चाहिए।
पाक-भारत के संबंध सुधारने की दिशा में अथक प्रयास हुए। वर्षों से बंद पड़ी रेल-बस सेवा के मार्ग के खोल दिये गये। परिणाम यह हुआ कि देश में आतंकवादी गतिविधियां तेज हो गई। जगह-जगह बम काण्ड होने लगे। कब कहां क्या हो जाये, कह पाना मुश्किल है। जब आतंकवाद को पनाह घर से ही मिलने लगे, तो इस तरह के खौफनाक खेल से बच पाना काफी मुश्किल है। देश में इस तरह के परिवेश से जुड़े हालात इस बात को कहीं न कहीं स्वीकार तो कर रहे हैं कि आतंकवाद को देश के भीतर संरक्षण मिल रहा है। जो इस तरह की गतिविधियों का समर्थक है, या संरक्षक है वह इस देश का हो ही नहीं सकता। विचारणीय है।
आतंकवाद आज छद्म युध्द का रूप ले चुका है जिसे स्वयंभू परिवेश से जुड़े समूह का समर्थन अप्रत्यक्ष रूप से मिल रहा है। देश को अस्थिर करने का विश्वस्तरीय ठेका जिनके पास सुरक्षित है, इस तरह के समूह देश के भीतर सक्रिय हैं, जिनकी छानबीन होना बहुत जरूरी है। देश में प्रशासनिक तौर पर खुफिया तंत्र को मजबूत एवं स्वतंत्र होना बहुत जरूरी है। इस दिशा में उभरी राजनीतिक परिस्थितियां इसके वास्तविक स्वरूप को नकारात्मक कर सकती है। आतंकवाद सभी के लिए घातक है। आतंकवादी जिसका स्वरूप सौदागर के रूप में हो चुका है, उसके पल्लू में केवल उसका हित समाया है, वह न तो किसी देश का हितैषी हो सकता व न ही मानव जाति का। उसका उद्देश्य स्वहित में अर्थ उपार्जन मात्र है इसलिए उसे भाई की संज्ञा से संबोधित किया जाना भी अप्रासंगिक लगता है। इस तरह के परिवेश से जुड़े लोगों की जांच निष्पक्ष रूप से की जानी चाहिए। इस तरह की प्रवृत्ति से जुड़े लोग हर जगह अपना आसन जमाये बैठे हैं। खुफिया तंत्र स्वतंत्र होकर इस तरह के लोगों की यदि परख कर सके तथा देश की सीमा से अंदर आने वाले बाहरी अज्ञात व्यक्तियों के परिवेश को रोका जा सके तो आतंकवाद से लड़ पाना संभव हो सकेगा। आज यह युध्द से भी ज्यादा खतरनाक हो चला है। इस तरह के परिवेश से लड़ने के लिए स्वहित प्रेरित राजनीति से ऊपर उठकर राष्ट्रहित में मंथन करना एवं सकारात्मक कदम उठाना जरूरी है।
-स्वतंत्र पत्रकार, डी-9, IIIए, खेतड़ीनगर-333504 (राज.)

Monday, July 14, 2008

संकट के कगार पर खड़ी सरकार

केन्द्र की संप्रग सरकार के नेतृत्व की ओर से परमाणु करार की दिशा में बढ़े कदम डील से नाराज वाम दलों के समर्थन वापसी से एक बार फिर केन्द्र की सरकार संकट के कगार पर खड़ी दिखाई देने लगी है। केन्द्र की संप्रग सरकार को बाहर से समर्थन दे रहे वाम दलों की 59 की संख्या सर्वाधिक होने के कारण सरकार का भविष्य खतरे में अवश्य पड़ गया है परन्तु सपा द्वारा सरकार को समर्थन देने की घोषणा एवं राष्ट्रपति को सहमति पत्र सौंपने के उपरान्त आवश्यक बहुमत जुटाये जाने की स्थिति से वर्तमान हालात में केन्द्र की संप्रग सरकार अपने आपको सुरक्षित महसूस करती नजर आ रही है। राजनीतिक दांवपेंच के इस खेल में सत्ता की गेंद किस पाले में गिरेगी, कह पाना अभी मुश्किल है।
इतिहास के आइने में झांके तो राजनीति में किसी पर भरोसा कर पाना कतई संभव नहीं। पूर्व में स्व. चौधरी चरण सिंह के कार्यकाल में तत्कालीन कांग्रेस पार्टी द्वारा समर्थन देकर चौधरी चरणसिंह को प्रधानमंत्री बनाये जाने की घोषणाएं संसद में विश्वास मत हासिल करने के वक्त कौनसे रूप में उभरकर सामने आई, पूरा देश भलीभांति जानता है। कांग्रेस पार्टी में अचानक आये बदलाव नीति के कारण चौधरी चरणसिंह संसद में अपना बहुमत नहीं सिध्द कर पाये तथा सरकार अल्पमत में आ गई। परिणामत: देश में दुबारा चुनाव हुए। यदि इसी तरह की पुनरावृति 22 जुलाई को संसद में विश्वासमत के समय उभर जाती है तो सरकार का अल्पमत में आना निश्चित ही है। इस दिशा में सपा द्वारा समर्थन की पृष्ठभूमि में प्रमुख भूमिका निभा रहे सपा के महामंत्री अमर सिंह के मन में पूर्व में संप्रग सरकार के गठन के समय उपजे अनादर भाव के प्रतिफलस्वरूप पनपे प्रतिकार एवं चौधरी अजीत सिंह के मन में पूर्व में कांग्रेस द्वारा अपने पिता चौधरी चरणसिंह के प्रति अपनाई गई धोखा नीति के प्रतिफल से उपजे प्रतिकार का स्वरूप विश्वासमत के हालात को बदल सकता है। वैसे फिलहाल इस तरह के संकट के अंदेशे से वर्तमान हालात दूर ही नजर आ रहे हैं। वामदलों के समर्थन वापसी से उपजे संकट से सरकार को बचाने की दिशा में सपा द्वारा स्वयं पहल करने की पृष्ठभूमि को उत्तरप्रदेश में बसपा साम्राज्य से सपा को बढ़ते खतरे से बचाव की दिशा में बढ़ा कदम माना जा रहा है जहां लेन-देन की राजनीति में एक दूसरे के संरक्षण की पृष्ठभूमि उभरती दिखाई देती है। विश्वासमत के समय उभरे इस पृष्ठभूमि से हालात सरकार का भविष्य तय कर सकते हैं जहां सरकार इस तरह के हालात में संकट के कगार पर खड़ी है।
वामदल एवं भाजपा दोनों एक दूसरे के नीतिगत एवं वैचारिक पृष्ठभूमि में विरोधी रहे हैं। एक को नार्थ पोल कहा जाता है तो दूसरे को साउथ पोल। नार्थ पोल एवं साउथ पोल का एक दिशा में ध्रुवीकरण होना कौनसा रूप धारण कर सकता है, भलीभांति सभी परिचित हैं। विश्वासमत के समय दोनों सरकार के विरोध में खड़े दिखाई दे रहे हैं। इस दिशा में दोनों की अपनी-अपनी वकालत है। डील के विरोध में सरकार को विश्वासमत के समय अपना विरोधी मत प्रकट करते वक्त जो वामदलों का नजरिया है, वह भाजपा का कदापि नहीं। भाजपा एवं विरोधी पार्टी के रूप में अपनी पृष्ठभूमि निभाती नजर आ रही है। परमाणु डील के मामले में आर्थिक नीति के पक्षधर रही भाजपा की सोच सकारात्मक तो रही है परन्तु डील पर उभरे विवाद को लेकर संकट में घिरी सरकार से उत्पन्न राजनीतिक परिवेश का पूरा लाभ विपक्ष के रूप में वह उठाना भी चाहती है। संप्रग सरकार के प्रमुख सहयोगी वामदल परमाण्ाु डील पर शुरू से ही अपना विरोध जता रहे हैं। इस मुद्दे पर संप्रग सरकार के नेतृत्व एवं वामदलों के बीच पूर्व में कई बार मनमुटाव की स्थिति भी उभरती दिखाई दी है। संप्रग सरकार के नेतृत्व द्वारा डील पर विशेष सहयोगी वामदलों के नकारात्मक रूख के बावजूद भी अमल करने की पहल सरकार को संकट के कगार पर खड़ी कर दी है। इस तरह के उभरे हालात का विरोध में खड़ी भाजपा पूरा-पूरा राजनीतिक लाभ उठाना चाहती है। इसी कारण डील के पक्ष में सकारात्मक पृष्ठभूमि होते हुए भी महंगाई जैसे ज्वलंत मुद्दे पर सरकार को घेरने की भरपूर तैयारी कर रही है। भाजपा के प्रमुख घटक अकाली दल पर सरकार के पक्ष में जाने का संदेह उभरता तो दिखाई दे रहा है परन्तु घटक की पृष्ठभूमि एवं विरोधी पार्टी का स्वरूप इस तरह के हालात से इस दल को बाहर ही रख पायेगी, ऐसा भी माना जा रहा है। विरोधी पार्टी के रूप में भाजपा एनडीए के साथ सरकार के विश्वासमत के विरोध में मतदान करने की घोषणा कर चुकी है। वामदल, भाजपा एवं इसके सहयोगी दलों की पृष्ठभूमि विश्वासमत के समय सरकार के विरोध मत के रूप में स्पष्ट रूप से दिखाई दे रही है। सपा का केन्द्र सरकार के साथ होने की पृष्ठभूमि से बसपा का भी सरकार के विरोध में मत जाहिर करना स्वाभाविक है। इस तरह के हालात के बावजूद भी संप्रग सरकार अपने आपको सुरक्षित महसूस कर तो रही है परन्तु आंकड़े उपरी सतह पर तैरते नजर आ रहे हैं। इन आंकड़ों के तह में छिपा विश्वासघात सरकार को संकटकालीन स्थिति में क्या उभार पायेगा? विचारणीय मुद्दा है।
देश के साथ विश्व की पूरी निगाहें 22 जुलाई के मतदान पर टिकी है। जहां डील जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे पर सरकार का भविष्य टिका है जहां विश्व की पूंजीवादी नीतिगत पक्ष-विपक्षीय दृष्टिकोण शामिल हैं। यदि डील को लेकर सरकार विश्वासमत हासिल करने में सफल नहीं हो पायी तो डील से जुड़ी शक्तियों को भी भारी आघात पहुंचेगा। वैसे डील को सफल बनाने की पृष्ठभूमि में विश्व की शक्तियां भी ऐन-केन-प्रकारेण अप्रत्यक्ष रूप से सहयोग कर रही हैं। उससे जुड़े लोगों की तादाद भी काफी है। परन्तु स्वार्थमय परिवेश की उभरती पृष्ठभूमि कुछ नया परिदृश्य भी उभार सकती है। झारखंड प्रदेश में जब निर्दलीय मधु कोड़ा की सरकार संचालन की पृष्ठभूमि में उभर सकती है तो वर्तमान सरकार से जुड़े सहयोगी दलों के बीच नेतृत्व की नई तस्वीर पैदा भी की जा सकती है। इस तरह के हालात निश्चित तौर पर विश्वासमत के समय नये स्वरूप उजागर कर सकते हैं। राजनीतिक क्षेत्र में सबकुछ संभव है। छल, बल, साम, दंड, भेद आदि से सदा ही राज की नीति के साथ जुड़े प्रसंग रहे हैं। स्वार्थ परायण राजनीति में कौन अपना है, कौन पराया, कह पाना मुश्किल है। वैसे डील के मुद्दे पर विश्वासमत प्राप्त करने की दिशा में केन्द्र की सरकार घटक दलों के साथ जोर-शोर से सक्रिय हो चली है। इस दिशा में घटित घटनाओं पर नजर टिकी है। डील को देश हित में बताने का भी प्रयास सरकार द्वारा जारी है। परन्तु पूर्व में पोकरण परमाणु परीक्षण के दौरान भारत के साथ अमेरिका का दुर्भावना पूर्ण व्यवहार उसके साथ हो रही डील को संदेह के कटघरे में भी खड़ा करता दिखाई दे रहा है। भारत ने जब भी आत्मनिर्भर बनने की दिशा में अपना कदम बढ़ाया, अमेरिका को रास नहीं आया है। इस तरह के हालात परमाणु डील पर सवालिया निशान खड़े करते अवश्य दिखाई दे रहे हैं। जिसके बीच 22 जुलाई को केन्द्र की संप्रग सरकार विश्वासमत के कटघरे में खड़ी दिखाई देगी। जहां देश का भविष्य टिका है। अब तो सरकार के सहयोगी दलों के बीच से भी विरोधी स्वर उभरते नजर आने लगे हैं जिसके कारण संकट के कगार पर खड़ी सरकार को बचा पाना कठिन है।

सबसे बड़ी ठेकेदार आज की सरकार

ठेका पध्दति से भलीभांति प्राय: सभी परिचित हैं। जहां काम तो है पर दाम नहीं। दाम नहीं से तात्पर्य है, जिस अनुपात में काम लिया जाता उस अनुपात में मजदूरी नहीं दी जाती। मजबूरी में मजदूरी का वास्तविक स्वरूप इस पध्दति में आज तक उजागर नहीं हो पाया है। वास्तविक मजदूरी का अधिकांश हिस्सा बंटादारी में विभाजित होकर शोषणीय प्रवृत्ति को जन्म दे डालता है जिससे इस तरह की व्यवस्था में असंतोष उभरना स्वाभाविक है। इस तरह के परिवेश प्राय: निजी क्षेत्र में देखने को मिलते हैं जहां ठेकेदार में लाभांश कमाने की सर्वाधिक प्रवृत्ति समाई नजर आती है। इस प्रक्रिया में उचित मजदूरी एवं सामाजिक सुरक्षा का प्रश्न ही नही ंउभरता। काम करने वाले समूह के मन में सदा ही अनिश्चित भविष्य के प्रति भय बना रहता है तथा पग अस्थिर देखे जा सकते हैं। इस तरह के परिवेश में सदा ही अपने आपको उपेक्षित महसूस करते विकल्प की तलाश में भटकता रहता है जिससे उसका तन तो कहीं ओर तथा मन कहीं ओर नजर आता है। इस तरह असंतोष भरे वातावरण में उसके मन में पलायन घर कर लेता है। इस तरह की स्थिति अब सरकारी क्षेत्र में भी देखने को मिलने लगी है। पूर्व में सरकार की छत्रछाया में ये ठेकेदार फल-फूल रहे थे, अब स्वयं सरकार ही ठेकेदार का स्वरूप धारण कर चुकी है। जिसके तहत आज उच्च शिक्षा प्राप्त तकनीकी क्षेत्र के स्नातक सबसे ज्यादा शिकार देखे जा सकते हैं। राजस्थान प्रदेश में विद्युत विभाग के तहत हो रही कनिष्ठ अभियंताओं की भर्ती को इस दिशा में देखा जा सकता है। जिन्हें चयन उपरान्त दो वर्षों हेतु मात्र 6450रू. के मानदेय पर अपनी सेवाएं देने हेतु प्रतिनियुक्ति दी जाती है तदोपरान्त वेतनमान उन्हें प्रदान किया जाता है। इस तरह के हालात में चार वर्षीय इंजीनियरिंग क्षेत्र में शिक्षा पाने के उपरान्त बेहतर वेतन एवं परिवेश पाने की लालसा मन में रखने वालों की भावनाएं कुंठित होकर रह जाती हैं। बेरोजगारी के दौर में वे इस तरह के परिवेश स्वीकार तो कर लेते हैं परन्तु असंतोष भरे परिवेश में उन सभी का मन विकल्प की तलाश में भटकता नजर आता है। फिलहाल राजस्थान की प्रदेश सरकार ने इस दिशा में विभागीय तौर पर पलायन कर रहे अभियंताओं को रोके जाने हेतु वेतन बढ़ाये जाने की मांग पर सहमति जताते हुए बिजली की पांच कंपनियों में प्रोबेशनरी इंजीनियरों का प्रारंभिक वेतन बढ़ाये जाने को स्वीकृति तो दे दी है परन्तु इस दिशा में की जा रही वृध्दि बाजार के पैमाने से अभी भी काफी कम है। डिग्रीधारी अभियंताओं को निजी क्षेत्र में प्रारंभिक तौर पर मिलने वाली पगार से यह रकम आधी ही है। बढ़ती महंगाई के आगे इस तरह के पगार के बीच युवा पीढ़ी को रोक पाना फिर भी संभव नहीं हो सकेगा। विचारणीय मुद्दा है।
आज रोजगार के क्षेत्र में आयी मल्टीइंटरनेशनल कंपनियां जहां स्नातक इंजीनियरों को प्रारंभिक दौर में कम से कम 15000रू. एवं अन्य सुविधाएं प्रदान कर रही हैं, जहां अच्छे पैकेज की व्यवस्था दिख रही हो, इस तरह के हालात में राज्य सरकार द्वारा प्रदत्त योजना में असंतोष उभरना स्वाभाविक है। जिससे इस विभाग में पदों की स्थिति एक समय अन्तराल के उपरान्त खाली देखी जाती है। जिसका कार्यक्षेत्र पर भी प्रतिकूल प्रभाव देखा जा सकता है। इस तरह के क्षेत्र में स्नातक अभियंताओं के मन में ये भावना भी कुंठित भाव उजागर कर रही है जहां दूसरे राज्यों में प्रशिक्षण के दौरान ही पूर्ण वेतनमान एवं स्नातक योग्य पद उपलब्ध कर दिये जाते हों, वहीं राजस्थान प्रदेश में इस क्षेत्र में अंतराल देखा जा सकता है। राजस्थान प्रदेश में डिप्लोमा एवं डिग्री इंजीनियरों में प्रारंभिक दौर पर कोई अंतर नहीं है जहां दूसरे राज्यों में कनिष्ठ अभियंता पर डिप्लोमा कोर्स की योग्यता वाले लिये जाते हैं वहीं राजस्थान प्रदेश में इस पद हेतु डिग्री कोर्स की योग्यता का पैमाना तय है। इस तरह के हालात से भी इस क्षेत्र में स्नातक अभियंताओं के मन में आक्रोशित एवं कुंठित भाव पनपते देखे जा सकते हैं जिसके कारण समय मिलते ही इनके पग पलायन की ओर बढ़ चलते हैं। इस तरह के हालात राज्य सरकार के अधीनस्थ समस्त सेवाओं के तहत देखे जा सकते हैं। जहां जन स्वास्थ्य, सड़क, परिवहन, जलदाय आदि विभाग शामिल हैं। इन सभी विभागों में अन्य राज्यों की अपेक्षा इस राज्य में लागू पद व वेतनमान के अन्तराल से उपजे स्नातक अभियंताओं सहित समकक्षीय योग्यता वाली युवा पीढ़ी के मन में भारी असंतोष पनप रहा है जिस पर मंथन किया जाना आवश्यक है।
ठेके का दूसरा रूप राज्य सरकार के अधीनस्थ सेवाओं में खाली पदों के तहत हो रही नियुक्तियों के दौरान देखा जा सकता है जहां अस्थायी तौर पर नियुक्तियां जारी हैं। इस तरह के पदों पर भी कार्यरत लोगों को सही ढंग से वेतनमान एवं सुविधाएं देने की व्यवस्था न होकर ठेकेदार की ही तरह अल्प वेतन एवं सुविधाओं से वंचित किये जाने की प्रक्रिया जारी है। जहां मजबूरी का पूरा-पूरा लाभ उठाये जाने की परंपरा लागू है। राज्य पथ परिवहन निगम, विद्युत, चिकित्सा, शिक्षा, जलदाय, स्वास्थ्य, सार्वजनिक निर्माण सहित अन्य विभागों में अस्थायी तौर पर नियुक्तियों के स्वरूप को देखा जा सकता है। जिससे उभरते यहां असंतोष को नकारा नहीं जा सकता।
युवा पीढ़ी में भावी निर्माण की आधारभूमि समाहित होती है। यह हमारी अनमोल धरा है जिसकी रक्षा करना एवं उनके अंदर पनपते असंतुष्ट भाव को दूर कर पलायन से रोकना सरकार का दायित्व है। काम के अनुसार दाम के सिध्दान्त को सही ढंग से अमल में लाने एवं व्यवस्था से उभरते असंतोष को दूर कर सुव्यवस्थित व्यवस्था दिये जाने का भी दायित्व सरकार के कंधों पर होता है। जनतंत्र में सरकार ही जनता की सर्वोच्च कार्यपालिका मानी गयी है। जिन्हें जनहित एवं राष्ट्रहित में सुव्यवस्थित व्यवस्था देने का संपूर्ण अधिकार है। ठेकेदार की स्वहित में उभरी गलत परंपराओं को रोकना सरकार का दायित्व है। जब सरकार ही स्वयं ठेकेदार का रूप धारण कर स्वहित में शोषणीय प्रवृत्ति को अपनाने लगे तो इस तरह के परिवेश से उभरे असंतोष से बच पाना नामुमकिन है। इस दिशा में मंथन होना चाहिए। आज अपने क्रियाकलापों से सरकार ही सबसे बड़े ठेकेदार का स्वरूप धारण करती जा रही है। जो जनतंत्र के विपरीत परिदृश्य को उजागर करता है। इस स्वरूप में अपनी कार्यशैली से बदलाव लाकर उभरते असंतोष को दूर करने का भरपूर प्रयास ही सही जनतंत्र को उभार सकता है।
आज की हर सरकार सबसे बड़ा ठेकेदार बन चुकी है। यह स्वरूप उसके सामाजिक सरोकार को साफ-साफ नकारता है। जिससे सरकार एवं आम जनसमूह के बीच दिन पर दिन अंतराल बढ़ता ही जा रहा है। इस तरह की स्थितियां प्रदेश से लेकर केन्द्र तक फैले क्रियाकलापों के तहत देखी जा सकती है। इस तरह के हालात असंतोष के कारण बनते जा रहे हैं। जिससे सरकार पर से आम जनता का विश्वास धीरे-धीरे उठने लगा है। जनहित एवं राष्ट्रहित में यह जरूरी है कि अपने सरोकार को बनाये रखने के लिए सरकार ठेकेदारी प्रवृत्ति का त्याग करे तभी आम जन का विश्वास वर्तमान जनतंत्र के प्रति उभर सकता है।

महंगाई की मार पर करार के लिए बेकरार

दिन पर दिन महंगाई बढ़ती ही जा रही है। बाजार-भाव आसमान छूने लगे हैं। एक हफ्ते के दौरान ही महंगाई की दर 8.5 फीसदी से बढ़कर 11.5 फीसदी होने जा रही है। इस कमरतोड़ महंगाई की मार से देश की आम जनता सबसे ज्यादा परेशान नजर आने लगी है। पर केन्द्र सरकार को इस बढ़ती महंगाई की लेशमात्र भी चिंता कहीं नजर नहीं आ रही है। वह तो परमाणु करार के पीछे बेकरार हो रही है। परमाणु करार को लेकर वर्तमान केन्द्र सरकार के प्रधानमंत्री सबसे ज्यादा चिंतित व परेशान नजर आ रही है जबकि सरकार के विशेष सहयोगी वामदल इस करार के विरोध में बार-बार अपना मत जताते नजर आ रहे हैं। साथ ही यह भी कहते नजर आ रहे हैं कि सरकार को कोई खतरा नहीं। बढ़ती महंगाई को लेकर अपने आप को आम जनता का सबसे ज्यादा हितैषी बताने वाले यह वामदल भी फिलहाल मौन ही दिखाई दे रहे हैं। विपक्ष में खड़ी भाजपा की इस दिशा में सुगबुगाहट राजनीतिक लाभांश के मार्ग में सक्रिय होती दिखाई दे रही है। आज इस तरह के पूरे परिवेश का प्रतिकूल प्रभाव बाजार पर पड़ता दिखाई दिखाई दे रहा है। जहां बाजार से अब सामान भी धीरे-धीरे गायब होने लगे हैं। इस तरह के हालात में उपभोक्ताओं की आवश्यक वस्तुओं की मांग एवं बाजार में कमी महंगाई को बढ़ाने में सहायक सिध्द हो रही है। जिसे कालाबाजारी का नाम भी दिया जा सकता है। इस तरह की विकट स्थिति को पैदा कर अवैध रूप से काला धन बटोरे जाने की यहां परंपरा पूर्व से ही रही है जहां अप्रत्यक्ष रूप से जारी राजनीतिक संरक्षण को देखा जा सकता है। बाजार को अनियंत्रित किये जाने की बागडोर प्राय: पूंजीपति वर्ग के हाथ ही होती है जिस पर लगाम नहीं कसने से बाजार का संतुलन बिगड़ना स्वाभाविक है।
आज हमारी मांग बढ़ती जा रही है। आधुनिक लिबास के रंग-ढंग एवं ठाठ-बाट खर्च की सीमा को बढ़ाते जा रहे हैं। इस पैमाने पर संचित आय भी संकुचित होती जा रही है। मल्टीइंटरनेशनल कंपनियों के पसरते पग एवं उससे उभरे बाजार के हालात की चकाचौंध ने भारतीय आम जनजीवन का जीना दूर्भर कर दिया है। इस तरह के परिवेश भारत जैसे विशाल जनसंख्या के हित में कदापि नहीं है जहां आज भी अधिकांश जनजीवन दैनिक मजदूरी एवं फुटपाथ की जिंदगी जी रहा है। जहां जिन्हें हर पल रोटी के लाले पड़े रहते हैं। मजदूरी नहीं मिली तो रोटी भी छिन जाती है। इस तरह के परिवेश में जीवनयापन कर रहे लोगों को ऊपर उठाने का संकल्प लेकर संसद तक पहुंचने वाले जनप्रतिनिधि पूंजीवादी व्यवस्था के तहत निर्मित चकाचौंध की दुनिया में उलझकर सबकुछ यथार्थ को भूल जाते हैं जिसके कारण आज देश में दिन पर दिन बढ़ती जा रही महंगाई इस तरह के जीवनयापन करने वालों को ग्रास बनाती जा रही है।
पूर्व में परमाणु क्षेत्र में केन्द्र की वर्तमान सरकार के नेतृत्व में यूएसए से किये समझौते को अंतिम अमली जामा पहनाने के प्रयास अभी भी जारी हैं। जिसके विरोध में केन्द्र सरकार के प्रमुख सहयोगी वामदलों द्वारा गतिरोध भी देखा जा सकता है। परमाणु क्षेत्र में किये गये समझौते के लागू होने के उपरान्त देश में कौनसे हालात उभरेंगे, यह तो मुद्दा अभी मंथन के गर्भ में छिपा है परन्तु पूंजीवादी व्यवस्था से पनपी महंगाई का जो स्वरूप उभरकर सामने आ रहा है, उसका निदान ढूंढना आज अति आवश्यक है। पूंजीवादी देश की नजर भारत जैसे विशाल लोकतांत्रिक देश पर पहले से ही लगी हुई है। विश्व में सबसे बड़ा बाजार भारत ही है। जहां से धन उगाही सबसे ज्यादा की जा सकती है। भारत की स्वतंत्रता एवं विकास विश्व के अन्य विकसित देशों की आंखों की किरकिरी बन चुका है। जिसके परिणामस्वरूप पड़ौसी राष्ट्रों के माध्यम से यहां जारी आतंकवादी गतिविधियां एवं लोकतांत्रिक स्वरूप पर अप्रत्यक्ष रूप से उभरते एकाधिपत्य को देखा जा सकता है। जहां देश के लोकतांत्रिक निर्णय में कहीं न कहीं विश्व की शक्तियां अप्रत्यक्ष रूप से शामिल नजर आ रही है। तभी तो देश में उभरी ज्वलंत समस्या महंगाई की चिंता को छोड़ आज सरकार परमाणु क्षेत्र में किये करार को लेकर बेकरार हो रही है। जबकि इस तरह के गंभीर मुद्दे से सरकार का आगामी भविष्य भी जुड़ा हुआ है। यदि समय रहते महंगाई पर नियंत्रण नहीं हो पाया तो देश में होने वाले चुनाव के दौरान वर्तमान केन्द्र सरकार को भारी खामियाजा भुगतना पड़ सकता है। इस तरह के हालात से सरकार के जुड़े यहां के जनप्रतिनिधि एवं वर्तमान सजग प्रहरी भलीभांति परिचित हैं परन्तु इस तरह के गंभीर मुद्दे को छोड़ करार के लिए बेकरार होने के पीछे कौनसी परिस्थितियां हैं, चिंतन का विषय है। जहां इनके अस्तित्व के गले में खतरे की घंटी बंधी दिखाई दे रही है।
पेट्रोलियम पदार्थों में हुई वृध्दि को महंगाई बढ़ने का मूल कारण तो बताया जा रहा है। इस तरह की वृध्दि भी महंगाई को बढ़ाने में सहायक तो है परन्तु बाजार का अनियंत्रित होना एवं कालाबाजारी का बढ़ना भी इस दिशा में प्रमुख भूमिका बना हुई है। इस तरह के परिवेश निश्चित तौर पर पूंजीवादी व्यवस्था की ही देन है। बाजार को नियंत्रण में रखने एवं कालाबाजारी रोके जाने के सार्थक प्रयास किये जाने की आज महती आवश्यकता है। इस दिशा में सरकार ही ठोस कदम उठा सकती है। वर्तमान हालात में परमाणु करार के बजाय राष्ट्रहित एवं जनहित में बढ़ती महंगाई को रोके जाने के ठोस सकारात्मक कदम उठाये जाने की आवश्यकता है। देश के विकास में आमजन को राहत एवं सुव्यवस्थित व्यवस्था उपलब्ध कराना प्रमुख पृष्ठभूमि के तहत आता है। बढ़ती जा रही महंगाई से देश में उभरा असंतोष विकास के मार्ग में बाधा ही उत्पन्न कर सकता है। इस यथार्थ को समझा जाना चाहिए। महंगाई की मार से आम जन को बचाते हुए परमाणु करार के मुद्दे पर राष्ट्रहित को सर्वोपरि रखकर गंभीरता से हर पहलू पर मंथन किया जाना चाहिए। इस दिशा में किसी भी तरह की जल्दबाजी करना राष्ट्रहित में कदापि नहीं माना जा सकता। परमाणु करार पूंजीवादी व्यवस्था से जुड़े विश्व के सबसे बड़े कूटनीतिज्ञ राष्ट्र अमेरिका से जुड़ा प्रसंग है जो पूर्व में देश द्वारा परमाणु क्षेत्र में किये गये पोकरण परीक्षण प्रकरण पर अपनी नाराजगी जता चुका है। इस देश को भारत की इलैक्ट्रोनिक क्षेत्र में आत्मनिर्भरता भी कभी रास नहीं आई थी। इस तरह के प्रसंग पर भी गंभीरता से मंथन किया जाना अति आवश्यक है। इस तरह के ज्वलंत मुद्दे जो सरकार को कटघरे में खड़ा कर विवादास्पद बन सकते हैं, राष्ट्रहित में कदापि नहीं हो सकते। महंगाई की मार, पर करार के लिए सरकार हो रही बेकरार की पृष्ठभूमि के इर्द-गिर्द उभरते सवाल पर मंथन होना राष्ट्रहित में अति आवश्यक है।