Sunday, May 23, 2010

काव्य पुस्तक जीवन ज्योति के कुछ अंश

वास्तविक रूप
फटे चीथड़े ही लिवास में , मानवता का अंग छिपा है ,
इस मटमैले रूप में ही , मानवता का रंग छिपा है ,
भाग रहे आज कोसो दूर , जिसको अछुत समझकर ,
उसके अंदर ही मानव का असली सा स्वरुप छिपा है ।
लम्बा चौड़ा गहरा सागर ,जो तीन भाग का स्वामी है,
नहीं उसे भी है यह मालूम, उसके अन्दर रत्न छिपा है।
एक बहुत छोटी सी तीली , जो माचिस में बंद पड़ी है,
उसके अन्दर दहनशक्ति का, बहुत बड़ा भंडार छिपा है ।
एक छोटी सी जल की बूंद , नीले नभ में भटक रही है,
जिसके अन्दर विशालकाय,सागर का अस्तित्व छिपा है।
काले पत्थरों का भूगर्भ , जो अंधकार में रहता है ,
उसकेअन्दर ज्योति लिए अनमोल रत्न हीरा छिपा है ।
आज जगत में घूम रहे है ,कितने अपने वेश बदलकर ,
न जाने इन बहुरूपियों में , कैसा कैसा रूप छिपा है ।
छल करने की कला बहुत ,फिर भी ये कुछ खोज रहे हैं ,
न जाने इस बार इस दिल में , कैसा षड्यंत्र छिपा है ।
जिन्दगी और मौत
जिन्दगी और मौत दोनों ,साथ में आती नहीं ,
एक तरु की शाख ये ,मिल कभी पाती नहीं ।
जिन्दगी हंसती है तो रो लेती भी है साथ में ,
मगर मौत हंसकर के भी हंसा कभी पाती नहीं।
जिन्दगी बसंत है , बहार को संग लाती सदा,
पर मौत अपने संग बहार कभी लाती नहीं।
जिन्दगी के पास में अंधकार भी प्रकाश भी,
पर जिन्दगी अंधकार बन कभी पाती नहीं।
जिन्दगी की तड़पन भी ,मौत ने देखी सदा ,
पर उसकी आँखों में दया कभी अति नहीं ।
जिन्दगी जिज्ञासा बन , हर जगह विराजती ,
मौत किसी की जिज्ञासा बन कभी पाती नहीं ।
जिन्दगी तपभूमि है तपस्वी बन सामने दिखे ,
पर मौत इसे देखकर भी भय कभी खाती नहीं।
जिन्दगी अनल भी है , गरल भी तूफ़ान भी,
जिन्दगी सबकुछ है , मगर मौत सी छाती नहीं ।
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