Friday, September 5, 2008

दोहरी मानसिकता की शिकार है हिन्दी

हर देश की अपनी एक भाषा होती है जिसमें पूरा देश संवाद करता है। जिसके माध्यम से एक दूसरे को पहचानने व समझने की शक्ति मिलती है। जो देश की सही मायने में आत्मा होती है। परन्तु 60 वर्ष की स्वतंत्रता उपरान्त भी हमारे देश की सही मायने में कोई एक भाषा नहीं बन पाई है। जिसमें पूरा देश संवाद करता हो। आज भी वर्षों गुलामी का प्रतीक अंग्रेजी भाषा का वर्चस्व ही सभी ओर हावी है। जबकि स्वाधीनता उपरान्त सर्वसम्मति से हिन्दी को भारतीय गणराज्य की राष्ट्रभाषा के रूप में संविधान के तहत मान्यता तो दे दी गई पर सही मायने में आज तक दोहरी मानसिकता के कारण इसका राष्ट्रीय स्वरूप उजागर नहीं हो पाया है। आम जनमानस के प्रयोग की बात कौन करे, जब इस देश की सर्वोच्च संसद में ही इसकी मान्यता का सही स्वरूप उजागर नहीं दिखाई देता। संसद में आज भी अंग्रेजी का वर्चस्व हावी है। देश की जनता द्वारा चुने गये उन जनप्रतिनिधियों को भी जिन्हें हिन्दी अच्छी तरह आती है, सामान्य संवाद/संसदीय प्रश्नोत्तरकाल में अंग्रेजी का प्रयोग धड़ल्ले से करते हुए देखा जा सकता है। जिनकी चुनावी भाषा अंग्रेजी कभी नहीं रही, वे भी धड़ल्ले से अंग्रेजी का प्रयोग करते कभी नहीं हिचकिचाते। इसे विडम्बना ही कहे कि जिस देश की संसद की मान्यता प्राप्त जो भाषा है, वही अपने ही घर में उपेक्षित हो रही है। देश की संसद जो अस्मिता की प्रतीक है, वहां जनप्रतिनिधियों द्वारा अंग्रेजी में किये जा रहे वार्तालाप की गूंज आजादी के किस स्वरूप को उजागर कर पाती है, इस स्वरूप को देखकर इसे भारतीय संसद कह पाना कहां तक संभव होगा, विचारणीय है। आज भी कार्यालयों में हिन्दी द्वारा लिखे गये आवेदन पत्रों पर अधिकारियों की टिप्पणी अंग्रेजी भाषा में ही देखी जा सकती है, जबकि हिन्दी में अधिक से अधिक प्रयोग किये जाने का संदेशपट उस अधिकारी की मेज या सामने की दीवार पर टंगे अवश्य मिल जायेंगे। इस दोहरेपन ने हिन्दी को राष्ट्रीय सरोकार से दूर ही अभी तक रखा है।
प्रतिवर्ष जैसे-जैसे हिन्दी दिवस की तिथि नजदीक आती है, हिन्दी के प्रति चारों तरफ उमड़ता प्यार दिखाई देने लगता है। जगह-जगह हिन्दी को अपनाने के लिये रंग-बिरंगे संदेशात्मक पैमाने नजर आने लगते हैं। प्रतियोगिताओं का दौर चल पड़ता है। भाषण-गोष्ठियां, कवि सम्मेलन आदि-आदि अनेक गतिविधियां इस दौरान सिकय हो उठती है। पुरस्कारों की लड़ी लग जाती है। कहीं सप्ताह तो कहीं पखवाड़ा! पूरा देश हिन्दीमय लगने लगता है। पर जैसे ही हिन्दी दिवस की विदाई होती है, हिन्दी की आगामी हिन्दी दिवस तक के लिये विदाई हो जाती है। सबकुछ पूर्वत: यथावत् स्थिति में सामान्य गति से संचालित होने लगता है। जबकि आज हम विश्व में हिन्दी की बात करते नजर आ रहे हैं। इस कड़ी में द्वितीय विश्व हिन्दी सम्मेलन के तत्काल आयोजित दौर को देखा जा सकता है। देश से अनेक इस सम्मेलन के आधार पर हिन्दी के नाम विश्व यात्रा लाभ भी करके स्वदेश लौट आये हैं। पर हिन्दी के हालात पर नजर डालें तो वह वहीं है जहां इसे आयोजनों से पूर्व छोड़ा गया। प्रतिवर्ष होने वाले हिन्दी आयोजनों की सफलता का राज 60 वर्ष के उपरान्त भी अंग्रेजी के वर्चस्व के रूप में विद्यमान हैं।
हिन्दी की रोटी खाने वाले भी यहां हिन्दी को सही ढंग से आज तक उतार नहीं पाये हैं। जिसके कारण हिन्दी अधिकारी का परिचय हिन्दी अफसर के रूप में बदल गया है। हिन्दी से प्रेम दर्शाने वालों के बच्चे अंग्रेजी माध्यम के कॉन्वेन्ट स्कूल में तो पढ़ते ही हैं, पत्नी को मैडम और बच्चों का टिंकू नाम से संबोधित करते हुए सुबह-सुबह अंग्रेजी का अखबार पढ़ते हुए गुड मार्निंग के साथ चाय के रसास्वादन लेते हुए इन्हें आसानी से देखा जा सकता है। मुझे हिन्दी से प्यार है, कहते हुए इन्हें संकोच नहीं होता, परन्तु हिन्दी बोलने में इन्हें संकोच होता है। देश की स्वाधीनता के 60 वर्ष बाद भी अंग्रेजी के मोहजाल से इस तरह के लोग नहीं निकल पाये हैं। इनके लिबास, रहन-सहन, बोलचाल एवं परिवेश भी वहीं है, जो आजादी से पूर्व थे बल्कि इसमें वृध्दि ही होती जा रही है।  इस तरह के परिवेश में बच्चों से बाबूजी, मां शब्द सुनने के बजाय पापा, मम्मी, डैडी, अंकल शब्द की गूंज सुनाई देती है। इस तरह के लोगों को चाचाजी, मामाजी कहते संकोच तो होता ही है, दादा-दादी की उम्र के लोगों को अंकल, आंटी कहते हुए जरा भी हिचक नहीं होती। अब यही इनकी संस्कति बन चुकी है। इन्हें दोहरेपन में जीने की आदत और सफेद झूठ बोलने की लत सी पड़ गई है। इनका जहां गुड मार्निंग से सूर्योदय होता है तो गुड इवनिंग से सूर्यास्त। निशा की गोद में सोये-सोये इस तरह के इंसान बुदबुदाते रहते हैं गुड नाईट-गुड नाईट। किसी के पैर पर इनका पैर पड़ जाये तो सॉरी, इन्हें गुस्सा आये तो नॉनसेंस, गेट आऊट, इडियट आदि-आदि की ध्वनि इनके मुख से जब निकलती हो तो कैसे कोई कह सकता है, ये उस देश के वासी हैं जिस देश की 90 प्रतिशत जनता हिन्दी जानती समझती एवं बोलती है। जिस देश की राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी को मान्यता दी गई हो।
यह बात यहीं तक सीमित नहीं है। सरकारी कार्यालय हो या निजी आवास, किसी अधिकारी का कार्यालय हो या घर, प्राय: हर जगह दीवारों पर चमचमाते अंग्रेजी के सुनहरे पट तथा गर्द खाते राष्ट्रभाषा के प्रचार-प्रसार में लगे टूटे-फूटे पुराने पट आज भी दिख जायेंगे। जो हिन्दी के प्रति दोहरेपन की जी रही जिन्दगी के आभास आसानी से दे जाते हैं। इसी कारण आम आदमी यहां का अपनी संस्कति व सभ्यता से कोसों दूर होता जा रहा है। इस बदलते परिवेश में बाप-बेटे, गुरू-शिष्य के रिश्तों में अलगाव की बू आने लगी है। अनुशासन नाम की कोई चीज ही नहीं रह गई है। आज यहां अंग्रेजी के दो-चार शब्द बोल देना बुध्दिमत्ता की पहचान बन गई है। अंग्रेजी आती हो या नहीं, इसे कोई मतलब नहीं। अंग्रेजी का अखबार मंगाना फैशन सा हो गया है। घर के सामने अंग्रेजी में ही सूचना एवं नाम की पट्टिका प्राय: देखी जा सकती है। हिन्दी में दिये गये तार, संदेश भी रोमन लिपि में भेजे जाते हैं। इस तरह के दोहरेपन की स्थिति ने हिन्दी के विकास को लचीलापन बनाकर रख दिया है। तुष्टिकरण की नीति से कभी भी हिन्दी का विकास यहां संभव नहीं दिखाई देता। हिन्दी हमारी दोहरी मानसिकता का शिकार हो चुकी है। जिसके कारण यह राष्ट्रीय स्वरूप को उजागर कर पायेगी, कह पाना मुश्किल है। राष्ट्रभाषा राष्टª की आत्मा होती है। जब सभी भारतवासी दोहरी मानसिकता को छोड़कर राष्ट्रभाषा हिन्दी को अपने जीवन में अपनाने की शपथ लें तभी सही मायने में हिन्दी का राष्ट्रीय स्वरूप उजागर हो सकेगा।

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