Friday, September 12, 2008

सुविधाएं बनी जी का जंजाल

विकास की ओर अग्रसर होना चैतन्य मानवीय दृष्टिकोण तो है पर जैसे-जैसे हमारे पग विकसित दिशा की ओर बढ़ते चले जा रहे हैं, आलस्य, लापरवाही, विलासी जैसी अनेक अप्रासंगिक प्रवृत्तियों के घेरे में हम स्वत: कैद होते जा रहे है। जिसके प्रतिफल स्वरूप जीवन को असंतुलित करने वाली अनेक प्रकार की घातक बीमारियों के चंगुल में हम धीरे- धीरे फंसते जा रहे हैं। परिणामत: विकास के तहत अनेक प्रकार की सुख सुविधाओं के संसाधन बटोरकर भी सुखी जीवन से आज कोसों दूर खड़े हैं। इस परिवेश को विस्तृत रूप से जानने के लिए विकास की दिशा में बढ़ते कदम से बटोरी गई सम्पदाएं एवं उसके उपभोग को परखा जाना अति आवश्यक है। इस दिशा में प्राचीन काल के आईने में देखा जाना वास्तविकता के करीब माना जा सकता है।
प्राचीन काल में गेहूं से आटा बनाने की घर-घर में चक्की हुआ करती थी, चावल कुटाई के ओखल से लेकर घरेलू दैनिक प्रयोग में आने वाले ऐसे अनेक संसाधन होते थे जिनसे शारीरिक श्रम का होना स्वत: स्वाभाविक था, जिससे नारी वर्ग का स्वास्थ्य सदा एकदम चुस्त एवं दुरूस्त स्वरूप में देखा जा सकता। आज हर घर में आटे की चक्की, कुटाई की ओखल, मसाले पीसने की सिलवटी शरीर को चुस्त-दुरूस्त रखने वाले संसाधन गायब हो चले हैं, जिसकी जगह विकास की दिशा में बढ़ते कदम से प्राप्त आज आधुनिक संसाधन उपलब्ध हो चले हैं, जहां शारीरिक श्रम का होना कतई संभव नहीं। इस क्रिया को करने के लिए आज हमारे कदम व्यायामशाला की ओर अवश्य बढ़ चले हैं जहां व्यायाम के माध्यम से उपरोक्त संसाधन से जनित श्रम की अपेक्षा की जा रही है। कुछ इसी तरह यातायात की दिशा में बढ़े कदम ने भी कुछ इस तरह पंगु बना दिया है, जहां दो कदम की यात्रा भी सहारा ढूंढती नजर आ रही है। ऑफिस से लेकर हाट-बाजार एवं रिश्तेदारों से मिलने का क्रम भी सहारा ढूंढता नजर आने लगा है। जिसके कारण घुटनों का दर्द, शुगर, ब्लड प्रेशर जैसे अनेक खतरनाक बीमारियों के चंगुल में हम फंसते जा रहे हैं परन्तु विकास के नाम दिखावे की जिन्दगी से अपने आपको अलग नहीं कर पा रहे हैं। यातायात की दिशा में बढ़े कदम ने हमें इस कदर आलसी एवं सुविधाभोगी बना दिया है जहां सुख बटोरने की जगह दु:ख को बटोरते जा रहे हैं। शुध्द वातावरण की जगह दूषित वातावरण्ा जनित श्वांस लेकर घुट-घुट कर जीना सीख लिया हैं। महानगर की जिन्दगी जहां सड़क छोटी होती जा रही है, कितनी कष्टदायी है, देखा जा सकता है जहां से हर गुजरने वाला दु:खी तो है, पर मौन है। विश्व का जनसंख्या में सबसे बड़े देश चीन में विकास की दिशा में बढ़े कदम को देखा जा सकता है जहां आज भी यातायात में साईकिल की प्रधानता बनी हुई है। इस परिवेश ने चीन को प्रदूषण मुक्त रखने के साथ-साथ शारीरिक श्रम से भी वहां के जनजीवन को जोड़ रखा है। यहां तो मार्निंग वाक से जुड़ा प्रसंग सड़क को लीलने के साथ-साथ जीवन को ग्रास बनाता जा रहा है तथा आज आधुनिकता के नाम सुख की जगह दु:ख को बटोरने की परंपरा प्रगति के नाम जारी है। इस बदले परिवेश ने जो वातावरण को दूषित कर रखा है, इसका साक्षात् स्वरूप यहां देखा जा सकता है। अर्थ एवं ऐश्वर्य के पीछे-पीछे भागते लोगों के जीवन में सुख केवल कल्पना मात्र बनकर रह गया है। सामने छप्पन प्रकार के भोगों से सजी थाली है, जीभ लपलपा रही है, मन तरस रहा है उसका उपभोग करने को पर अनेक प्रकार की व्याधियों से ग्रस्त शरीर उसे ग्रहण करने के काबिल नहीं रहा। आखिर वह धन एवं ऐश्वर्य ही किस काम का, जिसका उपभोग न किया जा सके। विकास के नाम आधुनिकता से जुड़े हर जीवन की प्राय: यही व्यथा भरी घटना है।
विकास के नाम बटोरी गई आधुनिक सुविधाओं से हमारी जिन्दगी को इस तरह काहिल बना दिया है जिसके चलते सभी मानसिक तनाव के शिकार होने लगे हैं। सफर में बस खराब हो जाय, ट्रेन रूक जाय, पंखे, मोबाईल, कम्प्यूटर चलते-चलते बंद हो जाय, टेलीफोन आदि काम न करें तो मत पूछिये, हालात के बारे में, आम उपभोक्ता जल्द ही डीप्रेशन का शिकार होकर दु:खी हो जाता है। इस तरह की परिस्थितियां आधुनिक विकास युग जनित सुविधाओं की देन है जहां पूर्व की भांति शारीरिक श्रम की क्षमता क्षीण हो चली है। जिसके चलते आज हम अनेक तरह की बीमारियों को गले लगा कर असुरक्षित जिन्दगी जी रहे हैं। सुविधाएं सुखी जीवन के बजाय जी का जंजाल बनती जा रही है। विकास के रास्ते मनुष्य ने विनाश के संसाधन भी बटोर लिए हैं। शारीरिक श्रम के हृास होने होने से मानसिक तनाव के साथ-साथ कुत्सित विचार भी जनित होने लगे हैं जो सभी के लिए घातक है। इतिहास के आइने में झांककर घटित घटनाओं पर एक विहंगम दृष्टि डालकर सबकुछ आसानी से देखा जा सकता है। रामायण, महाभारत एवं आधुनिक युग की नागासाकी परमाणु विस्फोट की घटनाएं विकास के किस रूप को परिभाषित कर पा रही हैं, विचारणीय पहलू है। आज के मानव ने भी विकास के तहत मौत के संसाधन ज्यादा पैदा कर लिए हैं। कब कहां धमाका हो जाय, चलता जीवन कब थम जाय, आज के विकसित युग में कह पाना मुश्किल है।
 -स्वतंत्र पत्रकार, डी-9, IIIए, खेतड़ीनगर-333504 (राज.)

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