Tuesday, December 9, 2008

जो जीता वही सिकन्दर

देश में विधानसभा चुनाव संपन्न तो हो गये। जहां चुनाव उपरान्त आये परिणाम में यह बात साफ-साफ नजर आने लगी है कि पूर्व की भांति हर बार की तरह इस बार भी जनता ने विकास के पक्ष में मतदान किया है। जहां मुद्दे ज्यादा टकराये, वहां बदलाव की स्थिति देखी जा सकती है। इस दिशा में राजस्थान प्रदेश को लिया जा सकता है जहां चुनाव के दौरान सर्वाधिक मुद्दे उभरकर सामने आये तथा बागी तेवरों के वजह से अन्य राज्यों से यहां पर भिन्न स्थिति उभर पायी। दिल्ली, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश में सरकार की स्थिति वही रही, जो पूर्व में थी परन्तु राजस्थान में किसी भी दल को स्पष्ट जनादेश तो नहीं मिला है पर कांग्रेस सर्वाधिक सीट लेकर सरकार बनाने की स्थिति में उभरती दिखाई दे रही है। जब चुनाव की घोषणा हुई तो इस प्रदेश में हुए विकास कार्यों के आधार पर पुन: भाजपा सरकार की वापसी दिखाई तो दे रही थी परन्तु जैसे-जैसे चुनाव की तिथियां नजदीक आती गई एवं टिकट बंटवारे को लेकर मतभेद उभरते गये। कांग्रेस के वापस आने की स्थिति भी साफ-साफ नजर आने लगी और इसी तरह की स्थिति चुनाव उपरान्त भी प्रदेश में देखने को मिली।
आज का मतदाता पहले से ज्यादा जागरूक दिखाई दे रहा है। तभी तो चुनाव पूर्व किये सारे आंकलन चुनाव उपरान्त बदले-बदले नजर आते हैं। इस चुनाव में भी इसी तरह के हालात नजर आये। जहां सत्ताधारी दल की वापसी स्पष्ट रूप से किसी भी राज्य में नजर नहीं आ रही थी। मतदाता की जागरूकता की परख इस दिशा में भी देखी जा सकती है जहां अपने मतदान के प्रयोग के लिए मतदाता चुनाव के दौरान एक बूथ से दूसरे बूथ पर भटकता दिखाई दिया। मतदाता सूची में नाम नहीं पाकर भ्रष्ट एवं लापरवाही व्यवस्था के प्रति आक्रोश भी उसका नजर आया। हर बार की तरह भी इस बार भी मतदाता सूची में अनेक त्रुटियां उभरकर सामने आयी। जहां मतदाता सूची में से अनेक मतदाताओं के नाम नदारद पाये गये। कहीं नाम गलत है तो कहीं फोटो गलत। जो मतदाता इस धरती पर ही नहीं, उसके नाम तो सूची में मौजूद हैं पर जो विराजमान हैं उसके नाम गायब। जो बेटियां शादी उपरान्त अपने ससुराल चली गई, उसके नाम सूची में शामिल हैं पर जो घर में है वे सूची से बाहर। जो लड़का नौकरी हेतु परदेश चला गया वह सूची में मौजूद है पर जो पढ़ रहा है, साथ में रह रहा है वह सूची से गायब। आखिर मतदाता जागरूक होकर भी क्या करे? हर बार मतदाता सूची संशोधित होती है। सरकारी घोषणा की जाती है पर हर बार इस तरह की त्रुटियां मतदाता सूची में रह जाती है जिसका कारण गलत मतदान होने के आसार स्वत: उभर चलते हैं तथा सही मतदान करने से वंचित रह जाता है। वहीं आक्रोश, वहीं आवाज, वहीं भटकाव जो हर चुनाव में नजर आता है, इस चुनाव में उभरकर सामने आया। इस तरह के हालात में मतदाता की जागरूकता क्या करेगी, जहां उसे अपने मौलिक अधिकार से हर बार वंचित होना पड़ता है।
इस बार मतदान के दौरान महिलाओं में सबसे ज्यादा जागरूकता देखी तो गई परन्तु मतदान प्रक्रिया के दौरान वोट मशीन का प्रयोग इस वर्ग में विशेष रूप से अनुपयोगी सिध्द हुआ। जहां दुरूपयोग होने के आभास भी सामने आये। वोट के दौरान मशीन का प्रयोग साक्षर वर्ग के बीच तो उपयुक्त माना जा सकता है जहां आज भी निरक्षरता जारी हो और वो भी महिला वर्ग में विशेष रूप से, फिर वहां मशीन का प्रयोग मतदान के स्वरूप को कहां तक सार्थक बना पाया होगा, विचारणीय मुद्दा है। मतदान के दौरान मशीन का बार-बार खराब हो जाना तथा अधिकांश जगहों पर मशीन खराब होने की प्रारंभिक सूचना जहां राजस्थान प्रदेश के राज्यपाल को भी खराब मशीन होने के कारण मतदान करने के लिए काफी देर तक प्रतीक्षा करनी पड़ी हो, मतदान की सार्थकता पर प्रश्नचिन्ह लगाता है। मतदान के पूर्व मतदान में प्रयोग आने वाले सिस्टम की पूर्ण जानकारी मतदाताओं को होनी चाहिए। जिस दिशा में हमारा प्रशासन सदा ही लापरवाह देखा गया है। जिसके कारण मतदान की सही प्रक्रिया सदैव ही अपूर्ण रह जाती है।
मतदान के दौरान जातीय समीकरण का स्वरूप भी दिन प्रतिदिन बढ़ता ही दिखाई दिया। इस विधानसभा चुनाव में भी यह स्थिति साफ-साफ नजर आती है। जिसके प्रभाव से लोकतांत्रिक परिवेश में अस्थिरता धीरे-धीरे पांव जमाती जा रही है। इस दिशा में प्राय: सभी राजनीतिक दलों की सोच एक जैसी ही दिखती है। जहां प्रत्याशी चयन की प्रक्रिया में जातीय समीकरण को सर्वाधिक रूप से प्राथमिकता दी जाती रही है। आज यह धारणा राजनैतिक विकृति का रूप ले चुकी है। जहां से बंटवारे की बू के साथ-साथ राजनीतिक स्थिरता को भारी धक्का पहुंचा है। इस परिवेश से उभरे अनेक क्षेत्रीय दलों में राष्ट्रीय दलों की अस्मिता को खतरे में डाल दिया है।
इस विधानसभा चुनाव में बागी तेवर के बढ़ते चरण भी देखे गये। इस तरह के परिवेश प्रदेश में परिवर्तन का मुख्य कारण बने हैं। साथ ही राजनीति में भ्रष्ट व्यवस्था को भी पनपने का मौका दिया है। राजनीतिक दलों ने नये चेहरे तो उतारे परन्तु नये चेहरों की कीमत भी उसे कहीं-कहीं चुकानी पड़ी है। वंशवाद एवं भाई-भतीजावाद की छाप को वैसे आम जनता ने स्वीकार तो नहीं किया है परन्तु बागी प्रत्याशियों के तेवर से इस हालात में कोई खास परिवर्तन नहीं देखा जा सकता। प्रदेश में भीतरघात से बदलते राजनीति के तेवर देखे जा सकते हैं।
आज चुनाव आयोग के अंकुश के बावजूद भी चुनाव दिन पर दिन महंगे होते जा रहे हैं। जहां सामान्य से व्यक्ति के लिए आज के परिवेश में चुनाव लड़ पाना कठिन ही नहीं, असंभव बन गया है। चुनाव में जिस तरह से माफिया तंत्र हावी होता जा रहा है, आने वाले समय में चुनाव में अर्थ का बोलबाला काफी बढ़ता दिखाई दे रहा है। चुनाव आयोग द्वारा चुनाव के दौरान माइक्रो ऑब्जर्वर प्राय: सफल देखा गया है जिसके कारण मतदान के अंदर होने वाली गड़बड़ी का अनुपात कम देखा गया परन्तु मतदाता परिचय पत्र होने के बावजूद भी फर्जी मतदान होने की बात हर बार की तरह की इस चुनाव में भी उभरकर सामने आयी है। जो मतदान करने वाली व्यवस्था की निष्ठा पर प्रश्नचिन्ह लगाती है। इस तरह के हालात के बीच राज्यों के हुए विधानसभा चुनाव के दौरान जो जीता वही सिकंदर।

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