Tuesday, June 15, 2010

काव्य संसार

मकड़ जाल
उलझे हुए बालों को
सुलझाते -सुलझाते
एक दिन कंघी
खुद ही उलझ गई ।
भूल गई
चिरकाल से
चले आ रहे आत्मीय सम्बन्ध ।
कटुता पैदा हो गई
और बेचारी फंस गई
तड़पती मीन की तरह
बेमेल संगम के बीच ।
कभी आगे /कभी पीछे
कभी बीच से
निकलने का प्रयास तो करती
परन्तु निकल न पाई ।
टूट गए उसके दांत
आपसी संघर्ष में ।
फिर भी हिम्मत न हारी
तोड़ती रही एक -एक करके
अभेद द्वार ।
और एक दिन
वह भी मार दी गई
षड्यंत्रों के बीच
निर्दोष अभिमन्यु की तरह
हासिएं पर ।
मगरमछी आसुओं के बीच
निकाली गई उसकी
बेजान शव -यात्रा ।
निकट के संबंधियों ने
शोक में
एक दिन का मौन व्रत भी लिया
और फिर से
जुट गए सभी तलाश में
नई कंघी की खोज में ।
जो संवार सके
संभाल सके
उलझने पर
सुलझा सके ।
नये रिश्ते की
इस डोर में है
आश्वासन भी
प्रलोभन भी
और साथ में है
मकड़ -जाल ।
जहां उसे भी
समय आने पर
काम न आने पर
मार दिया जायेगा ।

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