Sunday, May 25, 2008

आरक्षण की आग सभी को जलाकर भस्म कर देगी

राजस्थान प्रदेश में फिर से एक बार पुन: गुर्जर जाति को अनुसूचित जनजाति में शामिल किये जाने की मांग को लेकर आरक्षण की आग भरतपुर में डुमरिया एवं कारवारी के बीच रेल पटरी को नुकसान पहुंचाने के उद्देश्य को लेकर आए आंदोलनकारियों एवं पुलिसकर्मियों के बीच पीलूपुरा गांव के निकट हुई मुठभेड़ से फैलती दिखाई देने लगी है। जिसकी चपेट में आकर जान-माल दोनों का नुकसान हुआ है। यह आंदोलन पूर्व की भांति फिर से हिंसक रूप धारण कर प्रदेश एवं आस-पास के क्षेत्र को अशांत करने की दिशा में बढ़ता नजर आने लगा है। जिसे ऐन-केन-प्रकारेण राजनीतिक हवा देने की भी प्रक्रिया शामिल हो चली है। नवम्बर माह में प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं तथा विधानसभा चुनाव का रूख सत्ता पक्ष के विपरीत न जाये। इस दिशा में प्रदेश में गुर्जर जाति को शुरू में हुए आंदोलन से उभरे असंतोष को दूर करने के उद्देश्य से सरकार द्वारा विशेष पैकेज देकर इस वर्ग में उभरे असंतोष को संतुष्ट करने की भरपूर कोशिश तो की गई परन्तु इस उभरे आंदोलन से पैकेज को निराधार साबित किये जाने की प्रक्रिया का स्वरूप साफ-साफ नजर आने लगा है। इस आंदोलन के विरोध में प्रदेश की मीणा जाति भी पूर्व में सड़क पर उतर आई थी। इस तरह की विकट स्थिति में गुर्जर जाति को पिछड़े वर्ग से अनुसूचित जनजाति में शामिल किये जाने की मांगा को मान लेना निश्चित तौर पर सत्ता पक्ष के लिए गंभीर संकट को चुनौती देना जैसा था।
राजनीतिक परिवेश में प्रदेश की राजनीति के बीच कांग्रेस की ओर परंपरागत चले आ रहे जाट बाहुल्य वोट को अलग-थलग कर अपनी ओर खींचने के उद्देश्य से पूर्व में केन्द्र की तत्कालीन एन.डी.ए. गठबंधन सरकार के प्रमुख घटक भाजपा द्वारा जाट वर्ग को पिछड़े वर्ग में शामिल किये जाने की घोषणा एवं चुनाव के दौरान इस वर्ग द्वारा भाजपा को पहली बार मिले अपेक्षित से भी ज्यादा रूझान के उपरान्त अमल की प्रक्रिया से प्रदेश की राजनीति में आये परिवर्तन ने आरक्षण के इस स्वरूप को उभार दिया जहां पिछड़े वर्ग में पूर्व से चली आ रही जातियां जाट वर्ग के शामिल होने से दबी-दबी महसूस करने लगी। पिछड़े वर्ग में जाट वर्ग के शामिल होने से इस वर्ग के तेज तर्रार युवा पीढ़ी द्वारा शीघ्र ही पूर्व से चली आ रही जातियों के युवा पीढ़ी को पीछे ढकेल दिया। इस तरह के परिवेश ने इस वर्ग में शामिल जातियों को अन्य वर्ग में शामिल किए जाने को लेकर पूरे प्रदेश में आंदोलन का एक नया रूप दे दिया जहां पिछड़े वर्ग में शामिल गुर्जर, माली आदि ने पिछड़े वर्ग के वर्गीकरण की मंशा के साथ अपने-आपको अनुसूचित जनजाति में शामिल किये जाने की मांग कर डाली। इस तरह के परिवेश ने प्रदेश में एक बार सम्पूर्ण गुर्जर जाति को इस तरह के आंदोलन के मार्ग पर धकेल दिया जहां पूरा प्रदेश एक बार फिर से अशांत हो चला। अनुसूचित जनजाति में पूर्व से एकाधिकार आरक्षण का लाभांश ले रहे मीणा जातियों में अपने अधिकार के बंटवारे के प्रसंग को लेकर विरोधी ज्वाला धधक उठी। मीणा एवं गुर्जर आमने-सामने हो चले तथा दोनों सरकार पर अपने-अपने तरीके से दबाव बनाते नजर आने लगे। इस तरह के हालात पर प्रदेश के पिछड़े वर्ग में शामिल अन्य जातियां भी बड़े गौर से मूक दर्शक बन पैनी दृष्टि गड़ाए प्रतिफल का इंतजार कर रही थी। यदि गुर्जर जाति के दबाव वश सरकार अनुसूचित जनजाति में शामिल किये जाने की मंशा बना भी लेती तो अन्य जातियों में भी आंदोलन भड़कने का अंदेशा उसे हो चला था। सरकार के लिए इस तरह की मंशा को मान लेना, या मानकर प्रस्ताव भेज देना कतई संभव नहीं था। वही हुआ, इस मुद्दे को लेकर एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति शुरू हो गई। प्रदेश सरकार केन्द्र के सिर इस समस्या को डाल निजात पाने का मार्ग तलाशने लगी, परन्तु उसे कोई खास सफलता नहीं मिली। स्वार्थ परिवेश से उपजे इस तरह की समस्या का निदान स्वाभाविक रूप से सही मायने में किसी के पास भी एक दूसरे पर डालने के सिवाय कुछ और नहीं है।
आरक्षण की आग निश्चित तौर पर धीरे-धीरे मानवता को दाग-दाग करती देश की एकता, अखंडता, अस्मिता के लिए गंभीर चुनौतियां बनती जा रही है। जहां अलगाववादी लहर की बू समाई हुई है। देश की प्रतिभाएं कुंठित होती जा रही है। देश की आजादी में सभी वर्ग का प्रतिनिधित्व एक समान रहा है। देश को आजादी मिलने के साथ ही सामाजिक परिवेश में एकरूपता लाने के उद्देश्य से आरक्षण की पनपी स्थिति आज धीरे-धीरे राजनीतिक परिवेश के कारण असंतोष की ज्वाला का रूप धारण कर चुकी है। जिसकी चपेट में आकर आज सम्पूर्ण मानव जाति कलंकित होने के कगार पर खड़ी दिखाई देने लगी है। जहां फिर से पूर्व की भांति वर्ग विभेद का एक नया साम्राज्य उभरता दिखाई देने लगा है। आरक्षण से लाभान्वित वर्गों में बेहतर सुधार होने के उपरान्त भी इस प्रक्रिया से अलग-थलग होने की मानसिकता न उभरती दिखाई दे रही, न भविष्य में उभरने की संभावना है। जिसके कारण नये वर्ग विभेद के साथ-साथ एक दूसरे के बीच पृथकतावादी प्रवृत्तियां जन्म लेने लगी है।
आरक्षण से उभरते परिवेश को आज नये सिरे से मंथन की महती आवश्यकता है जिसके विकृत रूप से मानवता कलंकित न होने पाये, इस दिशा में सभी की सोच सकारात्मक होना बहुत जरूरी है। देश को आजादी काफी संघर्ष उपरान्त मिली है, आरक्षण से उपजी आग में इस आजादी को मिटाने की दिशा में तत्पर दिखाई दे रही है, जहां देश की एकता, अखंडता खतरे में नजर आने लगी है। इस तरह की विकट परिस्थिति से देश को बचाने के लिए आरक्षण की आग को गैर राजनीतिक तरीके से बुझाना बहुत जरूरी है। इस तरह की आग में पूरा देश पूर्व में भी जलता रहा है तथा राजनीतिक दलों द्वारा उस आग में स्वार्थमयी रोटियां सेंकी जाती रही है। मंडल आयोग के दौरान युवा पीढ़ी में उभरे आक्रोश, आत्मदाह की वेदनापूर्ण घटनाएं एवं असीमित जान-माल की क्षति को नकारा नहीं जा सकता। आरक्षण के मुद्दे पर देश में जब-जब भी आंदोलन हुए नये जातीय संघर्ष के साथ-साथ देश टूटने के करीब पहुंचता रहा है। फिर भी राजनीतिक दलों द्वारा स्वार्थ हेतु इस तरह की अनैतिक गतिविधियों को हवा देने की प्रक्रिया यहां रही है। इस तरह की गतिविधियों को राष्ट्रहित में रोका जाना बहुत जरूरी है। आरक्षण्ा से उभरे आंदोलन की आग को तत्काल बुझाने के सार्थक प्रयास नहीं किये गये तो यह आग सभी को जलाकर भस्म कर देगी। इस शाश्वत सत्य को सभी राजनीतिक दलों को स्वीकार कर इस दिशा में सकारात्मक कदम उठाने का प्रयास करना चाहिए। स्वार्थमय परिवेश से जुड़ी राजनीति से जुड़े आरक्षण को समाप्त कर पाना आज संभव तो नहीं रह गया है परन्तु संख्याबल के आधार पर इसे सभी वर्गों में बांटकर इससे उपज रही आग को ठंडा किया जा सकता है। आज गरीबी सभी वर्गों में एक समान दिख रही है। इस परिवेश के आधार पर सभी वर्गों में संख्या के अनुपात में इसका लाभ दिया जाना ज्यादा प्रासंगिक बन सकता है। स्वहित की राजनीति त्याग कर आरक्षण की आग को रोकने की दिशा में सकारात्मक पहल किये जाने की महती आवश्यकता है।

-स्वतंत्र पत्रकार, डी-9, IIIए, खेतड़ीनगर-333504 (राज।)

Wednesday, May 21, 2008

लोकतंत्र में जनचर्चा सर्वोपरि होती है

राजस्थान प्रदेश में विधानसभा चुनाव की तिथि जैसे-जैसे नजदीक आती जा रही है, राजनीतिक सरगर्मियां तेज होती दिखाई देने लगी है। सत्ता तक पहुंचने के प्रयास में कांग्रेस एवं भाजपा दोनों राजनीतिक दल की राजनीतिक गतिविधियों में सक्रियता नजर आने लगी है। वर्तमान प्रदेश में सत्ताधारी भाजपा अपने कार्यकाल में किये गये विकास कार्यों के आंकड़े जनता के समक्ष अपने कार्यकर्ताओं के माध्यम से रखने की योजना बना रही है तो वहीं विपक्ष में बैठी कांग्रेस पुन: सत्ता तक पहुंचने के प्रयास में जनता के समक्ष वर्तमान सरकार को भ्रष्टाचार पैमाने पर गलत ठहराने की भरपूर कोशिश कर अपना पक्ष मजबूत बनाने में लगी हुई है। इस दिशा में जगह-जगह दोनों राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता सम्मेलन एवं उसमें जारी संवाद के स्वरूप को देखा जा सकता है।
जहां भाजपा श्रीमती वसुंधरा राजे सिंधिया के नेतृत्व में पूर्व की भांति विधानसभा चुनाव लड़ने की तैयारी कर रही है वहीं कांग्रेस अभी प्रदेश में नेतृत्व के मसले में भटकती नजर आ रही है। जातीय समीकरण पर आधारित वोट बैंक बिखरने के भय से कांग्रेस नेतृत्व की घोषणा में कतराती नजर आ रही है। पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के नाम पर कांग्रेस के भीतर जहां उपरोक्त परिवेश के कारण आम सहमति नहीं बन पा रही है वहीं प्रदेश में पूर्व नेतृत्वधारी के नाम पर भी कहीं न कहीं विवाद उलझता दिखाई दे रहा है। वैसे विधानसभा चुनाव उपरान्त कांग्रेस की बेहतर स्थिति होने पर पुन: अशोक गहलोत का नाम नेतृत्व में उभरने की आम चर्चा तो बनी हुई है परन्तु जातीय समीकरण पर आधारित वोट बैंक के टूटने के खतरे से फिलहाल कांग्रेस की केन्द्रीय समिति भी मौन है। नेतृत्व के मसले पर मंथन जारी है। वर्तमान खान मंत्री शीशराम ओला, पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष परसराम मदेरणा, पूर्व मुख्यमंत्री शिवचरण माथुर आदि के नाम की चर्चा तो जारी है परन्तु किसी भी एक नाम पर आम सहमति बनती नहीं दिखाई दे रही है। पूर्व में मध्यप्रदेश के राज्यपाल एवं पूर्व लोकसभा अध्यक्ष बलराम जाखड़ के नेतृत्व की भी कहीं से गंध आती दिखाई तो दी परन्तु इस दिशा में स्थिति साफ नजर नहीं आई। वैसे कांग्रेस में इस नाम पर आम सहमति बन तो सकती है, जिनसे जातीय आधार पर टिके वोट बैंक के बिखरने के कम आसार नजर आते दिखाई दे रहे हैं। कांग्रेस में फिलहाल यही एक नाम ऐसा दिखाई दे रहा है जो दोनों पक्षों को संतुलित करते हुए कांग्रेस को वर्तमान संकट से उभार सके परन्तु इस तरह के परिवेश के लिए इस नाम को राज्यपाल पद से अलग रखकर ही विचार करना तर्कसंगत हो सकता है।
जहां तक प्रदेश में सरकार की कार्यशैली पर वर्तमान सत्ता पक्ष भाजपा की स्थिति पर चर्चा की जाय तो आम चर्चा में इस सरकार की पुन: वापसी दिखाई दे रही है। वर्तमान सरकार ने अपने कार्यकाल के दौरान शिक्षा एवं अन्य क्षेत्रों में नई नियुक्तियां कर युवा पीढ़ी को संतुष्ट करने का जहां प्रयास किया है, वहीं कर्मचारी वर्ग, व्यापारी एवं किसान वर्ग को भी अपनी कार्यशैली से संतुष्ट रखने की भरपूर कोशिश की है। वर्तमान हालात में सरकार के कार्य से किसी भी वर्ग में विशेष असंतोष नजर नहीं आ रहा है, जिससे वोट बैंक पर प्रतिकूल प्रभाव पड़े। इस दिशा में पूर्व में कांग्रेस सरकार में तत्कालीन मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के कार्यकाल में रोजगार नहीं मिलने से युवा पीढ़ी में जहां भारी असंतोष व्याप्त रहा, वहीं सरकार की कार्यशैली एवं कर्मचारी वर्ग के प्रति उपेक्षापूर्ण नीति से कर्मचारी वर्ग में भी भारी असंतोष फैला हुआ था। जिसका परिणाम विधानसभा चुनाव उपरान्त देखने को साफ-साफ मिला। मीडिया में नं. 1 मुख्यमंत्री के रूप में छाये तत्कालीन मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के नेतृत्व में सत्ताधारी कांग्रेस अल्पमत में आ गई तथा विपक्ष में बैठी भाजपा श्रीमती वसुंधरा राजे के नेतृत्व में सत्ता तक पूर्ण बहुमत के साथ पहुंच गई। जनता जनार्दन है। वह सबकुछ देखती, सोचती एवं समझती है। जनता को भुलावे की राजनीति में रख पाना अब उतना आसान नहीं रह गया है। इस तरह के हालात में सरकार के कार्यों की रूपरेखा एवं उसके पड़ते अनुकूल/प्रतिकूल प्रभावों की स्थिति चुनाव परिणाम को प्रभावित करती हैं। गुजरात प्रदेश में पार्टी स्तर पर तत्कालीन नेतृत्व का विरोध होने के बावजूद भी विकास पर जनता-जनार्दन के बीच जनित आस्था ने फिर से नेतृत्व को सबलता प्रदान की, जिसे नकारा नहीं जा सकता। यही मापदंड राजस्थान प्रदेश में भी उभरते देखे जा सकते हैं।
प्रदेश के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस एवं भाजपा के साथ-साथ भाकपा, माकपा, बसपा, सपा, लोकजनशक्ति, लोकदल सहित अनेक राष्ट्रीय/क्षेत्रीय दल भी अपनी-अपनी पृष्ठभूमि उभारते नजर आयेंगे। इन दलों में उत्तरप्रदेश की सत्ताधारी बसपा उत्तरप्रदेश की सीमा से जुड़े प्रदेश की राजनीतिक पृष्ठभूमि पर अपना प्रभाव दिखा तो सकती है परन्तु पूरे प्रदेश में इस पार्टी के वोट बैंक कांग्रेस को ही अंतत: नुकसान पहुंचाते नजर आ रहे हैं। प्रदेश में वर्तमान सरकार के कार्यकाल में आरक्षण को केन्द्र में रखकर उभरा गुर्जर समुदाय का आंदोलन प्राय: निष्प्रभाव होता दिखाई देने लगा है। इस आंदोलन से जुड़े नेतृत्व धीरे-धीरे अपने खेमे की ओर जाते दिखाई देने लगे हैं। कांग्रेस एवं भाजपा दोनों को टिकट वितरण से उपजे संकट का मोल चुकाना पड़ सकता है।
प्रदेश में अभी हाल ही में हुए आतंकवादी बम विस्फोट से राजनीतिक चहलकदमी को थोड़ी देर के लिए विराम तो लग चुका है, परन्तु जैसे-जैसे चुनाव की तिथि नजदीक आती जायेगी, इस तरह की घटनाएं भी चुनावी मुद्दे का स्वरूप धारण करती जायेगी। जहां आरोप-प्रत्यारोप के बीच सभी राजनीतिक दल स्वहित में अपने उत्तरदायित्व को नकारते नजर आयेंगे।
लोकतंत्र में जनचर्चा सर्वोपरि होती है। जो जनमत का स्वरूप धारण करती है। गुजरात चुनाव के परिदृश्य जहां तत्कालीन भाजपा नेतृत्व के अंर्तविरोध के बावजूद भी जनचर्चा में विकास कार्यों के बारे में की गई चर्चा ही चुनाव परिणाम के रूप में उभरकर सामने आई। जिसे नकारा नहीं जा सकता। इसी तरह इस बार प्रदेश में भी सत्तापक्ष के वर्तमान नेतृत्व के तहत रोजगार एवं विकास क्षेत्र की नई उपलब्धियों की चर्चा विशेष रूप से जनचर्चा के तहत समायी है। कर्मचारी वर्ग को भी संतुष्ट रखने की कुशल नीति प्रशासनिक तौर पर देखी जा सकती है। आरक्षण नीति के तहत असंतुष्ट गुर्जर वर्ग को विशेष पैकेज देकर संतुष्ट करने का प्रयास भी इस कड़ी में देखे जा सकते हैं। इस तरह वर्तमान नेतृत्व द्वारा युवा, महिला, कर्मचारी सहित अन्य वर्गों को भी संतुष्ट रखने के हरसंभव प्रयास दिखाई दे रहे हैं। जिससे विपक्ष में खड़ी कांग्रेस को मुद्दे की तलाश में भटकते हुए देखा जा सकता है। चुनाव के दौरान प्रदेश की राजनीति किस करवट पलट खायेगी, यह तो समय ही बतला पायेगा परन्तु फिलहाल जनचर्चा में सत्ता की गेंद एक बार फिर से सत्ता पक्ष के पास ही जाती दिखाई दे रही है। प्रदेश के साथ-साथ देश के अन्य राज्यों में भी विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। विधानसभा चुनाव उपरान्त लोकसभा के चुनाव भी शीघ्र होने की कगार पर हैं। हर चुनाव में जनचर्चा ही जनमत के रूप में उभरकर सामने आती रही है। इन चुनावों में भी जनचर्चा जनमत के रूप में उभरकर सामने आयेगी जहां महंगाई, आतंकवाद एवं विकास के मुख्य मुद्दे के रूप में उभरते नजर आयेंगे। प्रदेश के चुनाव इस तरह के परिवेश से अछूते नहीं रहेंगे।
-स्वतंत्र पत्रकार, डी-9, IIIए, खेतड़ीनगर-333504 (राज.)

Saturday, May 17, 2008

मोबाईल के सकारात्मक पहलुओं को उजागर करना सामाजिक सरोकार

देश में जैसे-जैसे संचार क्रान्ति आई, आम उपभोक्ता की पसंद मोबाईल बन गया। आज हर हाथ में मोबाईल देखा जा सकता है। सब्जी बेचने वाले से लेकर कचरे उठाने वाले तक का हाथ मोबाईल से जुड़ा हुआ है। आज की जिंदगी मोबाईल के संग इस प्रकार हो चली है जिसके बिना सबकुछ अधूरा सा लगने लगा है। इस चाहत ने इस क्षेत्र में फैले उद्योग को सर्वोपरि लाभांश पर लाकर इस तरह खड़ा कर दिया है जहां आम उपभोक्ता इसकी चकाचौंध में क्षण-प्रतिक्षण लूटा जा रहा है। इसका प्रतिकूल प्रभाव आज आम उपभोक्ता की जेब पर पड़ता साफ-साफ दिखाई दे रहा है। शाम की रोटी, नन्हें शिशु के लिए दूध, बच्चों की किताब नसीब भले ही न हो, पर मोबाईल में बैलेंस होना बहुत जरूरी है। उपभोक्ता की इस कमजोरी का फायदा आज मोबाईल उद्योग से जुड़ी हर कम्पनियां उठाती नजर आ रही है। इस दिशा में आम उपभोक्ताओं को अपनी ओर आकर्षित करने की नये-नये तौर-तरीके भी इन कम्पनियों के द्वारा समय-समय पर जारी विज्ञापनों के माध्यम से देखा जा सकता है। जिसके जाल में यहां का आम उपभोक्ता दिन पर दिन फंसकर आर्थिक संकट को गले लगाते जा रहा है।
आम उपभोक्ताओं को अपनी ओर आकर्षित करने की रिलायंस कम्पनी द्वारा जारी अनलिमिटेड कॉल की योजना ने सामाजिक तौर पर अनेक लोगों को विकलांग बना दिया है। संचार क्षेत्र में समाचार प्रेषण दिशा में इस योजना को बेहतर तो माना जा सकता है परन्तु इस तरह के प्रयोग से युवा पीढ़ी पर पड़ते प्रतिकूल प्रभाव को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। जहां इस अनलिमिटेड कॉल की सुविधा ने युवा पीढ़ी को अपने वास्तविक दायित्व से दूर कर अनर्गल बहस की ओर ढकेल दिया है। इस तरह के उभरे प्रेमालाप की उभरती पृष्ठभूमि को आसानी से देखा जा सकता है। जो सीधे-सीधे उनको वास्तविक दायित्व से दूर करती दिखाई देती है। इस तरह के मोबाईल अवैध रूप से जारी गतिविधियों में भी लिप्त देखे जा सकते हैं। इस तरह की सुविधाएं आम उपभोक्ताओं को अपनी ओर आकर्षित करने की दिशा में मोबाईल की अन्य कम्पनियां भी किसी न किसी रूप में अग्रसर दिखाई दे रही है। जिसका अंतत: सामाजिक परिवेश पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है। सामाजिक पर्यावरण को दूषित होने से बचाने के लिए संचार क्षेत्र में समाचार प्रयोग को छोड़कर अन्य क्षेत्रों में इस तरह की अनलिमिटेड सेवा पर प्रतिबंध होना बहुत जरूरी है।
मोबाइल के क्षेत्र में आम उपभोक्ताओं से प्रयोग के अनुरूप प्रभार लेना तो उचित माना जा सकता है परन्तु बिना प्रयोग का प्रभार लेना कदापि उचित नहीं माना जा सकता। इस दिशा में उपभोक्ता द्वारा जितनी देर बात की जाये, उतनी ही देर का शुल्क लिया जाना प्रासंगिक पृष्ठभूमि उभार सकता है। अधिकांशत: बातचीत करते समय समय-सीमा की जानकारी नहीं होने से, कॉल का समय एक मिनट एक सैकेण्ड होते ही दो काल के पैसे उपभोक्ताओं को देने पड़ जाते हैं जो यह स्थिति उसके लिए असहनीय पीड़ा बनकर रह जाती है। कभी-कभी संचार माध्यम में त्रुटि होने के कारण उपभोक्ताओं की बातचीत बिल्कुल नहीं हो पाती फिर भी उसके पैसे लग जाते हैं। इस तरह के हालात का निदान किसी भी मोबाइल कम्पनियों के पास नहीं है या है भी तो उसे प्रयोग के रूप में देखा नहीं जा सकता जहां तकनीकी खराबी के कारण अधूरे प्रयोग का प्रभार आम उपभोक्ता के मोबाइल पर न पड़े। इस दिशा में कॉल पल्स की दर मिनट के बजाय सैकेण्ड में तय की जानी चाहिए। जिससे आम उपभोक्ता बेहिचक इसका प्रयोग कर सके एवं उसके मोबाइल पर प्रभार अनावश्यक रूप से न पड़ सके। वह जितना प्रयोग करे, उतना ही उसके प्रभार का भार उसके कंधों पर पड़े।
मोबाइल प्रयोग करने वाले उपभोक्ता को एक राज्य से दूसरे राज्य में जाकर रिचार्ज करने की सुविधा नहीं होने से काफी परेशानी होती है। आज संचार युग की क्रान्ति में इतने बड़े संचार तंत्र का संकुचित सिध्दान्त होना अप्रासंगिक पृष्ठभूमि को उजागर अप्रासंगिक पृष्ठभूमि को उजागर करता है। आम उपभोक्ता के लिए मोबाइल की रोमिंग कॉल की भी स्थिति सबसे ज्यादा कष्टदायक प्रतीत होती है। जबकि इस दिशा में धीरे-धीरे यह दर कम होती दिखाई तो दे रही है। जहां तक रोमिंग की बात है आज के परिवेश में इसका औचित्य नजर नहीं आता जहां हर उपभोक्ता के हाथ मोबाइल हो चला हो। इस तरह के परिवेश में रोमिंग का होना आम उपभोक्ताओं का सबसे ज्यादा अखरता है। मोबाइल कम्पनियों द्वारा रोमिंग प्रक्रिया से हर उपभोक्ता को निजात दिलाकर बेहिचक इसके प्रयोग को पहले से भी ज्यादा सकारात्मक बनाया जा सकता है। आज मोबाइल जब हमसफर बन हर हाथ के साथ हो चला है तो मोबाइल कम्पनियों द्वारा भी इसके प्रयोग सिस्टम को सरल एवं बेहतर बनाया जाना ज्यादा प्रासंगिक बन सकता है। जहां आम उपभोक्ता अपने-आप को ठगा सा महसूस नहीं करते हुए जीवन के सकारात्मक पहलू को उजागर कर सके। मोबाइल का प्रयोग सकारात्मक दिशा में हो सके, इसके सामाजिक स्तर पर कहीं प्रतिकूल प्रभाव न पड़े, इस तरह की व्यवस्था का सकारात्मक स्वरूप निर्धारण करना मोबाइल कम्पनियों का दायित्व ही नहीं, सामाजिक सरोकार भी है।
-स्वतंत्र पत्रकार, डी-9, IIIए, खेतड़ीनगर-333504 (राज.)

Thursday, May 15, 2008

महिला आरक्षण की प्रासंगिकता

भारी हंगामे एवं उभरते विरोधी स्वर के बीच यूपीए सरकार द्वारा महिला आरक्षण विधेयक राज्य सभा में अंतत: पेश कर ही दिया गया। जबकि इस विधेयक के पक्ष में विपक्षी भाजपा के साथ बसपा का सकारात्मक रूख रहा। राजद, समाजवादी पार्टी, जद (यू) ने इस विधेयक का विरोध किया। जबकि यूपीए गठबंधन के कुछ सहयोगी नेताओं द्वारा अपने दल के विरोधी रवैये के बावजूद भी मौन समर्थन जारी रहा। अपनी-अपनी राजनीति, अपना-अपना रंग। राजनीतिक लाभ की दृष्टि से इस विधेयक पर जारी समर्थन व विरोध की रणनीति के बीच फिलहाल कई वर्षों से ठंडे बस्ते में पड़ा विधेयक राज्यसभा के पटल पर तो पहुंचा। आगामी सत्र में इसका स्वरूप यहां के राजनीतिक दलों का महिला आरक्षण के प्रति स्वहित में उभरते परिवेश पर निर्भर करेगा। जहां पुरूष प्रधान समाज में महिला आरक्षण की प्रासंगिकता सदैव ही विवादास्पद बनी रही है। इस दिशा में पंचायतीराज में लागू आरक्षण से उभरते परिवेश को देखा जा सकता है। इसी प्रकार महिला आरक्षण विधेयक को लेकर तमाम सरकारी/गैरसरकारी आश्वासनों के बावजूद अभी भी लगातार अनिश्चितता की स्थिति बनी हुई है। जब भी यहां संसदीय सत्र का शुभारंभ होता है, सत्र शुरू होने के पहले व अंत तक यह मामला जोरों से आज तक उछाला जाता रहा है और अंतत: अगले सत्र की प्रतीक्षा के साथ सब कुछ टाय-टाय-फिस्स होकर रह जाता है। पूर्व में शीतकालीन सत्र में इस विधेयक के बारे में संसद में सकारात्मक चर्चा किये जाने की पहल सत्र शुभारंभ से पहले ही शुरू तो हो गई थी परन्तु इस दिशा में किसी भी तरह की सत्ता पक्ष या विपक्ष की ओर से ठोस कदम नहीं उठाये जाने से इस विधेयक के प्रति उभरते दोहरे भाव को नकारा नहीं जा सका। राज्य सभा के बीच महिला सांसद प्रतिनिधियों में पहली बार विरोधी स्वर का उफान देखा गया। शीतकालीन सत्र की समाप्ति पर लोकसभा एवं विधानसभा में महिलाओं को आरक्षण देने के लिये फिर से आगामी बजट सत्र में विधेयक लाये जाने की प्रतिबध्दता को दोहराते हुए सत्ता पक्ष द्वारा विधेयक के प्रति संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन में आम सहमति बनाये जाने की कोशिश पर पहल करने की वकालत तो की गई परन्तु पूर्व विरोधी एवं स्वार्थपूर्ण परिप्रेक्ष्य को देखते हुए दूर तक महिला आरक्षण विधेयक के प्रति आम सहमति हो पाने की विश्वसनीयता नजर नहीं आई।
पूर्व में जहां तक केन्द्रीय उच्च शिक्षण संस्थानों में अन्य पिछड़े वर्ग को आरक्षण देने की विधेयक भी इसी शीतकालीन सत्र में चर्चित रहे तथा राज्यसभा में भी बहुमत से पारित हो गये। इस तरह के विधेयक के पारित होने से सांसदों का स्वहित साफ-साफ नजर आया। इस तरह के अनेक विधेयक संसद के हर सत्र में पारित किये जाते रहे हैं जहां सांसदों का स्वहित सीधे तौर पर जुडा हुआ हो। जबकि महिला आरक्षण विधेयक के पारित होने से भविष्य में उनके सांसद रहने/न रहने पर सवालिया निशान लगता साफ-साफ दिखाई देता रहा है। यह निश्चित है कि वर्तमान हालात में महिला आरक्षण विधेयक के पारित होने से अनेक सांसदों का संसदीय क्षेत्र महिलाओं के लिए आरक्षित हो सकता है। जिसे वर्तमान सांसदों को किसी भी कीमत पर स्वीकार न तो आज है, न ही कल होगा। जहां तक पूर्व में संसद सदस्यों की संख्या बढ़ाकर इस विधेयक पर आम सहमति बनाये जाने की एक बार कोशिश तो अवश्य की गई परन्तु इस दिशा में भी इस सकारात्मक पहल अभी तक नजर नहीं आ रही है। 'आ बैल मुझे मार' वाली स्थिति कोई भी पुरूष सांसद बनाने के पक्ष में नहीं है। वैसे तो सांसदों की वर्तमान संख्या में वृध्दि किये जाने का पारित होना भी उतना आसान तो नहीं दिखता फिर भी यदि इस संख्या में ऐन-केन-प्रकारेण आम सहमति बनाकर भविष्य में पारित कर लिया जाता है तो भी महिला आरक्षण विधेयक पारित हो जाने के बाद संसदीय क्षेत्र हाथ से निकल जाने का खतरा पुरूष सांसदों के मन में अवश्य समाया हुआ है। जिस कारण सांसदों की संख्या बढ़ाकर महिला आरक्षण विधेयक लाने की स्थिति पर आम सहमति बन पाना कठिन सा लगता है। थोड़ी देर के लिये यह मान लिया जाय कि इस तरह के हालात भी बन जाय कि वर्तमान सांसदों के संसदीय क्षेत्र महिला आरक्षण विधेयक पारित होने से प्रभावित नहीं होंगे तो भी पुरूष सांसदों के मन में महिला आरक्षण विधेयक पारित होने के उपरान्त उनकी बढ़ती पृष्ठभूमि से कहीं न कहीं एकाधिकार समाप्त होने का भय मन में समाया हुआ है। जिसे किसी भी कीमत पर वे इस खतरे को भी अपने पास फटकने नहीं देना चाहते।
जबकि महिला आरक्षण की स्थिति पंचायती राज प्रणाली में शुरू से ही लागू है। इस आरक्षण के वर्तमान हालात में महिलाओं की भागीदारी नजर तो आ रही है परन्तु अभी भी इस तरह की भागीदारी पर पुरूष वर्ग का ही वर्चस्व प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष रूप से ऐन-केन-प्रकारेण प्रभावी होता दिखाई दे रहा है। महिला पंच, सरपंच, प्रधान, प्रमुख की भूमिका में मुख्य रूप से कहीं उसका जेठ तो कहीं पति तो कहीं उसका ससुर भूमिका में नजर आता है। जिसे प्रशासनिक तथा सामाजिक तौर पर पूर्णरूपेण समर्थन भी प्राप्त है जो कि एक अलोकतांत्रिक स्वरूप को साफ-साफ उजागर कर रहा है। इस तरह के हालात में अप्रत्यक्ष रूप से पुरूष वर्ग का प्रतिनिधित्व प्रभावित तो अवश्य है। इसके बावजूद भी महिलाओं के जागरूक होने या विरोध होने का खतरा अंदर तक अवश्य समाया हुआ है। इसी तरह के हालात से ग्रसित वर्तमान सांसद जिसमें पुरूष वर्ग का प्रतिनिधित्व सर्वाधिक है, संसद एंव विधानसभा के लिये महिला आरक्षण विधेयक लाने के पक्ष में किसी भी भीतरी मन से तैयार नहीं है। जिसके कारण आज तक संसद में यह महत्वपूर्ण विधेयक लाया नहीं जा सका। निकट भविष्य में इस विधेयक के पक्ष में सांसद महिला प्रतिनिधियों की बढती प्रतिबध्दता के हालात बदलने से भले ही इस दिशा में सार्थक पृष्ठभूमि बन सके, परन्तु वर्तमान हालात इस तरह के विधेयक को जहां पुरूष वर्ग का अस्तित्व प्रभावित हो रहा हो, संसद में लाये जाने के बावजूद भी पारित कराने के पक्ष में दिखाई नहीं दे रहे है। बार-बार संसद में इस विधेयक को लाये जाने की बात अब मात्र छलावा बनकर रह गई है।
पूर्व में महिला आरक्षण विधेयक को लेकर शीतकालीन सत्र की समाप्ति पर पहली बार संसद में हंगामा हुआ था। सत्तारूढ कांग्रेस सदस्यों सहित सभी दलों की महिला सांसदों ने इस विधेयक के प्रति उभरते दोहरेपन रवैये को लेकर आक्रोश प्रकट करते हुए राज्यसभा में अपना विरोध भी जताया। इस तरह के बदले हालात आगामी संसदीय सत्रों में महिला आरक्षण विधेयक के पक्ष में सकारात्मक माहौल खड़ा कर पायेंगे। जहां स्वार्थ परिपूर्ण पुरूष लॉबी सांसदों की लम्बी कतार खड़ी हो, ऐसा कुछ कह पाना फिलहाल संभव नहीं दिखता। इस विधेयक के पारित होने से अप्रत्यक्ष रूप से पड़ने वाले प्रतिकूल प्रभाव से प्राय: सभी पुरूष सांसद मन ही मन भयभीत हैं। जिनकी संख्या संसद में सर्वाधिक है। इस स्वार्थपूर्ण परिवेश के तहत महिला आरक्षण विधेयक पर आम सहमति न तो आज बनती दिखाई दे रही है, न कल बनने की संभावनाएं दिखाई दे रही है। इस तरह के हालात के बीच महिला आरक्षण विधेयक का प्रासंगिक परिवेश सकारात्मक हो पाना कतई संभव नहीं दिखाई देता। बजट सत्र के अंतिम दौर में राज्यसभा पटल पर पुन: लाये गये इस विधेयक के विरोध में ऐन-केन-प्रकारेण राजनीतिक दलों की स्वार्थप्रेरित गतिविधियां तेज हो चली हैं। यूपीए सरकार के प्रमुख सहयोगी राजद ने वर्तमान हालात में महिला आरक्षण विधेयक को लागू किये जाने के विरोध में सरकार से समर्थन वापिस लेने की धमकी दे डाली है। महिला आरक्षण विधेयक के लागू होने की प्रासंगिकता पर अनेक सवालिया निशान दिखाई देने लगे हैं। जो इसे भविष्य में भी लागू होने के मार्ग में बाधा उत्पन्न कर सकते हैं।
-स्वतंत्र पत्रकार, डी-9, IIIए, खेतड़ीनगर-333504 (राज.)