Friday, September 12, 2008

सुविधाएं बनी जी का जंजाल

विकास की ओर अग्रसर होना चैतन्य मानवीय दृष्टिकोण तो है पर जैसे-जैसे हमारे पग विकसित दिशा की ओर बढ़ते चले जा रहे हैं, आलस्य, लापरवाही, विलासी जैसी अनेक अप्रासंगिक प्रवृत्तियों के घेरे में हम स्वत: कैद होते जा रहे है। जिसके प्रतिफल स्वरूप जीवन को असंतुलित करने वाली अनेक प्रकार की घातक बीमारियों के चंगुल में हम धीरे- धीरे फंसते जा रहे हैं। परिणामत: विकास के तहत अनेक प्रकार की सुख सुविधाओं के संसाधन बटोरकर भी सुखी जीवन से आज कोसों दूर खड़े हैं। इस परिवेश को विस्तृत रूप से जानने के लिए विकास की दिशा में बढ़ते कदम से बटोरी गई सम्पदाएं एवं उसके उपभोग को परखा जाना अति आवश्यक है। इस दिशा में प्राचीन काल के आईने में देखा जाना वास्तविकता के करीब माना जा सकता है।
प्राचीन काल में गेहूं से आटा बनाने की घर-घर में चक्की हुआ करती थी, चावल कुटाई के ओखल से लेकर घरेलू दैनिक प्रयोग में आने वाले ऐसे अनेक संसाधन होते थे जिनसे शारीरिक श्रम का होना स्वत: स्वाभाविक था, जिससे नारी वर्ग का स्वास्थ्य सदा एकदम चुस्त एवं दुरूस्त स्वरूप में देखा जा सकता। आज हर घर में आटे की चक्की, कुटाई की ओखल, मसाले पीसने की सिलवटी शरीर को चुस्त-दुरूस्त रखने वाले संसाधन गायब हो चले हैं, जिसकी जगह विकास की दिशा में बढ़ते कदम से प्राप्त आज आधुनिक संसाधन उपलब्ध हो चले हैं, जहां शारीरिक श्रम का होना कतई संभव नहीं। इस क्रिया को करने के लिए आज हमारे कदम व्यायामशाला की ओर अवश्य बढ़ चले हैं जहां व्यायाम के माध्यम से उपरोक्त संसाधन से जनित श्रम की अपेक्षा की जा रही है। कुछ इसी तरह यातायात की दिशा में बढ़े कदम ने भी कुछ इस तरह पंगु बना दिया है, जहां दो कदम की यात्रा भी सहारा ढूंढती नजर आ रही है। ऑफिस से लेकर हाट-बाजार एवं रिश्तेदारों से मिलने का क्रम भी सहारा ढूंढता नजर आने लगा है। जिसके कारण घुटनों का दर्द, शुगर, ब्लड प्रेशर जैसे अनेक खतरनाक बीमारियों के चंगुल में हम फंसते जा रहे हैं परन्तु विकास के नाम दिखावे की जिन्दगी से अपने आपको अलग नहीं कर पा रहे हैं। यातायात की दिशा में बढ़े कदम ने हमें इस कदर आलसी एवं सुविधाभोगी बना दिया है जहां सुख बटोरने की जगह दु:ख को बटोरते जा रहे हैं। शुध्द वातावरण की जगह दूषित वातावरण्ा जनित श्वांस लेकर घुट-घुट कर जीना सीख लिया हैं। महानगर की जिन्दगी जहां सड़क छोटी होती जा रही है, कितनी कष्टदायी है, देखा जा सकता है जहां से हर गुजरने वाला दु:खी तो है, पर मौन है। विश्व का जनसंख्या में सबसे बड़े देश चीन में विकास की दिशा में बढ़े कदम को देखा जा सकता है जहां आज भी यातायात में साईकिल की प्रधानता बनी हुई है। इस परिवेश ने चीन को प्रदूषण मुक्त रखने के साथ-साथ शारीरिक श्रम से भी वहां के जनजीवन को जोड़ रखा है। यहां तो मार्निंग वाक से जुड़ा प्रसंग सड़क को लीलने के साथ-साथ जीवन को ग्रास बनाता जा रहा है तथा आज आधुनिकता के नाम सुख की जगह दु:ख को बटोरने की परंपरा प्रगति के नाम जारी है। इस बदले परिवेश ने जो वातावरण को दूषित कर रखा है, इसका साक्षात् स्वरूप यहां देखा जा सकता है। अर्थ एवं ऐश्वर्य के पीछे-पीछे भागते लोगों के जीवन में सुख केवल कल्पना मात्र बनकर रह गया है। सामने छप्पन प्रकार के भोगों से सजी थाली है, जीभ लपलपा रही है, मन तरस रहा है उसका उपभोग करने को पर अनेक प्रकार की व्याधियों से ग्रस्त शरीर उसे ग्रहण करने के काबिल नहीं रहा। आखिर वह धन एवं ऐश्वर्य ही किस काम का, जिसका उपभोग न किया जा सके। विकास के नाम आधुनिकता से जुड़े हर जीवन की प्राय: यही व्यथा भरी घटना है।
विकास के नाम बटोरी गई आधुनिक सुविधाओं से हमारी जिन्दगी को इस तरह काहिल बना दिया है जिसके चलते सभी मानसिक तनाव के शिकार होने लगे हैं। सफर में बस खराब हो जाय, ट्रेन रूक जाय, पंखे, मोबाईल, कम्प्यूटर चलते-चलते बंद हो जाय, टेलीफोन आदि काम न करें तो मत पूछिये, हालात के बारे में, आम उपभोक्ता जल्द ही डीप्रेशन का शिकार होकर दु:खी हो जाता है। इस तरह की परिस्थितियां आधुनिक विकास युग जनित सुविधाओं की देन है जहां पूर्व की भांति शारीरिक श्रम की क्षमता क्षीण हो चली है। जिसके चलते आज हम अनेक तरह की बीमारियों को गले लगा कर असुरक्षित जिन्दगी जी रहे हैं। सुविधाएं सुखी जीवन के बजाय जी का जंजाल बनती जा रही है। विकास के रास्ते मनुष्य ने विनाश के संसाधन भी बटोर लिए हैं। शारीरिक श्रम के हृास होने होने से मानसिक तनाव के साथ-साथ कुत्सित विचार भी जनित होने लगे हैं जो सभी के लिए घातक है। इतिहास के आइने में झांककर घटित घटनाओं पर एक विहंगम दृष्टि डालकर सबकुछ आसानी से देखा जा सकता है। रामायण, महाभारत एवं आधुनिक युग की नागासाकी परमाणु विस्फोट की घटनाएं विकास के किस रूप को परिभाषित कर पा रही हैं, विचारणीय पहलू है। आज के मानव ने भी विकास के तहत मौत के संसाधन ज्यादा पैदा कर लिए हैं। कब कहां धमाका हो जाय, चलता जीवन कब थम जाय, आज के विकसित युग में कह पाना मुश्किल है।
 -स्वतंत्र पत्रकार, डी-9, IIIए, खेतड़ीनगर-333504 (राज.)

Tuesday, September 9, 2008

हिंदी के विकास में जनसंचार माध्यमों की भूमिका

हर देश की अपनी एक खास भाषा होती है जिसमें सभी देशवासी संवाद करते हैं। जिसमें उस देश की विशिष्ट पहचान समायी नजर आती है। इस दिशा में विश्व के अनेक विकसित देश रूस, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, चीन आदि के भाषायी प्रयोग के स्वरूप को देखा जा सकता है। भारत में उन्हें विकसित देशों में से एक महत्वपूर्ण देश है। जहां की संस्कृति आज भी इन विकसित देशों से सर्वोपरि है। परन्तु भाषायी प्रयोग की दिशा में स्वतंत्रता के साठ दशक उपरांत भी आज तक इस देश को केवल राष्ट्रभाषा का दर्जा देने से ज्यादा कुछ नहीं कर पाये हैं। जहां आज भी देश के प्रमुख उत्सवों पर आमंत्रित विशिष्ट अतिथियों के संवाद की भाषा अंग्रेजी ही बनी हुई है। संसद के अधिकांश क्षण प्रश्नोत्तर काल के दौरान अंग्रेजियत पृष्ठभूमि को उभारते नजर आ रहे हैं। जबकि व्यवहारिक तौर पर इस देश में आज भी हिंदी सर्वाधिक बोली एवं समझी जाती है परंतु राजकीय एवं राजनीतिक पृष्ठभूमि में इसके प्रयोग पर दोहरेपन पृष्ठभूमि को आसानी से देखा जा सकता है। वैसे पहले से इस दिशा में आये अंतराल को भी देखा जा सकता है। जहां हर दिशा में हिंदी बंटती नजर आ रही है। आज हिंदी देश ही नहीं विश्व स्तर पर अपना परचम इस तरह के परिवेश के बावजूद भी लहरा रही है। विश्व की चर्चित भाषाओं में आज यह तीसरे स्थान पर पहुंच चुकी है। इस तरह के विकास पथ पर निरंतर बढ़ रहे इसके पग को सबलता प्रदान करने की दिशा में जनसंचार माध्यमों की भूमिका सदा से ही अग्रणी रही है। इसके इतिहास के आईने को देखें जहां यह देश वर्षों तक गुलामी की जंजीर में जकड़ा रहा, सात समुंदर पार की अंग्रेजी भाषा का वर्चस्व वर्षों तक यहां हावी रहा और आज भी कहीं न कहीं इसका स्वरूप देखने को मिल ही जाता है। स्वाधीनता के कई वर्ष तक राष्ट्रभाषा के रूप में घोषित हिंदी उपेक्षित जीवन को सहती रही। राजनीतिक स्तर पर उपजे विरोध को झेलती रही। पर आज इसके विकसित रूप में भारतीय जनजीवन का स्वरूप परिलक्षित होने लगा है। इस तरह के स्वरूप को उजागर होने में जनसंचार माध्यमों की भूमिका निश्चित तौर पर सदैव सक्रिय बनी रही है। 
जनसंचार माध्यमों में मुख्य रूप से प्रिन्ट, दृश्य एवं श्रव्य की भूमिका महत्वपूर्ण रही है। प्रिन्ट मीडिया का इतिहास काफी पुराना है। स्वाधीनता आंदोलन के दौरान हिंदी भाषा में प्रकाशित पत्र-पत्रिकाओं ने देश को आजाद कराने की पृष्ठभूमि में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हुए हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार में अहम् योगदान दिया है। यहां के लोक कवि एवं साहित्यकारों ने हिंदी भाषा में अपनी रचनाएं जन-जन तक पहुंचा कर हिंदी के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। स्वाधीनता काल की प्रकाशित पत्रिका 'सरस्वती', 'मार्तण्डय' आदि के सक्रिय योगदानों को देखा जा सकता है। हिन्दू, आज, आर्यावर्त, सन्मार्ग, नवज्योति, हिन्दूस्तान, विश्वामित्र, नवभारत, स्वतंत्र भारत जैसे अनेक चर्चित हिन्दी दैनिक समाचार पत्रों ने हिंदी के विकास में जो भूमिका निभायी है उसे भुलाया नहीं जा सकता। आज हिंदी के विकास में देश के विभिन्न अंचलों से हजारों पत्र-पत्रिकाएं सक्रिय भूमिका निभा रही है। राजस्थान पत्रिका, पंजाब केसरी, दैनिक भास्कर, जागरण, हरिभूमि, सहारा, डेली न्यूज जैसे अनेक समाचार पत्र जहां लाखों पाठकों के घर-घर पहुंच रहे हैं वहीं एक्सप्रेस मीडिया, मीडियाकेयर नेटवर्क जैसे इलैक्ट्रानिक संसाधनों के माध्यम से हिंदी आज देश में प्रकाशित चर्चित दुनिया, सवेरा, जलते दीप, हमारा मुंबई, हिंदी मिलाप, रांची एक्सप्रेस, लोकमत दैनिक समाचार पत्रों द्वारा पूरे देश में हिंदी संवाद को स्थापित करने में सक्रिय भूमिका निभा रही है। आज हिंदी दैनिक समाचार पत्रों के साथ-साथ हजारों साप्ताहिक, पाक्षिक पत्र भी अपनी भूमिका हिंदी के प्रचार-प्रसार में निभा रहे हैं जो गली-गली, गांव-गांव को हिंदी से जोड़ने का कार्य कर रहे हैं। हजारों पत्रिकाएं भी इस दिशा में अपना कार्य कर रही है जिसका प्रभाव सामने है। अंग्रेजी के वर्चस्व से धीरे-धीरे हिंदी को मुक्ति मिलती दिखाई देने लगी है। कभी यहां हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए बना हिंदी अधिकारी अपने आपको हिंदी अफसर कहना बेहतर समझता था आज वही अपने आपको गर्व के साथ हिंदी अधिकारी कहते नजर आता है। यह जनसंचार के माध्यम से हिंदी के बढ़ते चरण का ही प्रभाव है।
जनसंचार का श्रव्य माध्यम भी हिंदी के प्रचार-प्रसार में अपनी भूमिका प्रारंभ से ही निभाता रहा है। इस दिशा में आकाशवाणी के बीबीसी लंदन की हिंदी समाचार सेवा प्रभार की भूमिका को देखा जा सकता है। जिससे देश का अधिकांश समुदाय श्रव्य माध्यमों से भी जुड़ा हुआ था। आकाशवाणी का यह केन्द्र आज भी सर्वाधिक लोकप्रिय है। जिसका परिणाम यह रहा कि हिंदी लाखों लोगों के बीच श्रव्य के माध्यम से संपर्क की भाषा बन गई। आज इलैक्ट्रानिक युग में इलैक्ट्रानिक मीडिया ने हिंदी के विकास में अभिनव एवं अद्भुत पृष्ठभूमि बनाई है। आज तक, स्टार प्लस, जीटीवी, सहारा, दूरदर्शन, ईटीवी आदि नेटवर्क हिंदी में सर्वाधिक कार्यक्रम प्रसारित कर रहे हैं। इनके द्वारा प्रसारित हिंदी धारावाहिक के माध्यम से आज करोड़ों जनसमुदाय हिंदी से जुड़ता चला जा रहा है। घर-घर की कहानी, महाभारत, रामायण, कृष्णलीला, सास भी कभी बहू थी, दुल्हन आदि की बढ़ती लोकप्रियता ने सभी नेटवर्कों को हिंदी के प्रति कार्य करने की अद्भुत प्रेरणा दी है। इस परिवेश ने आज हिंदी को विश्व स्तर तक पहुंचा दिया है। आज संसद में भी हिंदी सुगबुगाने लगी है तथा अंग्रेजी के प्रति मोह प्रदर्शित करने वालों की नजर धीरे-धीरे झुकने लगी है। जनसंचार माध्यमों की भूमिका ने हिंदी को जन-जन से जोड़ने का अभूतपूर्व कार्य किया है। आज देशभर में सर्वाधिक हिंदी की समाचार पत्र-पत्रिकाएं प्रकाशित हो रही हैं एवं दूरदर्शन पर हिंदी धारावाहिक एवं चलचित्र प्रदर्शित हो रही हैं। जनसंचार का यह फैलाव निश्चित तौर पर हिंदी को उस परिवेश से बाहर निकाल लाया है जहां हिंदी बोलने एवं लिखने में झिझक होती थी।
आज भी हिंदी के प्रति उभरते दोहरी मानसिकता के परिवेश को देखा जा सकता है परन्तु जनसंचार के माध्यम से हिंदी के बढ़ते कदम के आगे धीरे-धीरे इस तरह की मानसिकता में बदलाव भी आता दिखाई दे रहा है। विश्व स्तर पर प्रारंभ में हिंदी में दिये गये भाषणों को जन-जन तक पहुंचाने का कार्य भी जनसंचार माध्यमों ने ही किया। जिससे हिंदी आज जन-जन की भाषा बनती दिखाई देने लगी है। हिंदी के आवेदन पत्र एवं आवेदन पत्र पर हिंदी के हस्ताक्षर तथा हिंदी में ही किये गये अनुमोदन टिप्पणी का स्वरूप इस बात को परिलक्षित करने लगा है कि अब हिंदी दोहरी मानसिकता के चंगुल से निकलकर स्वतंत्र स्वरूप धारण करते हुए भारतीयता का प्रतीक बनती जा रही है। यह परिवर्तन निश्चित तौर पर हिंदी के विकास में जनसंचार माध्यमों की महत्वपूर्ण भूमिका का ही जीता-जागता उदाहरण है। आने वाले समय में यह अप्रासंगिक राजनीतिक क्षितिज से ऊपर उठकर संपूर्ण भारत का सिरमौर स्वरूप धारण करते हुए हमारी अस्मिता की पहचान शीघ्र बन जायेगी ऐसा विश्वास जागृत हो चला है। 

Friday, September 5, 2008

दोहरी मानसिकता की शिकार है हिन्दी

हर देश की अपनी एक भाषा होती है जिसमें पूरा देश संवाद करता है। जिसके माध्यम से एक दूसरे को पहचानने व समझने की शक्ति मिलती है। जो देश की सही मायने में आत्मा होती है। परन्तु 60 वर्ष की स्वतंत्रता उपरान्त भी हमारे देश की सही मायने में कोई एक भाषा नहीं बन पाई है। जिसमें पूरा देश संवाद करता हो। आज भी वर्षों गुलामी का प्रतीक अंग्रेजी भाषा का वर्चस्व ही सभी ओर हावी है। जबकि स्वाधीनता उपरान्त सर्वसम्मति से हिन्दी को भारतीय गणराज्य की राष्ट्रभाषा के रूप में संविधान के तहत मान्यता तो दे दी गई पर सही मायने में आज तक दोहरी मानसिकता के कारण इसका राष्ट्रीय स्वरूप उजागर नहीं हो पाया है। आम जनमानस के प्रयोग की बात कौन करे, जब इस देश की सर्वोच्च संसद में ही इसकी मान्यता का सही स्वरूप उजागर नहीं दिखाई देता। संसद में आज भी अंग्रेजी का वर्चस्व हावी है। देश की जनता द्वारा चुने गये उन जनप्रतिनिधियों को भी जिन्हें हिन्दी अच्छी तरह आती है, सामान्य संवाद/संसदीय प्रश्नोत्तरकाल में अंग्रेजी का प्रयोग धड़ल्ले से करते हुए देखा जा सकता है। जिनकी चुनावी भाषा अंग्रेजी कभी नहीं रही, वे भी धड़ल्ले से अंग्रेजी का प्रयोग करते कभी नहीं हिचकिचाते। इसे विडम्बना ही कहे कि जिस देश की संसद की मान्यता प्राप्त जो भाषा है, वही अपने ही घर में उपेक्षित हो रही है। देश की संसद जो अस्मिता की प्रतीक है, वहां जनप्रतिनिधियों द्वारा अंग्रेजी में किये जा रहे वार्तालाप की गूंज आजादी के किस स्वरूप को उजागर कर पाती है, इस स्वरूप को देखकर इसे भारतीय संसद कह पाना कहां तक संभव होगा, विचारणीय है। आज भी कार्यालयों में हिन्दी द्वारा लिखे गये आवेदन पत्रों पर अधिकारियों की टिप्पणी अंग्रेजी भाषा में ही देखी जा सकती है, जबकि हिन्दी में अधिक से अधिक प्रयोग किये जाने का संदेशपट उस अधिकारी की मेज या सामने की दीवार पर टंगे अवश्य मिल जायेंगे। इस दोहरेपन ने हिन्दी को राष्ट्रीय सरोकार से दूर ही अभी तक रखा है।
प्रतिवर्ष जैसे-जैसे हिन्दी दिवस की तिथि नजदीक आती है, हिन्दी के प्रति चारों तरफ उमड़ता प्यार दिखाई देने लगता है। जगह-जगह हिन्दी को अपनाने के लिये रंग-बिरंगे संदेशात्मक पैमाने नजर आने लगते हैं। प्रतियोगिताओं का दौर चल पड़ता है। भाषण-गोष्ठियां, कवि सम्मेलन आदि-आदि अनेक गतिविधियां इस दौरान सिकय हो उठती है। पुरस्कारों की लड़ी लग जाती है। कहीं सप्ताह तो कहीं पखवाड़ा! पूरा देश हिन्दीमय लगने लगता है। पर जैसे ही हिन्दी दिवस की विदाई होती है, हिन्दी की आगामी हिन्दी दिवस तक के लिये विदाई हो जाती है। सबकुछ पूर्वत: यथावत् स्थिति में सामान्य गति से संचालित होने लगता है। जबकि आज हम विश्व में हिन्दी की बात करते नजर आ रहे हैं। इस कड़ी में द्वितीय विश्व हिन्दी सम्मेलन के तत्काल आयोजित दौर को देखा जा सकता है। देश से अनेक इस सम्मेलन के आधार पर हिन्दी के नाम विश्व यात्रा लाभ भी करके स्वदेश लौट आये हैं। पर हिन्दी के हालात पर नजर डालें तो वह वहीं है जहां इसे आयोजनों से पूर्व छोड़ा गया। प्रतिवर्ष होने वाले हिन्दी आयोजनों की सफलता का राज 60 वर्ष के उपरान्त भी अंग्रेजी के वर्चस्व के रूप में विद्यमान हैं।
हिन्दी की रोटी खाने वाले भी यहां हिन्दी को सही ढंग से आज तक उतार नहीं पाये हैं। जिसके कारण हिन्दी अधिकारी का परिचय हिन्दी अफसर के रूप में बदल गया है। हिन्दी से प्रेम दर्शाने वालों के बच्चे अंग्रेजी माध्यम के कॉन्वेन्ट स्कूल में तो पढ़ते ही हैं, पत्नी को मैडम और बच्चों का टिंकू नाम से संबोधित करते हुए सुबह-सुबह अंग्रेजी का अखबार पढ़ते हुए गुड मार्निंग के साथ चाय के रसास्वादन लेते हुए इन्हें आसानी से देखा जा सकता है। मुझे हिन्दी से प्यार है, कहते हुए इन्हें संकोच नहीं होता, परन्तु हिन्दी बोलने में इन्हें संकोच होता है। देश की स्वाधीनता के 60 वर्ष बाद भी अंग्रेजी के मोहजाल से इस तरह के लोग नहीं निकल पाये हैं। इनके लिबास, रहन-सहन, बोलचाल एवं परिवेश भी वहीं है, जो आजादी से पूर्व थे बल्कि इसमें वृध्दि ही होती जा रही है।  इस तरह के परिवेश में बच्चों से बाबूजी, मां शब्द सुनने के बजाय पापा, मम्मी, डैडी, अंकल शब्द की गूंज सुनाई देती है। इस तरह के लोगों को चाचाजी, मामाजी कहते संकोच तो होता ही है, दादा-दादी की उम्र के लोगों को अंकल, आंटी कहते हुए जरा भी हिचक नहीं होती। अब यही इनकी संस्कति बन चुकी है। इन्हें दोहरेपन में जीने की आदत और सफेद झूठ बोलने की लत सी पड़ गई है। इनका जहां गुड मार्निंग से सूर्योदय होता है तो गुड इवनिंग से सूर्यास्त। निशा की गोद में सोये-सोये इस तरह के इंसान बुदबुदाते रहते हैं गुड नाईट-गुड नाईट। किसी के पैर पर इनका पैर पड़ जाये तो सॉरी, इन्हें गुस्सा आये तो नॉनसेंस, गेट आऊट, इडियट आदि-आदि की ध्वनि इनके मुख से जब निकलती हो तो कैसे कोई कह सकता है, ये उस देश के वासी हैं जिस देश की 90 प्रतिशत जनता हिन्दी जानती समझती एवं बोलती है। जिस देश की राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी को मान्यता दी गई हो।
यह बात यहीं तक सीमित नहीं है। सरकारी कार्यालय हो या निजी आवास, किसी अधिकारी का कार्यालय हो या घर, प्राय: हर जगह दीवारों पर चमचमाते अंग्रेजी के सुनहरे पट तथा गर्द खाते राष्ट्रभाषा के प्रचार-प्रसार में लगे टूटे-फूटे पुराने पट आज भी दिख जायेंगे। जो हिन्दी के प्रति दोहरेपन की जी रही जिन्दगी के आभास आसानी से दे जाते हैं। इसी कारण आम आदमी यहां का अपनी संस्कति व सभ्यता से कोसों दूर होता जा रहा है। इस बदलते परिवेश में बाप-बेटे, गुरू-शिष्य के रिश्तों में अलगाव की बू आने लगी है। अनुशासन नाम की कोई चीज ही नहीं रह गई है। आज यहां अंग्रेजी के दो-चार शब्द बोल देना बुध्दिमत्ता की पहचान बन गई है। अंग्रेजी आती हो या नहीं, इसे कोई मतलब नहीं। अंग्रेजी का अखबार मंगाना फैशन सा हो गया है। घर के सामने अंग्रेजी में ही सूचना एवं नाम की पट्टिका प्राय: देखी जा सकती है। हिन्दी में दिये गये तार, संदेश भी रोमन लिपि में भेजे जाते हैं। इस तरह के दोहरेपन की स्थिति ने हिन्दी के विकास को लचीलापन बनाकर रख दिया है। तुष्टिकरण की नीति से कभी भी हिन्दी का विकास यहां संभव नहीं दिखाई देता। हिन्दी हमारी दोहरी मानसिकता का शिकार हो चुकी है। जिसके कारण यह राष्ट्रीय स्वरूप को उजागर कर पायेगी, कह पाना मुश्किल है। राष्ट्रभाषा राष्टª की आत्मा होती है। जब सभी भारतवासी दोहरी मानसिकता को छोड़कर राष्ट्रभाषा हिन्दी को अपने जीवन में अपनाने की शपथ लें तभी सही मायने में हिन्दी का राष्ट्रीय स्वरूप उजागर हो सकेगा।