Tuesday, December 16, 2008

आर्थिक मंदी की छाया से बदलती कॉपर की काया

एशिया का सबसे बड़े ताम्र उद्योग हिन्दुस्तान कॉपर लिमिटेड पर भी विश्व में छायी आर्थिक मंदी की छाया नजर आने लगी है। जहां यह उद्योग विगत घाटे की सीमा को पार करते हुए लाभांश की ओर बढ़ते कदम के बल पर मिनी रत्न से अभी हाल में ही नवाजा गया है। वहीं आज विश्व बाजार में कॉपर के लगातार गिरते जा रहे मूल्य को लेकर भावी भविष्य के प्रति चिंतित दिखने लगा है। इस तरह के हालात में आयातित सांद्रित कॉपर अयस्क से तांबा निकाला जाना कॉफी महंगा पड़ रहा है। इस उद्योग के तहत झारखंड राज्य की घाटशिला यूनिट इंडियन कॉपर कॉम्प्लैक्स, छत्तीसगढ़ राज्य की मलाजखण्ड कॉपर प्रोजेक्ट एवं राजस्थान प्रदेश की खेतड़ी कॉपर कॉम्प्लैक्स एवं कोलिहान कॉपर माइन्स फिलहाल कार्यरत है। इसी उद्योग का महाराष्ट्र तालोजा कॉपर प्रोजेक्ट भी चालू हालत में है, जहां कॉपर छड़ का उत्पादन होता है। मंदी के दौर से गुजरते उद्योग को बचाने के लिए फिलहाल उच्च प्रबंधक वर्ग ने आयातित सांद्रित अयस्क को मंगाने का कार्यक्रम रोक कर खेतड़ी कॉपर कॉम्प्लैक्स के स्मेल्टर एवं परिशोधन संयंत्र को अल्प अवधि के लिए बंद रखे जाने का कार्यक्रम बनाया है। जहां फिलहाल स्मेल्टर प्लांट को बंद कर दिया गया है एवं कुछ दिन उपरान्त परिशोधन संयंत्र को भी बंद हो जाने की स्थिति झलक रही है। इन जगहों पर कार्यरत ठेका मजदूरों को तत्काल कार्य से मुक्ति दे दी गई है जिसके वजह से इस वर्ग में उदासी एवं बेचैनी से झलक साफ-साफ देखी जा सकती है। खेतड़ी खदान में संचालित एम.इ.सी.एल. ने भी अपने अस्थायी कर्मचारियों को एक महीने का नोटिस देकर कार्यमुक्ति का पत्र थमा दिया है। जिससे मजदूर वर्ग में काफी असंतोष फैला हुआ है। इस तरह के परिवेश के साथ-साथ अस्थायी रूप से कार्यरत श्रमिक वर्ग में असुरक्षित भविष्य को लेकर चिंता घिर आयी है जहां प्रबंधक वर्ग की ओर से 20 प्रतिशत की कटौती पर स्वैच्छिक रूप से अल्प अवधि अवकाश पर जाने की खबर असंतोष का कारण बनी हुई है। अफवाहों का बाजार भी यहां गर्म देखा जा सकता है। जहां भविष्य को लेकर तरह-तरह की बातें हो रही हैं। प्रबंधक वर्ग की ओर से जहां मंदी के दौर से उद्योग को बचाने की दिशा में इस तरह के कदम को सकारात्मक बताया जा रहा है। वहीं इस तरह के परिवेश में असुरक्षित भविष्य की उभरती छाया से यहां कार्यरत श्रमिक वर्ग में उभरते अशांत भाव को आसानी से देखा जा सकता है। एक तरफ आयातित सांद्रित कॉपर अयस्क को बंद कर दिया गया है तो दूसरी ओर यहां तैयार सांद्रित कॉपर अयस्क को इस उद्योग की दूसरी इकाई झारखंड राज्य में स्थित इंडियन कॉपर कॉम्प्लैक्स को भेजे जाने का क्रम जारी है जहां ट्रांसपोर्ट पर आने वाला अनावश्यक खर्च का भार इस मंदी के दौर में कंपनी पर पड़ता साफ-साफ दिखाई दे रहा है। इस तरह के उभरते परिवेश इस उद्योग को मंदी के दौर से बचाने के कौनसे तरीके का स्वरूप परिलक्षित कर पा रहे हैं, जहां स्मेल्टर प्लांट को बंद कर तैयार सांद्रित अयस्क को दूसरे युनिट भेजा जा रहा है, विचारणीय मुद्दा है। इस तरह के परिवेश पर भी यहां चर्चा का दौर जारी तो है परंतु विरोध के उभरते स्वर कहीं भी दिखाई नहीं दे रहे हैं। इस तरह के हालात में यहां तैयार सांद्रित अयस्क को इकट्ठा कर स्मेल्टर प्लांट को पुन: शीघ्र चालू करने की योजना बनाई जानी चाहिए। इस तरह की भी यहां आम चर्चा तो है परन्तु श्रमिक वर्ग को प्रतिनिधित्व करने वाले सभी संगठन इस दिशा में मौन दिखाई दे रहे हैं।
जहां तक कॉपर अयस्क के भौगोलिक परिवेश की वास्तविकता का प्रश्न है, खेतड़ी कॉपर कॉम्प्लैक्स से जुड़ी शेखावाटी क्षेत्र का बनवास व सिंघाना क्षेत्र अभी भी इस दिशा में अव्वल है। जहां हजारों वर्ष तक अच्छे ग्रेड में तांबा निकाले जाने हेतु 1.8 प्रतिशत का कॉपर अयस्क भूगर्भ में विराजमान है। इस क्षेत्र में बनवास खदान की चर्चा तो कई बार चली। पूर्व में नये सॉफ्ट लगाने हेतु उद्धाटन भी हुआ। खदान को नये सिरे से चालू कर इस क्षेत्र से कॉपर अयस्क निकाले जाने की योजना भी बनी परंतु सभी योजनाएं कागज तक ही सिमट कर गई है। 'सदियों से गड़ा शिलान्यास का पत्थर/बन गया वहीं अब रास्ते का पत्थर। फाइलों के पर अब झरने लगे हैं/रास्ते में अभी बहुत से दफ्तर॥'
वर्तमान हालात में इस उद्योग को सही रूप से मंदी के दौर से बचाने के लिए किसी भी यूनिट को बंद करने के बजाय चालू रखने की प्रक्रिया पर बल दिया जाना चाहिए। आयातित सांद्रित कॉपर अयस्क निश्चित तौर पर महंगा पड रहा होगा। इसे बंद करने का निर्णय तो उचित माना जा सकता है परन्तु यहां तैयार सांद्रित कॉपर अयस्क को बाहर भेजने का कोई औचित्य दिखाई नहीं देता। इसे इकट्ठा कर बंद पड़ी योजनाओं को शीघ्र से शीघ्र चालू करने का जामा पहनाया जाना चाहिए। इस उद्योग को चालू रखने के लिए बनवास क्षेत्र में नई खदान शीघ्र खोले जाने की महती आवश्यकता भी है। कोलिहान एवं खेतड़ी खदाने काफी पुरानी हो चुकी है जहां अयस्क निकालना भी काफी महंगा पड़ सकता है। इस तरह के हालात में बनवास क्षेत्र में नई खदान को शीघ्र चालू कर सिंघाना क्षेत्र तक फैले भूगर्भ के 50 मिलियन टन से भी ज्यादा कॉपर अयस्क को निकाल कर इस उद्योग को आत्मनिर्भर बनाया जा सकता है। इस क्षेत्र के सांसद भी वर्तमान में केन्द्रीय खान मंत्री है। जिनसे काफी अपेक्षाएं है। इस उद्योग के अन्दर हो रहे अनावश्यक खर्च लापरवाही एवं चोरी जैसे अनुचित कार्यों पर प्रतिबंध लगाकर उद्योग को मंदी के दौर से बचाया जा सकता है।
बाजार भाव तो चढ़ते उतरते रहेंगे। इस उद्योग को अपने क्षेत्र में उपलब्ध कॉपर अयस्क को प्रचुर मात्रा में निकालकर स्वावलम्बी बनाये जाने की प्रक्रिया ही इसे बचा सकती है एवं विपरीत परिस्थितियों से मुकाबला करने की ताकत पैदा कर सकती है। कुशल प्रबंधन, संरक्षण, आत्मविश्वास एवं अयस्क के क्षेत्र में स्वावलंबन के सिध्दान्त ही इस उद्योग की गरिमा को बनाये रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हुए लगातार लाभांश की ओर इसके कदम बढा सकेंगे। इंतजार है कि यह उद्योग भी स्वावलंबी बनकर अन्य उद्योगों की भांति मिनी रत्न से नवरत्न की श्रेणी में अपने आपको खड़ा कर सके। इस दिशा में सभी के सकारात्मक सोच एवं कदम की महती आवश्यकता है जो आर्थिक मंदी की छाया से कॉपर की बदलती काया को बेहतर स्वरूप दे सकती है।

Tuesday, December 9, 2008

जो जीता वही सिकन्दर

देश में विधानसभा चुनाव संपन्न तो हो गये। जहां चुनाव उपरान्त आये परिणाम में यह बात साफ-साफ नजर आने लगी है कि पूर्व की भांति हर बार की तरह इस बार भी जनता ने विकास के पक्ष में मतदान किया है। जहां मुद्दे ज्यादा टकराये, वहां बदलाव की स्थिति देखी जा सकती है। इस दिशा में राजस्थान प्रदेश को लिया जा सकता है जहां चुनाव के दौरान सर्वाधिक मुद्दे उभरकर सामने आये तथा बागी तेवरों के वजह से अन्य राज्यों से यहां पर भिन्न स्थिति उभर पायी। दिल्ली, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश में सरकार की स्थिति वही रही, जो पूर्व में थी परन्तु राजस्थान में किसी भी दल को स्पष्ट जनादेश तो नहीं मिला है पर कांग्रेस सर्वाधिक सीट लेकर सरकार बनाने की स्थिति में उभरती दिखाई दे रही है। जब चुनाव की घोषणा हुई तो इस प्रदेश में हुए विकास कार्यों के आधार पर पुन: भाजपा सरकार की वापसी दिखाई तो दे रही थी परन्तु जैसे-जैसे चुनाव की तिथियां नजदीक आती गई एवं टिकट बंटवारे को लेकर मतभेद उभरते गये। कांग्रेस के वापस आने की स्थिति भी साफ-साफ नजर आने लगी और इसी तरह की स्थिति चुनाव उपरान्त भी प्रदेश में देखने को मिली।
आज का मतदाता पहले से ज्यादा जागरूक दिखाई दे रहा है। तभी तो चुनाव पूर्व किये सारे आंकलन चुनाव उपरान्त बदले-बदले नजर आते हैं। इस चुनाव में भी इसी तरह के हालात नजर आये। जहां सत्ताधारी दल की वापसी स्पष्ट रूप से किसी भी राज्य में नजर नहीं आ रही थी। मतदाता की जागरूकता की परख इस दिशा में भी देखी जा सकती है जहां अपने मतदान के प्रयोग के लिए मतदाता चुनाव के दौरान एक बूथ से दूसरे बूथ पर भटकता दिखाई दिया। मतदाता सूची में नाम नहीं पाकर भ्रष्ट एवं लापरवाही व्यवस्था के प्रति आक्रोश भी उसका नजर आया। हर बार की तरह भी इस बार भी मतदाता सूची में अनेक त्रुटियां उभरकर सामने आयी। जहां मतदाता सूची में से अनेक मतदाताओं के नाम नदारद पाये गये। कहीं नाम गलत है तो कहीं फोटो गलत। जो मतदाता इस धरती पर ही नहीं, उसके नाम तो सूची में मौजूद हैं पर जो विराजमान हैं उसके नाम गायब। जो बेटियां शादी उपरान्त अपने ससुराल चली गई, उसके नाम सूची में शामिल हैं पर जो घर में है वे सूची से बाहर। जो लड़का नौकरी हेतु परदेश चला गया वह सूची में मौजूद है पर जो पढ़ रहा है, साथ में रह रहा है वह सूची से गायब। आखिर मतदाता जागरूक होकर भी क्या करे? हर बार मतदाता सूची संशोधित होती है। सरकारी घोषणा की जाती है पर हर बार इस तरह की त्रुटियां मतदाता सूची में रह जाती है जिसका कारण गलत मतदान होने के आसार स्वत: उभर चलते हैं तथा सही मतदान करने से वंचित रह जाता है। वहीं आक्रोश, वहीं आवाज, वहीं भटकाव जो हर चुनाव में नजर आता है, इस चुनाव में उभरकर सामने आया। इस तरह के हालात में मतदाता की जागरूकता क्या करेगी, जहां उसे अपने मौलिक अधिकार से हर बार वंचित होना पड़ता है।
इस बार मतदान के दौरान महिलाओं में सबसे ज्यादा जागरूकता देखी तो गई परन्तु मतदान प्रक्रिया के दौरान वोट मशीन का प्रयोग इस वर्ग में विशेष रूप से अनुपयोगी सिध्द हुआ। जहां दुरूपयोग होने के आभास भी सामने आये। वोट के दौरान मशीन का प्रयोग साक्षर वर्ग के बीच तो उपयुक्त माना जा सकता है जहां आज भी निरक्षरता जारी हो और वो भी महिला वर्ग में विशेष रूप से, फिर वहां मशीन का प्रयोग मतदान के स्वरूप को कहां तक सार्थक बना पाया होगा, विचारणीय मुद्दा है। मतदान के दौरान मशीन का बार-बार खराब हो जाना तथा अधिकांश जगहों पर मशीन खराब होने की प्रारंभिक सूचना जहां राजस्थान प्रदेश के राज्यपाल को भी खराब मशीन होने के कारण मतदान करने के लिए काफी देर तक प्रतीक्षा करनी पड़ी हो, मतदान की सार्थकता पर प्रश्नचिन्ह लगाता है। मतदान के पूर्व मतदान में प्रयोग आने वाले सिस्टम की पूर्ण जानकारी मतदाताओं को होनी चाहिए। जिस दिशा में हमारा प्रशासन सदा ही लापरवाह देखा गया है। जिसके कारण मतदान की सही प्रक्रिया सदैव ही अपूर्ण रह जाती है।
मतदान के दौरान जातीय समीकरण का स्वरूप भी दिन प्रतिदिन बढ़ता ही दिखाई दिया। इस विधानसभा चुनाव में भी यह स्थिति साफ-साफ नजर आती है। जिसके प्रभाव से लोकतांत्रिक परिवेश में अस्थिरता धीरे-धीरे पांव जमाती जा रही है। इस दिशा में प्राय: सभी राजनीतिक दलों की सोच एक जैसी ही दिखती है। जहां प्रत्याशी चयन की प्रक्रिया में जातीय समीकरण को सर्वाधिक रूप से प्राथमिकता दी जाती रही है। आज यह धारणा राजनैतिक विकृति का रूप ले चुकी है। जहां से बंटवारे की बू के साथ-साथ राजनीतिक स्थिरता को भारी धक्का पहुंचा है। इस परिवेश से उभरे अनेक क्षेत्रीय दलों में राष्ट्रीय दलों की अस्मिता को खतरे में डाल दिया है।
इस विधानसभा चुनाव में बागी तेवर के बढ़ते चरण भी देखे गये। इस तरह के परिवेश प्रदेश में परिवर्तन का मुख्य कारण बने हैं। साथ ही राजनीति में भ्रष्ट व्यवस्था को भी पनपने का मौका दिया है। राजनीतिक दलों ने नये चेहरे तो उतारे परन्तु नये चेहरों की कीमत भी उसे कहीं-कहीं चुकानी पड़ी है। वंशवाद एवं भाई-भतीजावाद की छाप को वैसे आम जनता ने स्वीकार तो नहीं किया है परन्तु बागी प्रत्याशियों के तेवर से इस हालात में कोई खास परिवर्तन नहीं देखा जा सकता। प्रदेश में भीतरघात से बदलते राजनीति के तेवर देखे जा सकते हैं।
आज चुनाव आयोग के अंकुश के बावजूद भी चुनाव दिन पर दिन महंगे होते जा रहे हैं। जहां सामान्य से व्यक्ति के लिए आज के परिवेश में चुनाव लड़ पाना कठिन ही नहीं, असंभव बन गया है। चुनाव में जिस तरह से माफिया तंत्र हावी होता जा रहा है, आने वाले समय में चुनाव में अर्थ का बोलबाला काफी बढ़ता दिखाई दे रहा है। चुनाव आयोग द्वारा चुनाव के दौरान माइक्रो ऑब्जर्वर प्राय: सफल देखा गया है जिसके कारण मतदान के अंदर होने वाली गड़बड़ी का अनुपात कम देखा गया परन्तु मतदाता परिचय पत्र होने के बावजूद भी फर्जी मतदान होने की बात हर बार की तरह की इस चुनाव में भी उभरकर सामने आयी है। जो मतदान करने वाली व्यवस्था की निष्ठा पर प्रश्नचिन्ह लगाती है। इस तरह के हालात के बीच राज्यों के हुए विधानसभा चुनाव के दौरान जो जीता वही सिकंदर।

मुद्दों की राजनीति के बीच उलझ गया है चुनावी समर

देश के विभिन्न 6 राज्यों में हो रहे विधानसभा चुनाव वर्तमान में अनेक मुद्दों के बीच उलझे दिखाई दे रहे हैं जिससे किसी भी राज्य में स्पष्ट जनादेश के लक्षण नजर नहीं आ रहे। अर्थबल एवं बाहूबल से प्रभावित लोकतंत्र की यह प्रक्रिया आज विशेष रूप से जातीय संघर्ष, वर्ग विभेद, बाहरी प्रत्याशी एवं भाई-भतीजावाद से प्रेरित विरोधी पृष्ठभूमि के बीच उलझकर रह गई। जिसकी छाप दोनों राष्ट्रीय दल कांग्रेस एवं भाजपा पर पड़ती दिखाई दे रही है। टिकट बंटवारे को लेकर इन दोनों दलों में जो मतभेद उभरकर प्रारंभ में सामने आये, वे अंत समय तक गहराते ही जा रहे हैं। जिसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है।
कुछ राज्यों में प्रारंभिक दौर के मतदान हो चुके हैं तो कुछ राज्यों में बाकी हैं। 4 दिसंबर को अंतिम दौर का मतदान है। मतदान की तिथि जैसे-जैसे नजदीक आती जा रही है, राजनीतिक दलों में उत्साह तो देखा जा रहा है परन्तु मतदान के प्रति लोगों में कहीं भी विशेष उत्साह नजर नहीं आ रहा है। जिससे आने वाले समय में लोकतंत्र की इस जागरूक पृष्ठभूमि पर मंडराता खतरा साफ-साफ नजर आ रहा है। इस तरह की उदासीनता का मूल कारण राजनीतिक पृष्ठभूमि में सही नेतृत्व का अभाव है। इस तरह के हालात प्राय: देश के सभी राजनीतिक दलों में उभरते नजर आ रहे हैं। जहां नेतृत्व की परिभाषा प्राय: गौण हो चली है। जहां राजनीति व्यापार का एक केन्द्र बन चली है। जहां केवल मतदाताओं को छलने का ही कार्यक्रम परिलक्षित नजर आ रहा है। असामाजिक तत्वों का राजनीति के क्षेत्र में बढ़ते प्रभाव ने लोकतंत्र की परिभाषा ही बदल दी है। जहां आम जन का विश्वास धीरे-धीरे इस तरह के महत्वपूर्ण पहलू पर से उठता जा रहा है। अब सभी राजनीतिक दल इस दिशा में एक जैसे लगने लगे हैं। यह स्थिति मतदान के प्रति उभरती उदासीनता का प्रमुख कारण भी मानी जा रही है। इस विधानसभा चुनाव में भी यह स्थिति देखने को मिलेगी जहां सही मतदान के प्रतिशत ग्राफ पहले से गिरते नजर आयेंगे।
विधानसभा चुनावों से जुड़े अलग-अलग राज्यों की अलग-अलग कहानी है। जो चुनावी मतदान की आंकलन को प्रभावित कर सकती है। जम्मू-कश्मीर एवं मिजोरम में आतंकवाद का ज्यादा जोर है। जहां इस गंभीर समस्या से निदान पाने के लिए विकल्प की तलाश में इन राज्यों में जुड़े मतदाता अपना निर्णय लेंगे। राजस्थान प्रदेश में सत्तापक्ष भाजपा विकास के मुद्दे पर चुनाव को प्रमुखता से लड़ती जहां दिखाई दे रही है वहीं इसके शासन काल में पनपे भ्रष्टाचार को विपक्षी कांग्रेस अपना प्रमुख हथियार बनाकर इस समर में कूद पड़ी है। इन दोनों दलों को प्रदेश में टिकट बंटवारे से उभरे आंतरिक मतभेद से गुजरना पड़ रहा है जहां इन दोनों दलों के दिग्गज समझे जाने वाले नेता कई जगहों पर निर्दलीय रूप से आमने-सामने हैं तो कई अन्य दलों को दामन थाम समर में कूद पड़े हैं। एक तरफ राज्य में विकास का मुद्दा जहां भाजपा शासन काल में हजारों लोगों को रोजगार मिला है एवं कर्मचारियों को संतुष्ट रखने की हर कोशिश की गई है तो दूसरी ओर प्रदेश में आरक्षण से जुड़े जातीय संघर्ष के बीच उभरे मुद्दे एवं टिकट बंटवारे को लेकर उभरे मतभेद को भी इस दल को झेलना पड़ रहा है। इस तरह की परिस्थिति में प्रदेश की जनता किसे महत्व देती है, यह तो चुनाव उपरान्त ही पता चल पायेगा परन्तु वर्तमान हालात में सत्ता पक्ष भाजपा को इस प्रदेश में अनेक मुद्दों के बीच से उलझना पड़ रहा है। जबकि चुनाव की घोषणा के साथ इस दल की प्रदेश में पुन: वापसी विकास के मुद्दे पर नजर आने लगी थी। जो धीरे-धीरे अन्य मुद्दों के बीच उलझ कर आज अस्पष्ट रूप धारण कर चुकी है। इसी तरह के हालात कांग्रेस का भी है जहां उसे बाहरी प्रत्याशी थोपे जाने, नेतृत्व की बागडोर का स्पष्ट रूप न होने एवं भाई-भतीजावाद से प्रेरित विरोधी पृष्ठभूमि को झेलना पड़ रहा है। प्रदेश में कांग्रेस, भाजपा के साथ-साथ बसपा, सपा, जद सहित अन्य दल एवं बागी के रूप में निर्दलीय प्रत्याशी इस चुनावी समर में नजर आ रहे हैं। इस तरह के हालात के बीच इस प्रदेश में स्पष्ट जनादेश की स्थिति उलझकर रह गई है। छत्तीसगढ़, दिल्ली व मध्यप्रदेश की वस्तुस्थिति इस प्रदेश से भिन्न है। इन राज्यों में जातीय संघर्ष के मुद्दे तो नहीं है परन्तु टिकट के बंटवारे को लेकर उभरे असंतोष जरूर व्याप्त हैं। इस तरह के हालात में स्पष्ट जनादेश की स्थिति किसी भी राज्य में नजर तो नहीं आ रही है परन्तु चुनावी विशेषज्ञ अपने-अपने आंकलन के तरीके पर कहीं कांग्रेस की बढ़त बता रहे हैं तो कहीं भाजपा की। इस तरह की घोषणाओं में हमारे ज्योतिषी भी पीछे नहीं है। जो अंकगणित के आधार पर अपनी राय व्यक्त करते नजर आ रहे हैं। इस तरह की अधिकांश घोषणाएं प्रायोजित मानी जा सकती है। जो मतदान को प्रभावित करने की दिशा में राजनैतिक दलों की चाल भी हो सकती है।
पूर्व में गुजरात में हुए चुनाव परिणाम विकास के मुद्दे को प्रभावित तो कर पाये। इस बार के विधानसभा चुनावों के परिणाम किस तरह के मुद्दे को विशेष रूप से उजागर कर पायेंगे यह तो चुनाव उपरान्त ही पता चल पायेगा। आजकल का भारतीय मतदाता पहले से ज्यादा जागरूक हो चला है। जिसके अन्दर हो रही प्रतिक्रियाओं को सही ढंग से समझ पाना किसी भी राजनीतिक दल या चुनावी विशेषज्ञ के बूते की बात नहीं है। आजकल विशेष रूप से महंगाई, आतंकवाद, क्षेत्रवाद का परिवेश भी मतदाताओं को अन्य मुद्दों के साथ प्रभावित कर सकते हैं। इस तरह के मुद्दों से गुजरती राजनीति का सही आंकलन कर पाना कठिन ही नहीं मुश्किल है। चुनाव के पूर्व अब तक घोषित सारे आंकलन पलटते नजर ही आये हैं। अनेक मुद्दों के बीच उलझा यह चुनावी समर एक नयी तस्वीर ही पेश करेगा जहां पूर्व में किये जा रहे घोषित सारे आंकलन विफल नजर आयेंगे।