Saturday, June 19, 2010

अनोखे तीर

वे लेते हैं तो देते भी ,
इसलिए पकड़ें नहीं जाते ।
वे लेते हैं तो देते नहीं ,
इसलिए पकड़ लिए जाते।
वे न लेते हैं न देते हैं,
इसलिए परेशां किये जाते हैं।
सदियों से गड़ा शिलान्यास का पत्थर ,
बन गया वही अब रास्ते का पत्थर ।
फाइलों के पर अब झरने लगे हैं,
रास्ते में है अभी बहुत से दफ्तर ।
अंधे को आँख क्या मिली ,
सूरज से बातें करने लगा ,
परिणाम यह हुआ ,
वह फिर से अंधा हो गया ।
पान खाने का अर्थ नहीं ,
कि आसमां पर थूको ,
पीकदान तुम्हारे पास है,
अपनी हैसियत मत भूलो ।
कल थोड़ी सी जगह मांगी ,
सिर छुपाने के लिए ।
आज वे अन्दर ,
मैं बाहर ।
जब तक जिंदे थे ज़नाब,
उन्हें दूध भी देने आये नहीं,
मर गए तो उनके क़ब्र पर ,
मक्खन आज लगा रहे हैं .
जिस जगह छाया सन्नाटा मौत का,,
उस जगह आदमी अब क्या करेगा?
दब गयी पैरौं तले जहाँ हर कली,
बाग़ का माली बेचारा क्या करेगा ?
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Wednesday, June 16, 2010

कहानी

डॉक्टर
सुबह की डाक में सुरेश को एक पत्र मिला ,जिस पर लिखा था''डॉ. सुरेश'' । रातों रात वह सुरेश से डॉ.सुरेश कब और कैसे हो गया ,समझ नहीं पाया । वह पत्र खोलकर पढने लगा तो मन ही मन प्रफुल्लित हो उठा । उसे एक साहित्यिक समारोह में भाग लेना था ,जहां उसे विद्यावाचस्पति (पी .एच .डी .)की उपाधि से सम्मानित किया जाना था । यह उपाधि प्रतिवर्ष क्षेत्र की चर्चित साहित्यिक संस्था द्वारा साहित्य के क्षेत्र में की जा रही विशिष्ट सेवाओं के लिए साहित्यकारों को प्रदान की जाती रही है ,यह वह भली भांति जानता था । वह यह भी जानता था कि इस तरह कि उपाधि पाकर क्षेत्र के अनेक साहित्यकार बड़े शौक से अपने नाम के पूर्व डॉ.लगाया करते थे । अब वह भी अपने नाम के पूर्व उन्हीं लोगो कि तरह डॉ. लगा सकेगा । यह जानकार उसे मन ही मन अति प्रसन्नता हुई । इस उपाधि के लिए उसने मन ही मन साहित्यिक संस्था का आभार वयक्त किया ,जिसने उसे रातों -रात सुरेश से डॉ.सुरेश बना दिया ।
वह अच्छी तरह यह भी जानता था कि डॉ.शब्द का प्रयोग अपने नाम से पूर्व वही कर सकता है ,जिसने चिकित्सा क्षेत्र में शिक्षा हासिल की हो या फिर किसी विषय में विशेष अनुसंधान कार्य किया हो । उसे न तो चिकित्सा क्षेत्र में किसी तरह का ज्ञान हासिल था ,न ही किसी विषय में उसने कोई अनुसंधान कार्य किया था ,फिर भी उसे यह पदवी मिल गई । वह मन ही मन सोचने लगा कि देश में ऐसे अनेक लोग भी है , जिन्होंने चिकित्सा के क्षेत्र में किसी भी तरह की शिक्षा प्राप्त नहीं की तथा किसी विषय में अनुसंधान कार्य नहीं किया ,फिर भी धड़ल्ले से अपने नाम के पूर्व डॉ.की पदवी लगाकर घूमते -फिरते है।वह यह भी जानता था कि पैसे के बल पर विश्वविद्यालयों से ऐसे लोग भी इस पदवी को प्राप्त कर अपने नाम के पूर्व शौक से डॉ.लगा रहे है ,जिन्हें विषय का ज्ञान ही नहीं ,अनुसंधान तो दूर की बात है ।
वह ऐसे लोगों को भी जानता था ,जो किसी चिकित्सक के यहाँ सहायक के रूप में काम करते है , वे भी डॉ.के नाम से पुकारे जाने लगे थे । इस तरह की श्रेणी में ऐसे लोग भी शामिल थे ,जो अपने प्रोफेसर के आगे -पीछे घूमकर इस दक्षता को हासिल कर अपने नाम के पूर्व डॉ.लगाने लगे थे । उन लोगों से वह अपने आप को कहीं बहुत अच्छा मानता था ,जो एक शब्द भी नहीं लिखकर अपने नाम से पूर्व डॉ.लगाये घूमते फिर ही नहीं रहे थे ,बल्कि इस पदवी के आधार पर रोजगार भी कर रहे थे । वह तो धड़ल्ले से छपता है ,लिखता है ,फिर क्यों नहीं अपने नाम से पूर्व डॉ.शब्द का प्रयोग करे । भले ही साहित्यिक संस्था द्वारा यह मानद उपाधि मिली हो पर अन्य लोगों से वह अपने आपको बेहतर मानने लगा था ।
संस्था द्वारा उपाधि पाकर सुरेश फूला ही नहीं समाया बल्कि डॉ.सुरेश के नाम से चर्चित भी हो चला । अब उसकी रचनाएं भी इसी नाम से प्रकाशित होने लगी थी । डॉक्टरों की महफिल में भी वह बैठने लगा था और उसे भी लोग डॉक्टर नाम से सम्बोधित करने लगे थे । इसकी गूंज उसके गाँव तक भी पहुँच गई थी । जब वह गाँव पहुंचा तो दो -चार मरीज इलाज के लिए भी आ गए ,तब उसे बताना पड़ा कि वह वो डॉक्टर नहीं है ,जो उनका इलाज कर सके । उसे तो साहित्य की सेवा के लिए यह उपाधि मिली है । गाँव वाले भला क्या जानें इस प्रसंग को ,उनकी नजर में तो डॉक्टर वही है ,जो इलाज करता हो ।
डॉ.सुरेश को धीरे -धीरे गहरी पैठ होती जा रही थी । उसका साहित्यिक समारोह में जाने का सिलसिला तो पुराना था ही , अब वह विशेष रूप से आमंत्रित किया जाने लगा । किसी कार्यक्रम की अध्यक्षता करनी हो तो डॉ.सुरेश का नाम पहले प्रस्तावित होता । और तो और ,अब वह मुख्य अतिथि के रूप में भी बुलाया जाने लगा था । विद्यालयों,महाविद्यालयों ,साहित्यिक संस्थाओं के हर साहित्यिक कार्यक्रमों में डॉ.सुरेश की चर्चा विशेष रूप से रहती। अब वह क्षेत्र का ही नहीं ,देश के साहित्यकारों में भी चर्चित होने लगा था ।
एक बार एक साहित्यिक समारोह में किसी ने उससे पूछ ही लिया ,"डॉक्टर साहब ,आपकी रिसर्च का विषय क्या रहा है ?"
अनायास ही इस प्रश्नको सुनकर कुछ देर के लिए तो वह स्तब्ध एवं चकित हो गया ,परन्तु तुरंत ही अपने आप को सम्भालते हुए बोल पड़ा कि उसे तो यह उपाधि साहित्यिक क्षेत्र में किए गए विशेष कार्यो के लिए मिली है ।
इसके बाद सुरेश को अपनी बिरादरी से अलग समझते हुए उसने उससे तत्काल जो दूरी बना ली ,इस बात को सुरेश की पारखी नजर ने तुरंत भांप लिया था मगर वह करता भी क्या ?
इस तरह के प्रसंग पर अनेक बार उसे मौन होना पड़ा । इस डॉक्टर शब्द से उसे धीरे -धीरे एलर्जी होने तो लगी ,परन्तु इसके मोहजाल में फंसा सुरेश अपने आपको इससे अलग नहीं कर पाया । जब कभी वह अपने आपको डॉक्टर शब्द से अलग करने की मानसिक रूप से कोशिश करता तो उसे डॉक्टर शब्द से सम्बोधित कर आसपास से गुजरते लोग उसकी सुसुप्त भावना को फिर से जगा देते ।
एक बार उसके "डॉक्टर "उपाधि के प्रयोग पर प्रश्नचिन्ह भी लग गया ,जब रेल यात्रा के दौरान मध्य रात्रिकाल में टी .टी.ने एक बेहोश हुए यात्री के इलाज के लिए उसे जगाया था । तब उसे वहां भी यह कहना पड़ा कि वह चिकित्सा क्षेत्र का डॉक्टर नहीं है , बल्कि उसे तो साहित्य सेवा के लिए यह उपाधि मिली है । आरक्षण लेते समय फार्म पर डॉक्टर प्रकोष्ठ में सुरेश ने टिक लगाते हुए आरक्षण फार्म पर भी अपना नाम बड़े गर्व से डॉ.सुरेश लिख दिया था । यही प्रयोग उसके लिए इस तरह के प्रश्नों के बीच घिर जाने का कारण बना । वह यह नहीं जानता था कि यह प्रयोग केवल चिकित्सा क्षेत्र के लोगों के लिए ही है ,जो आपातकाल में रेलयात्रा के दौरान अपनी सेवा दे सकें ।
इस तरह वह "डॉक्टर "प्रयोग के बीच उलझता रहा और अपने आपको अलग करने का प्रयास भी करता रहा ,परन्तु इस मोहजाल से निकल नहीं पाया । अब वह डॉक्टर नहीं होते हुए भी पूर्ण रूप से इसकी मान्यता पा चुका था । यदि वह अपने नाम के साथ इसे नहीं भी जोड़ता तो लोग जोड़ देते । अब उसकी जिन्दगी स्वयं में अपने आप डॉक्टर बन चुकी थी ,जिससे अलग हो पाना उसके लिए नामुमकिन था ।

Tuesday, June 15, 2010

काव्य संसार

मकड़ जाल
उलझे हुए बालों को
सुलझाते -सुलझाते
एक दिन कंघी
खुद ही उलझ गई ।
भूल गई
चिरकाल से
चले आ रहे आत्मीय सम्बन्ध ।
कटुता पैदा हो गई
और बेचारी फंस गई
तड़पती मीन की तरह
बेमेल संगम के बीच ।
कभी आगे /कभी पीछे
कभी बीच से
निकलने का प्रयास तो करती
परन्तु निकल न पाई ।
टूट गए उसके दांत
आपसी संघर्ष में ।
फिर भी हिम्मत न हारी
तोड़ती रही एक -एक करके
अभेद द्वार ।
और एक दिन
वह भी मार दी गई
षड्यंत्रों के बीच
निर्दोष अभिमन्यु की तरह
हासिएं पर ।
मगरमछी आसुओं के बीच
निकाली गई उसकी
बेजान शव -यात्रा ।
निकट के संबंधियों ने
शोक में
एक दिन का मौन व्रत भी लिया
और फिर से
जुट गए सभी तलाश में
नई कंघी की खोज में ।
जो संवार सके
संभाल सके
उलझने पर
सुलझा सके ।
नये रिश्ते की
इस डोर में है
आश्वासन भी
प्रलोभन भी
और साथ में है
मकड़ -जाल ।
जहां उसे भी
समय आने पर
काम न आने पर
मार दिया जायेगा ।

Sunday, June 13, 2010

काव्य संसार

एक तंत्र
जहां एक ही राजा राज करे , वहां प्रजातंत्र का क्या होगा ?
शासक शोषक जब बन जाये, फिर आम प्रजा का क्या होगा ?
जिनका कोई अस्तित्व रहा , उन पर अब भरोसा क्या होगा ?
अनपढ़ देता उपदेश जहां ,
अन्धा बन जाए नरेश जहां ,
दल बदलू का परिवेश जहां ,
हर रोज बदलते वेष जहां ,
पल-पल पनपता क्लेश जहां ,
आपस में रहता द्वेष जहां ,
आमद पर हावी ऐश जहां ,
घाटे में रहता शेष जहां ,
जिस जगह ऐसी हालत हो ,
उसका भविष्य अब क्या होगा ?
शासक शोषक ----------------------------------क्या होगा ?
शोषण करना अधिकार जहां ,
बन जाए जुल्म श्रृंगार जहां ,
मिलती हर पल दुत्कार जहां ,
हंटर करता सत्कार जहां ,
अन्याय पूर्ण व्यवहार जहां ,
मानवता की फटकार जहां ,
दबती जाए चीत्कार जहां ,
उभरे न कभी हुंकार जहां ,
जिस देश की ऐसी हालत हो ,
मजदूरों का अब क्या होगा ?
शासक शोषक ------------------------------क्या होगा ?
लगता माया बाजार जहां ,
काले धन का व्यापार जहां ,
हेरा -फेरी हो आधार जहां ,
जहरीला हर आहार जहां ,
कलुषित हर एक विचार जहां ,
मतलब के है सब यार जहां ,
पलता रहे गुनाहगार जहाँ
बने तस्कर कर्णधार जहां ,
जिस देश की ऐसी हालत हो ,
शराफत का अब क्या होगा ?
शासक शोषक -----------------------------------क्या होगा ?
नशीला आम दरबार जहां ,
रंगीला है कारोबार जहां ,
रहता हो नम्बरदार जहां ,
ऐयाशियों की भरमार जहां ,
वासना का उठता ज्वार जहां ,
बढ़ता जाये व्यभिचार जहां ,
छल जाता हो श्रृंगार जहां ,
जिस देश की ऐसी हालत हो ,
अबलाओं का अब क्या होगा ?
शासक शोषक --------------------------------क्या होगा ?
है सही नहीं आचार जहां ,
जी हाँ जी हाँ सरकार जहां ,
पक्षपात चयन का सार जहां,
सौतेला सा व्यवहार जहां ,
अंगूठा टेक सरकार जहां ,
सब पढ़ा लिखा बेकार जहां ,
बढती जाए बेगार जहां ,
चमचो का हो विस्तार जहां ,
जिस देश की हालत ऐसी हो ,
सच्चाई का अब क्या होगा ,
शासक शोषक ------------------------------क्या होगा ?









Saturday, June 12, 2010

काव्य संसार

लोकतंत्र

लोकतंत्र की बिगड़ी काया , प्रजातंत्र की अजब कहानी ,
जनता के शासन में अब भी , शासन करते राजा -रानी।
साक्षी है इतिहास देश का , बदले हुए हर परिवेश का ,
जिसने ज्यादा जो भर माया , उसने ही यहाँ राज चलाया ।
जिसकी लाठी उसी की भैंस , चरितार्थ रही यही कहानी ,
जनता के शासन ---------------------------------राजा-रानी ।
कोई नहीं यहाँ नेक है ,जहां पक्ष - विपक्ष दोनों एक है ,
बंदर बाँट सब कर रहे है , पूरे देश को चर रहे है ।
इनके कर्मो से ही सुखा , झरना -नदियों का सब पानी ,
जनता के शासन ------------------------------राजा-रानी ।
पढे -लिखे सब हुए बेकार, अनपढ़ की बन गई सरकार ,
जंगल में जो घूम रहे है ,वे संसद में दिख रहे है ।
लुट रहे दोनों हाथों से , कर रहे अपनी मनमानी ,
जनता के शासन------ ------------------------राजा -रानी ।
नकली- असली दिख रहा है, किस्मत सबकी लिख रहा है ,
अंधे के हाथ लगा बटेर , बगुला करता हेर -फेर ।
मिलावट जो क्रम जारी , उल्टा पाठ पढे अब ज्ञानी ,
जनता के शासन -------------------------राजा - रानी ।
भोली भाली जनता सारी , फँस गई अब तो बेचारी ,
फैल रहा ऐसा व्यापार , अब दिन रहा सबका अधिकार ।
मौन होकर चुप -चाप सहना , गुलामी की है यह कहानी ,
जो भी आया है शासन में , उसने की अपनी मनमानी ।
जनता के शासन में अब भी शासन करते रजा - रानी । ।
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Friday, June 11, 2010

अनोखे तीर - लघु स्वर

लघु स्वर
तन पर खादी ,
मन उग्रवादी ।
**********
तन स्वदेशी ,
मन विदेशी ।
***********
तन वैरागी ,
मन अनुरागी ।
***********
नर कंकाल ,
मालोमाल ।
**********
आकर करीब ,
बना गए गरीब ।
*************
बढाकर हाथ ,
कर बैठे घात ।
*************
बदलते रूप ,
बन गए भूप ।
************
अहिंसा के पुजारी ,
करे हिंसा की तैयारी ।
***************
पहनकर खद्दर ,
मचा रहे गद्दर ।
*************
उगलते आग ,
पहुंचाते सुराग ।
************
हाथ कंठी माला ,
घर-घर तोड़े ताला ।
**************
पहुँच गए शिखर पर ,
दल बदल बदल कर ।
***************
टूटे हुए औजार ,
धोखा देंगे यार ।
*************
आये हाथ जोड़कर ,
वापिस गए फोड़कर ।
***************
कल नमस्कार किये ,
आज फटकार दिए ।
**************
जो नशे के आदी ,
पहन रहे वे खादी ।
**************
पहले करें हलाल ,
पाछे पूछे हाल ।
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उनका ही बोलबाला ,
करते जो घोटाला ।
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पूजे जाते अक्सर ,
देश के ही तस्कर ।
**************
जिन पर नहीं लगाम ,
भेजें वे पैगाम ।
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लुट रहे है माल ,
देश के ही लाल ।
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देश से करें मक्कारी ,
सता के अधिकारी ।
***************
हेराफेरी है आधार ,
बने देश के कर्णधार ।
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सारा का सारा धन काला ,
पर है वह इज्जत वाला ।
*****************
कर दें उनके काम तमाम ,
जिनके पकडे गलत काम ।
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उल्टे -सीधे जिनके काम ,
चर्चित जग में उनके नाम ।
*****************
लगते भोला -भाला ,
करते ये घोटाला ।
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स्वर जनवादी ,
पहने मंहगी खादी ।
***************
झूठ बोले सुबह -शाम ,
हरे कृष्ण , हरे राम ।
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बसेरा ,
बन गया लुटेरा ।
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रहकर पास -पास ,
तोड़ दिया विस्वास ।
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वाह ! रे मेरे जिगर ,
न इधर न उधर ।
*************
जाएँ जिधर ,
बदल जाएँ उधर ।
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इधर उधर करते ,
अपना घर भरते ।
*************
जो केवल लेता ,
वहीँ है नेता ।
***********
देश के कर्णधार ,
कर दें आर - पार ।
*************
अधूरा प्यार ,
सिंदूर उधार ।
**********
सबसे बड़ा मर्ज ,
जीवन भर कर्ज ।
*************
लुट लिये सारे ,
जनता के दुलारे ।
*************
पहले फटकारे ,
फिर पुचकारे ।
************
नोचकर खाल ,
पूछ रहे हाल ।
***********
पूछ पूछ कर हाल ,
हों गयें मालोमाल ।
***************
पूछ कर हाल ,
कर गए कंगाल ।
***********
अनपढ़ करें रोजगार ,
पढे लिखे बेकार ।
*************
जो है अपने ख़ास ,
वे ही करें निराश ।
**************
अनपढ़ सरकार ,
करे तकरार ।
***********
जान न पहचान ,
बन गये मेहमान ।
**************
देश का सुधरे कैसे हाल ,
देशी मुर्गी ,विदेशी चाल ।
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Sunday, May 23, 2010

काव्य पुस्तक जीवन ज्योति के कुछ अंश

वास्तविक रूप
फटे चीथड़े ही लिवास में , मानवता का अंग छिपा है ,
इस मटमैले रूप में ही , मानवता का रंग छिपा है ,
भाग रहे आज कोसो दूर , जिसको अछुत समझकर ,
उसके अंदर ही मानव का असली सा स्वरुप छिपा है ।
लम्बा चौड़ा गहरा सागर ,जो तीन भाग का स्वामी है,
नहीं उसे भी है यह मालूम, उसके अन्दर रत्न छिपा है।
एक बहुत छोटी सी तीली , जो माचिस में बंद पड़ी है,
उसके अन्दर दहनशक्ति का, बहुत बड़ा भंडार छिपा है ।
एक छोटी सी जल की बूंद , नीले नभ में भटक रही है,
जिसके अन्दर विशालकाय,सागर का अस्तित्व छिपा है।
काले पत्थरों का भूगर्भ , जो अंधकार में रहता है ,
उसकेअन्दर ज्योति लिए अनमोल रत्न हीरा छिपा है ।
आज जगत में घूम रहे है ,कितने अपने वेश बदलकर ,
न जाने इन बहुरूपियों में , कैसा कैसा रूप छिपा है ।
छल करने की कला बहुत ,फिर भी ये कुछ खोज रहे हैं ,
न जाने इस बार इस दिल में , कैसा षड्यंत्र छिपा है ।
जिन्दगी और मौत
जिन्दगी और मौत दोनों ,साथ में आती नहीं ,
एक तरु की शाख ये ,मिल कभी पाती नहीं ।
जिन्दगी हंसती है तो रो लेती भी है साथ में ,
मगर मौत हंसकर के भी हंसा कभी पाती नहीं।
जिन्दगी बसंत है , बहार को संग लाती सदा,
पर मौत अपने संग बहार कभी लाती नहीं।
जिन्दगी के पास में अंधकार भी प्रकाश भी,
पर जिन्दगी अंधकार बन कभी पाती नहीं।
जिन्दगी की तड़पन भी ,मौत ने देखी सदा ,
पर उसकी आँखों में दया कभी अति नहीं ।
जिन्दगी जिज्ञासा बन , हर जगह विराजती ,
मौत किसी की जिज्ञासा बन कभी पाती नहीं ।
जिन्दगी तपभूमि है तपस्वी बन सामने दिखे ,
पर मौत इसे देखकर भी भय कभी खाती नहीं।
जिन्दगी अनल भी है , गरल भी तूफ़ान भी,
जिन्दगी सबकुछ है , मगर मौत सी छाती नहीं ।
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Monday, April 19, 2010

भरत मिश्र प्राची का काव्य संसार

डॉ भरत मिश्र प्राची की अब तक प्रकाशित दो काव्य पुस्तकें जीवन ज्योति एवं सूरज को उगने दो में संकलित कुछ रचनाएँ एवं कुछ अप्रकाशित काव्य रचनाएँ यहाँ पर दी जा रही हैं
कृपया अपनी महत्ती राय से अवश्य अवगत कराएँ ।
इसके लिए मेरे दूरभाष ०९४१४५४१३२६ या इ मेल पर सूचित
आपका
भरत मिश्र प्राची

प्रथम भाग

(१)

भोर की तलाश

गाँव की सरहदी पर सूना आकाश ,

खड़ा नहीं कोई भी पनघट के पास।

मौसम बदलने की आश लिए मन में ,

सुन्दर सी बगिया भी खड़ी हें उदास ।

शहर की चकमक में उलझे हुए पांव ,

घुटन भरी जिन्दगीं ,गिन रही साँस ।

नँगे बदन हुए नाच रहा आदमी ,

सभ्यता ,संस्कृति का हो रहा विनाश।

शुद्ध जल वायु को छोड़ दिया गाँव में ,

शहर की गंदगी में कर रहा निवास ।

बाहर से हँसता हैं , अंदर से रोता हैं ,

पहन लिया तन पर आधुनिक लिवास ।

प्राची की किरने जिसको नसीब नहीं ,

अँधेरे में हैं उसे भोर की तलाश ।

(२)

सौदागरों के बीच वतन

कोई आता हैं नहीं उजड़े चमन ,

उगते सूरज को सभी करते नमन ।

शक्ति के आगे झुकाते शीश अपने ,

खिंच लेते स्वयं ही बहते पवन ।

स्वार्थ के घेरे सभी ओर बढ़ चले ,

फेर लेते परचित भी अपने नयन ।

देखिये हर रोज बदलते चेहरे ,

जब यहाँ चलते रहते हैं सदन।

फट गये बस्तर आज उलझकर ,

घूम रहे सडक पर नँगे बदन ।

बेशर्मी की हद तो इनकी देखिये ,

हंस रहे हैं बेचकर अपने वतन ।

भूलकर के वसूल बढ़ा रहे हैं हाथ ,

सत्ता की दौड़ में सब हो रहे मगन।

चल रहा बेमेल संगम का यहाँ दौड़ ,

तख्त ताज के लिए सब हो रहे दफन।

कांप गया इमान देखकर के हालात ,

भर रहा गर्द से आज सारा गगन ।

कल उदय प्राची में होगा या नहीं ,

सौदागरों के बीच फँस गया वतन ।

(३)

घोटाला

सफेदपोश वालों का ही बोलबाला हैं ,

तन गोरा दीखता पर मन जिसका कला है।

बच नहीं पाया कोई विभाग यहाँ इनसे ,

जहाँ हाथ डालो , वहीं नया घोटाला हैं।

बदल गई परिभाषाएं अपराध की यहाँ ,

बगल में बन्दूक , हाथ कंठी माला है ।

सौदागरों के हाथ बिक रहा है यह देश ,

लुटने वाला ही अब सबका रखवाला है।

समझौता की नीतियों पर टिके है पांव ,

गिरने से नही अब कोई बचाने वाला हैं।

घूम रहे निडर हो अंगरक्षकों के साथ ,

देश में हर रोज हो रहा कांड हवाला हैं ।

संसद का हर गलियारा सशंकित है आज ,

देश पर कोई न कोई संकट आने वाला है।

कलम के सिपाही चिंतित है यह जानकर ,

हर आवाज पर अब लगाम लगने वाला है।

प्राची के साथ चिंतित है हर दिशाएं आज ,

प्रगति के नाम आज देश हो रहा दिवाला है ।

(४ )

नव वर्ष का अभिनन्दन

उजड़ रहा है हर वर्ष हमारा यह नंदन ,

देखकर हालात , मन करता है क्रंदन ।

कल्पित तन, कुंठित मन,घुटी सांसे ,

करें कैसे नववर्ष का हम अभिनन्दन।

फंसे हुए है पांव जिनके दलदल में ,

कर रहे वे ही हर जगह गठबंधन ।

फैला फरेबियों का जाल यहाँ ऐसा,

जा रहा विदेश सारा का सारा कंचन ।

हल हुई नहीं समस्या रोजी रोटी की ,

पढाई ,बीमारी में बिक रहा है कंगन ।

लुट रहे देश को यहाँ जो सरे आम ,

हो रहा हर जगह उनका अभिनन्दन।

भूलते जा रहे हर वर्ष उनको सभी ,

जिसने बचाया जान देकर यह वतन।

प्राची के मार्ग सीना ताने आज भी ,

आने को तैयार इस देश का दुश्मन ।

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(५)

घुटन

इस नगर , इस बस्ती में बसते कैसे लोग ,

चारो तरफ है धुँआ , रहते कैसे लोग।

अगल कौन है , बगल कौन न जानता कोई ,

इस अपरचित हालात को सहते कैसे लोग ।

जो भी आया पास में , अपनों सा ही लगा ,

अपने से ही ठग गये , कहते कैसे लोग ।

पग में पग फंसाकर , खेल जो खेलते रहे ,

उलझ कर फिसल गये , हँसते कैसे लोग ।

आग तेल लेकर चले दूसरों का घर जलाने ,

खुद के जल गये हाथ , अब बचते कैसे लोग।

क़त्ल जो होता रहा, सब आँख से देखते रहे,

बेजुबान हो गये , अब लड़ते कैसे लोग ।

अतिक्रमण के दौर में , सडक तो लीलते रहे ,

भटक गये डगर से ,अब चलते कैसे लोग ।

आधुनिक लिवास से पर्यावरण भूल गये ,

इस तरह के घुटन को, सहते कैसे लोग।

आस पास बना ली है , अब ऊँचे ऊँचे महल ,

प्राची के सूर्योदय को , देखते कैसे लोग ।

(६)

उगल रहे सब जहर

कट रहे वृक्ष , उजड़ रहे नगर ,

बस रहे हर रोज ,नये नये शहर।

मोटर , कल , कारखाने मिलकर,

उगल रहे हैं , सब यहाँ जहर।

अतिक्रमण के निरंकुश कदम,

अब रौंद रहे हैं डगर- डगर।

आधुनिक लिवास में लिपटा तन ,

उजाड़ रहा है अब बसा घर ।

बेरोजगारी , बीमारी , महंगाई ,

अब बढ़ने लगी यहाँ इस कदर।

परेशां हो चला हर इन्शान ,

छीन गयी नींद आठो पहर।

अहिंसा का अलख जगा रहे,

रक्त से सने हाथ तर - बत्तर।

इधर खाई , उधर है कुआं ,

जाएँ तो जाएँ आखिर किधर।

उदारीकरण का नशा आज,

फैल रहा है यहाँ इस कदर।

देश चौपट के कगार खड़ा,

विदेशी पग यहाँ रहे पसर।

अब लुटने लगे हैं हर रोज,

कैसे करें लोग यहाँ बसर ।

छीन रहे अधिकार अब सारे ,

फिर भी मौन हैं सबके अधर।

आगे उड़ न सके देश कभी ,

प्रगति के नाम काट रहे पर।

गुलामी के डगर दूर नहीं,

यदि यहीं हालात रहे अगर।

मौत को देते हैं निमंत्रण ,

काट कर पेड़ - पौधों के सर।

स्वार्थ के वशीभूत मानव ,

अब लीलता प्राची का सहर।

(७)

नव वर्ष का उपहार

आ रहा है नव वर्ष , जा रहा है गत वर्ष ,

इन मिलन की बिन्दुओं पर ,है नया उत्कर्ष।

मची हुई हा हा कार , दर्द भरी चीत्कार,

डिग्रियां लेकर यहाँ , हैं सैकड़ों बेकार।

बढ़ रही महंगाई , न घट रही बीमारियाँ ,

इन सभी को लेकर , आज हो रहा संघर्ष।

देश का है जो लाल , बन गया वहीं दलाल ,

भेज रहा विदेश में, सब देश का ही मॉल।

आयकर देता नहीं , है किसी से भय नहीं,

अंगरक्षकों के बीच , मना रहा है हर्ष ।

वायदों की कतार , जहाँ खोखले आधार ,

धोखा घडी से भरा , हर एक कारोबार ।

गर्दन पर तलवार , गठबंधन की सरकार ,

द्वन्द में उलझ गया , जहाँ हर निष्कर्ष ।

पनप रहा है द्वेष , बचा न अब कुछ अवशेष ,

खींचतान के बीच में , मिट रहा है यह देश,

तस्करी व् लूटमार , नववर्ष के उपहार ,

दिन रात हो रहा हैं यहाँ आपसी आघर्ष ।

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(८)

आतंकवाद

चारो ओर पनप रहा आतंकवाद ,

मिट रहा है हर रोज मानवतावाद।

सिरफिरे घूम रहे इस तरह आजकल ,

गुमसुम हो गई है आज हर फरियाद ।

सभी मुल्क में मच गई फिर से भगदड़ ,

अशांत हो चला आज सारा उन्माद ।

बारूद की ढेर पर बैठा हर मुल्क ,

गिन रहा सांसे एक एक कर याद ।

सांप छुछुंदर का खेल रहे जो खेल ,

खोखली हो रही है उनकी बुनियाद ।

फंस गए है अपनी चाल में वे खुद ही ,

चेला बन गया उनका आज उस्ताद ।

गुमराह हो रही है पीढ़ी आजकल ,

चढ़ रही बेदी पर हर रोज औलाद ।

एक नहीं अनेक आतंकी यहाँ पर ,

अपने ही मुल्क को कर रहे बर्बाद ।

दूसरा भाग

(१)

सूरज को उगने दो

सूरज उग रहा है ,

तो उसे उगने दो ,

मुझे तंग न करो,

सो लेने दो ।

सूरज का उगना ,

और ,

मेरा जगे रहना ,

अपनों को कभी भाता नहीं है ।

जब तक मैं ,

जगा रहता हूँ ,

पास कोई आता नहीं है ।

जाग - जाग कर ,

बहुत कुछ जान चूका हूँ ,

एक दुसरे को ,

पहचान चूका हूँ ।

सूरज उग रहा है ,

तो उसे उगने दो।

(२)

हम देश के राजा है

देश की जनता ने ,

बड़े शौक से ,

हमारे सर ताज रखा है ,

हम देश के राजा है ।

जो चाहेंगे ,वहीं करेंगे ,

न सुनेंगे ,न सुनने देंगे ,

बेचना है ,तो बेचेंगे ,

आप क्या कर लेंगे ?

हम देश के राजा है ।

भारत पेट्रोलियम ,हिंदुस्तान पेट्रोलियम ,

फिलहाल नहीं बेच पाए ,

तो क्या हुआ ?

आदालत में जायेंगे ,

संसद को बतलायेंगे ,

अपने पक्ष में ,

हवा बनायेंगे ,

यदि फिर भी,

बात नहीं बन पाई ,

तो इंडियन आयल बेच डालेंगे ।

अपने सर ,

कोई बोझ नहीं रखेंगे ,

आज तेल तो कल रेल ,

परसों ,

पूरा देश बेच डालेंगे।

पिछली सरकार ने भी तो ,

सोना गिरवी रखा था ,

हम देश को गिरवी रख देंगे ,

आप क्या कर लेंगे ?

हम देश के राजा है ।

(३)

निर्दोष लहू न बहने दो !

देश के भीतर ,

लाखों मंदिर , मस्जिद हैं ,

जो टूट रहे हैं ,

विखर रहे हैं ,

उजड़ रहे हैं ,

खंडहर होते जा रहे हैं ,

पर इसकी चिंता किसी को नहीं ।

सभी की नजरें ,

अयोध्या पर टिकी है,

काशी , मथुरा पर टिकी हैं ,

जहाँ देश की धार्मिक भावनाएं ,

जागृत होती है ,

जहाँ से भुनाने की प्रक्रिया ,

शुरू होती है ।

आज मंदिर , मस्जिद के बीच ,

समां गई वोट की राजनीति ।

न मंदिर बनाना हैं ,

न मस्जिद गिराना हैं ,

धर्म के नाम पर ,

देश की जनता को उलझाना हैं ।

ताकि ,

देश में जब जब चुनाव हो,

मंदिर - मस्जिद के नाम ,

यहाँ पर लोगों को ,

आपस में लड़ाया जा सके ,

मगरमच्छी आसूं बहाकर ,

आपने पक्ष में ,

जनमत जुटाया जा सके।

यहाँ,

अब हर राजनैतिक दलों की ,

वोट की खातिर ,

यह सामान्य सी प्रक्रिया बन चुकी हैं,

पहले लड़ाना ,

फिर मनाना ,

तब भुनाना ।

जब- जब भी यहाँ चुनाव आता हैं ,

निर्दोष लहू बहा करता हैं ,

पर कोई नहीं कहता ,

वोट की राजनीति से ,

धर्म को न जोड़ों ,

लोगों को न फोड़ों ,

अपने स्वार्थ के लिए ,

कुर्सी खातिर ,

देश को न तोड़ों ,

मानव को ,

मानव ही रहने दो ,

निर्दोष लहू न बहाने दो ।

(४)

लूट का नजारा

एक बार इस देश में ,

आया एक विदेशी गौरी ,

जिसने इस देश को ,

जी भर कर लूटा ।

और हम ,

लूट का यह नजारा ,

चुप चाप देखते रहे ,

आपस में लड़ते रहे ,

देश गुलाम हो गया ।

इतिहास ने करवटें बदली ,

और हम आजाद हो गये ।

परन्तु लुटेरे ,

लगातार इस देश को लुटते रहे ,

और हम ,

आज तक पहचान नहीं पाए,

कौन देशी हैं , कौन विदेशी ।

पहले विदेशियों ने इसे ,

जी भर कर लूटा ,

और आज अपने ही लूट रहे है ।

जब बांध खेत को खाए ,

तो कौन बचाए ?

जब अपना ही चिर हरण करें ,

तो किस पर विश्वास करें ?

देशी हो या विदेशी ,

क्या फर्क पड़ता है ,

लुटेरा तो लुटेरा ही होता है ।

देश पहले भी लुटता रहा ,

आज भी लूट रहा है ,

और हम सभी ,

लूट का नजारा देख रहे है ।

( ५ )

बुढ़ापा

वाह रे बुढ़ापा !

तेरी अजीब सी माया

बदल गई काया

जिसे देखकर

पास नहीं कोई आया ।

जब तक रही साँस

बुझी नही प्यास

जब निकल जाएगी साँस

तब उगाई जाएगी

टूटे विश्वास पर हरी हरी घास ।

(६)

ठिठुरती काया

सड़क की परिधि में

खुले आकाश के नीचे

श्वेत पट के बीच

अपने आप को छिपाए हुए

प्रतिद्वंदी की भावना

मन में दबाए हुए

न जाने कब से

पड़ी हुई थी

एक अभिशप्त

ठिठुरती काया ।

वह अवलोकन कर रही थी

बार -बार

उन सजल नेत्रों से

जो न जाने कब से

अपने आप से

समझौता कर लिए थे ।

उदिग्न भाव

उठ रहे थे बार - बार

और शांत हो जाते

स्वयं ही

उफनते दूध की तरह ।

शीतलहरी

थपेड़े मार रही थी

प्रतिद्वंदी बनकर

या सुला रही थी

दोस्त बनकर

कुछ कहा नहीं जा सकता ।

क्योंकि

अभिव्यक्ति लुप्त हो चुकी थी

सिर्फ बची हुई थी

झुरिया पड़ी आकृति

जो न जाने कब से

अपने आप से

अन्दर ही अन्दर

भावनाओं से दबकर

समझौता कर चुकी थी ।

(७)

अजनबी

वह

चौराहे के बीचो बीच

एक ऐसी जगह

आकर रुक गया

जहाँ से हर एक को

अच्छी तरह देख सके ।

उसके अधर खुले हुए थे

शब्दों के झुण्ड

एक प एक

तालुओं से लिपटे हुए थे

फिर भी न जाने क्यों वह

किसी से कुछ कह नहीं रहा था।

बिखरे हुए बाल से

हवा टक्कर ले रही थी

और वह शांत खड़ा था

जिसके आगे

कुछ सूखे पुष्प बिखरे थे

जिनकी पंखुरियों पर

अलगाव के लक्षण

साफ साफ दिखाई दे रहे थे

नफरत की छाया

आस -पास मंडरा रही थी

फिर भी वह

मुस्कुराने की कोशिश कर रहा था

पर उसकी मुस्कराहट

न जाने कहाँ गायब हो गयी थी

उसके हाथ

न जाने कब से

उससे अलग हो चुके थे

नेत्र होते हुए भी वह

नेत्रहीन बना हुआ था

फिर भी

मन में आश लिए खड़ा था

शायद कोइ पहचान ले ।

परिचितों का झुण्ड

एक - एक कर

सामने से गुजरता गया

पर किसी ने भी

मुड़कर उसकी तरफ

एक बार भी देखा नहीं

अब वह थक चूका था

मूक दृष्टी से संबोधित करते हुए

अपने आप को

उन लोगों से

जो उसे जानकर भी

उसे अजनबी बना गये ।

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Friday, April 16, 2010

जीवन परिचय बृत

नाम :- भरत मिश्र प्राची
पिता :- श्री बृज किशोर मिश्र
जन्म :- १२ जुलाई १९५३
जन्म स्थान :- बड़का गाँव , बक्सर , बिहार
निवास :- सन १९७५ से निरंतर राजस्थान में
संपर्क सूत्र :- डी- ९ सेक्टर - ३ ऐ , खेतड़ी नगर -३३३५०४ , झुंझुनूं , राजस्थान
मोब :- ०९४१४५४१३२६, ०९४६०५४०७२७ दूरभाष :- ०१५९३-२२०३२६
संपर्क जयपुर :- ऐ -४, गायत्री नगर, सोडाला
दूरभाष :- ०१४१- ५१३१५५२ मोब- ९३१४९०८२२१
शिक्षा / उपाधि :- स्नातक (कला ) , साहित्य रत्न , विद्या वाचस्पति (मानद)
रूचि :- सृजन , पत्रकारिता , कवित्ता पाठ, लेखन , संचालन, सामाजिक कार्य
सृजन
प्रकाशित आलेख :- दैनिक हिंदुस्तान ,राजस्थान पत्रिका , भास्कर , जागरण ,सन्मार्ग ,स्वतंत्र वार्ता , रांची एक्सप्रेस , हरि भूमि ,जलते दीप, डेली न्यूज़ , नव जयोति ,बिजनोर टाइम्स,चमका आइना , चर्चित दुनिया , उतर उज्जाला, आदि के सम्पादकीय पृष्ट .
प्रकाशित कहानिया :- राजस्थान पत्रिका के रविवार , परिवार अंक सहित देश की चर्चित अन्य पत्र -पत्रिका में
प्रकाशित कृत्तियाँ
उपन्यास :- अधूरी प्यास , मोह भंग , भोर की तलाश
कविता संग्रह :- जीवन ज्योति , सूरज को उगने दो
निबंध संग्रह :- सत्ता संगर्ष , शून्य काल , गुलामी की ओर बढ़ते कदम
डॉ भरत मिश्र प्राची - एक सर्जनात्मक व्यकित्तव :-संपादक - डॉ यदुवीर सिंह खिरवार
प्रकाशनाधीन कृत्तियाँ
संस्कार ( कहानी संग्रह ), लाभ तंत्र ( निबंध संग्रह )
डॉ प्राची के निबंधो में समकालीन बोध :- लेखक - डॉ दीना नाथ सिंह
संपादन
भारतीय जनभाषा की विशिष्ट त्रैमासिक पत्रिका कंचन लता का १९८६ से संपादक पद पर अवैतनिक कार्य
दायित्व
संयोजक - हिंदी साहित्य परिषद् , खेतडी नगर , महा मंत्री - भोजपुरी सांस्कृतिक समिति ,
सम्मान
२० अगस्त १९९५ , पटना , बिहार में आयोजित अखिल भारतीय साहित्य सम्मलेन में अंग माधुरी रजत
२ अक्टू १९९५ , युवा साहित्य मंडल , गाजियाबाद (ऊ प ) द्वारा सृजन सम्मान
२६ अक्टू १९९७ , हिंदी साहित्य सम्मलेन , गाजियाबाद में पद्म श्री चिरंजीत द्वारा अति विशिष्ट सम्मान
सन १९९८ में बाबा आंबेडकर संस्था बनवास में तत्कालीन उच्च शिक्षा मंत्री द्वारा शेखावाटी गौरव सम्मान
१४ सितम्बर १९९९ में महावीर सेवा संस्था , प्रताप द्वारा साहित्य शिरोमणि सम्मान
३१ अक्तू १९९९ में अखिल भारतीय साहित्य सम्मलेन , गाजियाबाद में आचार्य महावीर प्रसाद दिव्वेदी
५ जनवरी २००० को गुजरात हिंदी विद्यापीठ के आयोजित समारोह में राज्यपाल द्वारा शांति साधना सम्मान
वर्ष २००० में अमेरिकन ब्योग्रफिकल विभाग द्वारा men ऑफ दी इयर की उपाधि
८ मार्च २००० को अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मलेन , मैनपुरी द्वारा सम्पादक रत्न
२२ अप्रैल २००० को गाजियाबाद में आयोजित अखिल भारतीय राजभाषा सम्मलेन में राजभाषा मनीषी
२१मई 2000 को साहित्यिक ,सांस्कृतिक ,कला संगम अकादमी (ऊ प्रदेश ) द्वारा आयोजित भाषाई एकता सम्मलेन में आचार्य देवी दत्त शुक्ल सम्मान
२८ मई २००० को विक्रमशिला हिंदी विद्यापीठ ,भागलपुर के ७ वे दीक्षांत समारोह में विद्यावाचस्पति की उपाधि
१४सितम्बर 2000 को अखिल भारतीय साहित्यकार मंच , रायबरेली द्वारा रसूल अहमद अबोध सम्मान
१५ अक्तू २००० को अंकिता प्रकाशन , आसनसोल द्वारा गिरिजा कुमार माथुर सम्मान
२२ अक्टू २००० को गाजियाबाद में आयोजित हिंदी सम्मलेन में हिंदी सेवी प्रमुख सम्मान
३०जन २००१ को जिला पत्रकार समिति एता द्वारा आयोजित अखिल पत्रकार सम्मलेन में पत्रकार मनीषी
१२मार्च २००१ को शिर्डी में आयोजित नागरी लिपि सम्मेलन में पत्रवाचन के लिए नागरी लिपि सम्मान
२५ मार्च २००१ को सीकर में आयोजित पत्रकार सम्मलेन में क्विज में प्रथम पुरस्कार सम्मान
२० अप्रैल २००१ को अखिल भारतीय राष्ट्र भाषा विकास संगठन के समारोह में राष्ट्र भाषा गौरव सम्मान
१०जून २००१ को मैनपुरी में आयोजित साहित्यकार /पत्रकार सम्मलेन में पत्रकार शिरोमणि सम्मान
४अगस्त २००१ को जेमिनी अकादमी पानीपत द्वारा पद्म श्री लक्ष्मी नारायण दुबे सम्मान
१२ अक्टू २००१ को प्रज्ञा सृजनात्मक मंच द्वारा अभिनन्दन
१४ अक्टू २००१ को कृष्ण नगर नेपाल में सृजन हेतु अभिनन्दन
२५अक्तू २००१ को मानव भारतीय सांस्कृतिक समिति हिसार द्वारा साहित्य सम्मान
२८अक्तू २००१ आल इंडिया न्यूज़ पेपर एशोशिएसन द्वारा पत्रकारिता के लिए सम्मान
३मार्च २००२ को इन्दोर में आयोजित सम्मेलन में पत्रवाचन हेतु सम्मान
१८ मार्च गोंडा , झारखण्ड में आयोजित साहित्य सम्मलेन में अखिल भारतीय अंगीक कला मंच द्वारा सम्पादक शिरोमणि सम्मान
१६ फरवरी २००३ को सृजन सम्मान, छ ग , द्वारा आयोजित समारोह में महामहिम राज्य पाल दिनेश नंदन सहाय द्वारा पद्म श्री मुकुट धर पाण्डेय सम्मान
९ नवंबर २००३ को सुल्तानपुर में सरिता लोक भारती संसथानद्वारा साहित्य गौरव सम्मान
२८ जन २००४ को खगडिया ,भिहर में हिंदी भाषा साहित्य परिषद द्वारा उपन्यास भोर की तलाश के लिए राम बलि परवाना सम्मान
३१अक्त०० २००४ को शिमला में केन्द्रीय श्रम रोजगार मंत्री द्वारा पत्रकार भूषण सम्मान
२७ नवम्बर २००५ को जबलपुर ( म प्रदेश ) की साहित्यिक संस्था कादम्बरी द्वारा निबंध संग्रह सत्ता संगर्ष हेतु
ब्रम्ह्कुमार प्रफुल सम्मान
७मइ २००६ को अखिल भारतीय संगम उदयपुर द्वारा कलम कलाधर सम्मान
२२अगस्त २००७ को ऋचा रचनाकार परिषद द्वारा भारत गौरव सम्मान
१५जन२००८ को पुष्प गंध प्रकाशन द्वारा संपादक श्री सम्मान
२०जन२००८ को हिंदी भाषा सम्मलेन पटियाला पंजाब द्वारा आचार्य हजारी प्रसाद दिव्वेदी सम्मान
१८ अक्तू२००८ को श्री बाबा गरीब नाथ विद्या प्रचारणी पीठ हरियाणा द्वारा परम हंस श्री गोपालनाथ जी स्मृति सम्मान
२०दिसम्बर २००८ को जेमिनी अकादमी हरियाणा द्वारा अखिल भारतीय सम्मान के तहत राजस्थान रत्न सम्मान
२९मार्च२००९ को मुक्त मनीषा साहित्यिक सांस्कृतिक समिति डबरा (म प्रदेश ) द्वारा संत कन्हर सम्मान
२४ मई २००९ को हिंदी भाषा सम्मलेन पंजाब द्वारा काव्य कलश सम्मान