Friday, October 24, 2008

मतदाता आखिर जाएं तो कहां जाएं

तुलसी कृत रामचरितमानस की पंक्तियां 'समरथ को कोई दोष न गोसाईं' आज पूर्णरूपेण भारतीय लोकतंत्र के परिवेश में भी लागू होती दिखाई दे रही हैं। जिसके पास ताकत है, जो अर्थबल, बाहुबल से संपन्न हैं, लोकतंत्र पर भी कब्जा उसी का है। इस तरह की ताकत भले ही उसे अनैतिक ढंग से ही क्यों न प्राप्त हुई है। देश का अधिकांश मतदाता उसी के पीछे दौड़ता दिखाई दे रहा है जिसके पास इस तरह की ताकत है। उसी का सम्मान करता नजर आ रहा है जिसके पास यह सबकुछ है। 'पूजे जा रहे अक्सर, देश के ही तस्कर' इस तरह का परिवेश लोकतंत्र का जीता-जागता उदाहरण बन चुका है। यह सर्वविदित है कि इस तरह की ताकत सीधे-सादे लोगों के पास तो हो नहीं सकती, यह भी जगजाहिर है कि इस तरह के परिवेश से जुड़े लोगों का नैतिकता से कोई लेना-देना नहीं। अर्थबल एवं बाहुबल जिसके पास है, वे किस तरह के लोग हैं, सभी जानते हैं, परन्तु लोकतंत्र पर इसी की छाप सर्वोपरि है। जब भी देश में चुनाव की स्थिति उभरती है चाहे पंचायती राज के चुनाव हों या विधानसभा, लोकसभा के चुनाव हों, देश के सभी राजनीतिक दल इस तरह के लोगों की तलाश में जुट जाते हैं जो ऐन-केन-प्रकारेण उन्हें सत्ता तक पहुंचा दें। इस तरह के परिवेश में अर्थबल व बाहुबल वालों पर ही नजर सभी दलों को टिकी रहती है। फिर नेतृत्व में नैतिकता का प्रश्न ही नहीं उभरता। जहां चुनाव आज दिन पर दिन महंगा होता जा रहा, जहां पानी की तरह पैसे का बहाव देखा जा सकता है। चुनाव आज जहां व्यापार का रूप ले चुका है, भ्रष्टाचारी परिवेश से कैसे मुक्ति पाई जा सकती है?
लोकतंत्र के दिन पर दिन बदलते परिवेश जहां अलोकतांत्रिकता साम्राज्य पग पसारता जा रहा है, नेतृत्व की परिभाषा पूर्णत: बदलकर लाठीतंत्र का स्वरूप धारण कर चुकी हो, आखिर मतदाता जाए तो कहां जाए, किस पर विश्वास करे, जहां हर कुएं में भांग पड़ी हो। निश्चित तौर पर इस तरह का परिवेश भारतीय लोकतंत्र के लिए घातक अवश्य है परन्तु चिन्ता किसे? भले ही देश के पूर्व उपराष्ट्रपति श्री भैंरोंसिंह शेखावत आज भ्रष्टाचार पर अपने आक्रोशात्मक तेवर व्यक्त करते हुए भारतीय मतदाताओं को अनैतिक एवं भ्रष्टाचारी को मत नहीं देने के संदेश के साथ भ्रष्ट नेतृत्व के प्रति मतदान न करने हेतु सचेत करते हैं, अच्छी बात है। पर आज के परिवेश में जहां नेतृत्व पर पूर्णरूपेण अलोकतांत्रिक परिवेश का कब्जा हो, जहां अर्थबल एवं बाहुबल का नंगा नाच हो रहा हो, जहां जातिगत जहर युक्त विषैला नाग फुंफकार कर रहा हो, पग-पग पर जहां भू-माफिया, अर्थ-माफिया, शराब-माफिया आदि सरगनाओं का नेतृत्व पर कब्जा होता जा रहा हो, बेचारा भारतीय मतदाता क्या करे, किसे चुने, किसे मत दे? इस तरह के हालात में मतदाता आखिर जाएं तो कहां जाए, जहां हर नेतृत्वधारी का इतिहास नापाक इरादों से नेस्तनाबूत है। जहां हर नेतृत्वधारी का स्वहित राष्ट्रहित से सर्वोपरि बना हुआ है।
आज देश में राजनीतिक दलों की बाढ़ सी आ गई है। हर रोज नये-नये दल उभरकर सामने आ रहे हैं। छोटे-बड़े सभी दल सत्ता तक पहुंचने के प्रयास में नैतिक मूल्यों को सबसे पहले ताक पर रख आगे बढ़ते हुए उनका दामन थाम लेते हैं जो ऐन-केन-प्रकारेण चुनावी वैतरणी को पार करा दे। इस दिशा में नैतिकता की बात करना केवल महज धोखा है। अपराधिक प्रवृत्ति से जुड़े लोगों को हर दल में प्राथमिकता के साथ प्रत्याशी तय करने की दिशा में होड़ देखी जा सकती है। इस तरह के परिवेश में राजनीतिक दलों की कथनी-करनी में व्याप्त अन्तर को साफ-साफ देखा जा सकता है। जातिगत आधार पर प्रत्याशी तय किये जाने की परम्परा राजनीतिक दलों में प्रारंभ से ही चली आ रही है। इस प्रक्रिया में दिन पर दिन बढ़ोतरी ही होती गई है। आज प्राय: सभी राजनैतिक दल इस दलगत राजनीति के शिकार हैं। जिससे अस्थिर राजनीतिक परिवेश उभरकर सामने आए हैं। अनेक क्षेत्रीय दल उभर चले हैं तथा राष्ट्रीय दल टूटते जा रहे हैं। केन्द्र एवं प्रदेश में स्थिर सरकार के गठन का स्वरूप प्राय: इस तरह के परिवेश में समाप्त हो चला है। सरकार के गठन में खरीद-फरोख्त के साथ अनैतिक परिवेश का उभरना अब स्वाभाविक हो गया है जिसे नकारा नहीं जा सकता।
इसी दलगत राजनीति से उभरी जातिवाद की संकीर्णता ने आज आरक्षण का जो जहर घोल रखा है, उससे पूरा देश संकटकालीन स्थिति के बीच दिन पर दिन उलझता जा रहा है। इससे पनपा कहर ठहरने का नाम ही नहीं ले रहा है। आज वोट की राजनीतिक रोटियां देश में पनपे अनेक दलों द्वारा सेंकी जा रही है। जातीय समीकरण से जुड़ी राजनीति ने देश को विघटन के कगार पर ला खड़ा कर दिया है। इस परिवेश से देश का कोई भी राजनीतिक दल अछूता नहीं रहा है। चुनाव के दौरान प्रत्याशी का चयन का मापदंड जातीय आधार अब प्राय: हर दल का बन चुका है। इस तरह के परिवेश के विरोध में स्वर उभरते दिखाई तो दे रहे हैं परन्तु स्वार्थप्रेरित राजनीति के तहत इस तरह के विरोधी स्वर भी टांय-टांय फिस्स होकर रह जाते हैं। जातीय समीकरण की राजनीति से सांप्रदायिकता की आग भी प्रज्ज्वलित हुई है, जिसके शिकार समाज का निर्दोष वर्ग ही हर बार हुआ है तथा वोट की राजनीति का खेल खेला जाता रहा है।
आज देश आरक्षण के साथ-साथ आतंकवाद का भी शिकार हो चला है। जगह-जगह बमकांड की घटनाएं घटती जा रही है। कब कौन शहर, नगर इसका शिकार हो जाय, कह पाना मुश्किल है। इस तरह के परिवेश को भी राजनीतिक हवा मिल रही है। दलगत राजनीतिक परिवेश से जुड़ा यह प्रसंग भी आज देश के लिए घातक बना हुआ है जहां वोट की राजनीति का घृणित खेल आसानी से देखा जा सकता है। इस तरह के परिवेश को प्राय: अपराधी प्रवृत्ति से जुड़े लोगों का अप्रत्यक्ष रूप से संरक्षण मिल रहा है, जो नेतृत्व में भी वजूद बनाये हुए हैं। वोट की राजनीति ने इस तरह के हालात को देश को राहत दिलाने के बजाय आज उलझा ज्यादा दिया है।
वोट की राजनीति के तहत पनपा देश में बढ़ता आतंकवाद, सांप्रदायवाद एवं आरक्षण की बढ़ती आग ने भ्रष्ट नेतृत्व का दामन थाम लिया है जिसे नकारा नहीं जा सकता। आज नेतृत्व में भ्रष्टाचार का बोलबाला है। अर्थ एवं बाहुबल के प्रभावी नेतृत्व की बागडोर ने लोकतंत्र के वास्तविक स्वरूप को इस तरह बदल दिया है जहां नेतृत्व में नैतिकता का स्थान नगण्य हो चला है। जिससे देश दिन पर दिन गंभीर संकट के बीच उलझता ही जा रहा है। नेतृत्व में नैतिकता के अभाव ने भ्रष्ट नेताओं की फौज खड़ी कर दी है जहां, अर्थ-माफिया, भू-माफिया, शराब-माफिया का ही बोलबाला है। 'पूजे जा रहे अक्सर, देश के ही तस्कर' इस तरह के हालात में जहां लोकतंत्र के सजग प्रहरी ही भ्रष्ट आचरण का दामन थाम लिए हैं, जहां कुर्सी के लिए सारी नैतिकता दांव पर लगी है, भारतीय मतदाता आखिर जाएं तो कहां जाएं, किसे मत दें। वह न भी दें तो भी यहां कोई फर्क नहीं पड़ने वाला, विचारणीय पहलू है।
भ्रष्ट नेताओं को मतदाता मत नहीं दे, यह कहना सहज तो है, परन्तु व्यावहारिक रूप से यह कथन कटु सत्य की तरह है। लोकतंत्र के सही स्वरूप उजागर करने के लिए यह जरूरी तो है परन्तु इस तरह के परिवेश के लिए सभी राजनीतिक दलों की सोच स्वहित से ऊपर उठकर राष्ट्रहित में बने। जातिगत, दलगत राजनीति से ऊपर उठकर सभी दल सोचें। अर्थबल एवं बाहुबल का प्रभाव लोकतंत्र से बाहर हो। चुनाव का खर्च सरकार वहन करे तथा अपराधिक प्रवृत्ति से जुड़े लोगों के चयन में सभी राजनीतिक दल नकारात्मक सोच बनाएं तभी लोकतंत्र का सही रूप उजागर हो सकेगा। देश में राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, मिजोरम, दिल्ली पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं जिनके लिए सभी राजनीतिक दल प्रत्याशी चयन की प्रक्रिया में जुड़ चले हैं। यदि यह प्रक्रिया दलगत राजनीति से ऊपर उठकर अपना स्वरूप उजागर कर पाती हैं तो लोकतंत्र के स्वरूप को सही ढंग से परिलक्षित किया जा सकता है। इस हालात में मतदाता सही प्रत्याशी के चयन में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका भी निभा सकते हैं।
-स्वतंत्र पत्रकार, डी-9, IIIए, खेतड़ीनगर-333504 (राज.)

तेते पांव पसारिए जेती लाम्बी सौर

विकास के नाम पूंजीवादी देशों द्वारा जारी इस युग के नये अध्याय आर्थिक उदारीकरण के दौर के पड़ते प्रतिकूल प्रभाव आर्थिक मंदी के उजागर स्वरूप को आसानी से देखा जा सकता है जहां आम जन की रोटी तो छिनती दिखाई देने लगी है, बढ़ती महंगाई के पांव तले हर वर्ग का जीना दूर्भर हो चला है। मल्टीइंटरनेशनल कंपनियों के नीचे एवं छठे वेतन की बीच फंसे चंद लोगों के पांव भले ही आज के बाजार में टिकते दिखाई दे रहे हो, पर आर्थिक मंदी के दौर में ये ठहराव ज्यादा दिन टिक पायेगा, कह पाना मुश्किल है, जहां इस दौर के जनक मंदासूर के नेवाला एक से एक विशाल धन्नासेठ बनता जा रहा है। शेयरों के निरंतर गिरते जा रहे भाव, बैंकों के बंद होते द्वार, बड़े-बड़े घरानों के उखड़ते पांव कौन से नये आर्थिक युग का सूत्रपात कर रहे हैं, विचारणीय मुद्दा है।
पूंजीवादी देश अमेरिका के आर्थिक जगत में जो हलचल आज मची हुई है, भलीभांति सभी परिचित हैं। नई आर्थिक नीति से उपजे मंदासूर का पहला ग्रास यहीं देश बना है जहां आर्थिक मंदी के दौर ने सभी का जीना दूर्भर कर दिया है। इनसे जुड़े सभी बैंकों की गिरती जा रही साख जहां इनके दिवालियापन होने के संकेत दे रहे हैं, आज सरकारी संरक्षण को तलाश रहे हैं। भले ही इस तरह के हालात पर पर्दा डालने का भरपूर प्रयास नई आर्थिक नीति के जनक कर रहे हों पर यह जगजाहिर हो चुका है, इस तड़क-भड़क जिन्दगी में मात्र छलावा है, जहां अंतत: रोना ही रोना है। शून्य पर खाता खोले जाने, अंधाधुंध ऋण देकर आम जीवन को तबाह करने वाले एवं बेरोजगारी के पैगाम के तहत पैसा लुटाये जाने का खेल खेलने वाले ये तमाम आर्थिक समूह आज मंदासूर का ग्रास बनते जा रहे हैं। निश्चित तौर पर इससे जुड़े लोगों के जनजीवन की क्या दशा होगी, आसानी से विचार किया जा सकता है। इस तरह के परिवेश का खुला नजारा देश के भीतर देखने को मिलने लगा है जहां अभी हाल में हवाई जगत के उड़ान से जुड़ी तमाम जिन्दगी दाने-दाने को मोहताज होती दिखाई देने लगी। जेट विमान की छंटनी एवं एयर इंडिया में छुट्टी के नाम हजारों की छंटनी का उजागर स्वरूप इस नई आर्थिक नीति से ही जुड़ा प्रसंग है जहां वेतन में प्रारंभिक दौर पर कटौती कर जेट विमान की छंटनी को फिलहाल ठहराव मिल चुका है परन्तु भविष्य खतरे से खाली नहीं। इस नई आर्थिक नीति के तहत ही देश भर में संचालित अनेक सार्वजनिक प्रतिष्ठानों, उद्योगों से जुड़े लाखों जनजीवन आज स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेकर सड़क पर भटक रहे हैं। रोजगार बेरोजगार हो चले हैं तथा नये को रोजगार नहीं, ये हालात नई आर्थिक नीतियों के तहत ही उपजे हैं जिनका नजारा आज हर जगह देश भर में देखने को मिल सकता है।
एक समय था, जब देश में बेरोजगारी खत्म करने के लिए मित्र राष्ट्रों के सहयोग से बड़े-बड़े सार्वजनिक प्रतिष्ठान खड़े किये गये। लाखों लोगों को रोजगार दिया गया। एक समय आज आ गया है जहां इन प्रतिष्ठानों से जुड़े लाखों लोगों को बेघर कर दिया जा रहा है। यह दौर नई आर्थिक नीति का है। जहां चंद लोगों पर बेपनाह दौलत लुटाई जा रही है तो तमाम जिन्दगियों को तबाह के सागर में गोते लगाने के लिए छोड़ दिया जा रहा है। इस नये आर्थिक युग के इस दौर में विकास की बातें तो खूब की जा रही है परन्तु खाली पड़े पदों पर नियमित नियुक्ति के बदले अस्थाई तौर पर भर्ती किये जाने की नई परंपरा चालू हो गई है जहां न तो सही वेतन है, न सामाजिक सुरक्षा की कोई जिम्मेवारी। ठेका पध्दति का बोलबाला है जहां लेन-देन व्यापार के तहत भ्रष्टाचार फल-फूल रहा है एवं आम जनजीवन शोषण का शिकार हो रहा है। इस तरह के दृश्य आज सभी सरकारी, अर्ध्दसरकारी, सार्वजनिक कार्यालयों, प्रतिष्ठानों, उद्योगों में देखा जा सकते हैं, जहां शोषण की जनक ठेका पध्दति का फैलाव जारी है।
नई आर्थिक नीति के दौर के पूर्व के वेतनमान के स्वरूप पर एक नजर डालें जहां नीचे से ऊपर के पदों के बीच का अंतराल नहीं के बराबर था। आज यह अंतराल काफी बढ़ चला है। आज सर्वाधिक वेतनमान लाख के आस-पास पहुंच चुका है एवं न्यूनतम 5000रू. है। यह परिवेश मल्टीइंटरनेशनल कंपनियों के कारण ही उपजा है जो इस नये आर्थिक युग की प्रमुख देन है। इस तरह के सर्वाधिक वेतनमान परिवेश के पड़ते प्रतिकूल प्रभाव को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता, जहां अनेक जिन्दगियां बर्बादी के कगार पर खड़ी होती दिखाई देने लगी है। इस तरह की व्यवस्था को पनाह देने वालों को मालूम होना चाहिए कि देश की अधिकांश जनसंख्या सामान्य वेतनमान की जिन्दगी बसर आज भी कर रही हैं जिनकी मासिक आय दो हजार से भी कम है, इस तरह के लोग मल्टीइंटरनेशनल की चकाचौंध से खड़े बाजार में कैसे टिक पायेंगे। बाजार तो सभी के लिए एक जैसा ही है। आज बाजार में सब्जी 25रू. किलो है, चावल 20रू. किलो है, गेहूं 15रू. किलो है तो ये भाव दो हजार मासिक पाने वाले के लिए भी है, दैनिक मजदूरी वालों के लिए भी है तथा पचास हजार, लाख तक मासिक पाने वालों के लिए भी है। इस तरह की विसंगतियां असंतोष का कारण्ा ही बनती है। जहां वेतनमान को लेकर एकरूपता नहीं, अधिक बिखराव है। जहां बाजार पर नियंत्रण नहीं, वहां जीवन जीना निश्चित तौर पर कठिन है। नई आर्थिक नीति ने इस दिशा में सबसे ज्यादा विसंगतियां पैदा की है जिसका खुला नजारा हर जगह देखने को मिल रहा है। एक समय ज्यादा पगार से ढली जिन्दगी अल्प पगार या बेपगार के कगार पर होते ही तबाह होती दिखाई देने लगती है, आत्महत्या के बढ़ते हालात इस तरह की बर्बाद जिन्दगी की मिसाल बनते जा रहे हैं जो नई आर्थिक नीति के तहत ज्यादा देखने को मिल रहे हैं।
नई आर्थिक नीति के तहत उपजे आर्थिक मंदी के दौर से गुजरते देश को बचाने के लिए अपनी राष्ट्रीय नीति का स्वरूप तय किया जाना चाहिए जहां आज के बाजार का स्वरूप देश की सर्वाधिक जनमानस के अनुरूप हो, जहां वेतन में व्याप्त अनेक विसंगतियों को दूर करते हुए न्यूनतम एवं उच्चतम अंतराल को अपने परिवेश के अनुरूप समेटने का प्रयास किया जाय। जहां पूरे देश में निजी, सरकारी, अर्ध्दसरकारी, सार्वजनिक सहित समस्त क्षेत्रों के वेतनमान की दशा एक जैसी रखी जाय तथा लाभांश को विकास कार्यों में लगाया जाय। जहां ठेका पध्दति से लेकर स्थाई कार्यों के तहत वेतनमान का स्वरूप एक जैसे करते हुए सामाजिक सुरक्षा से सभी को जोड़ा जाय। इस तरह के परिवेश जो स्वयं के विवेक एवं देश के अनुकूल होंगे जिस पर अन्य की छाया विराजमान नहीं होगी। निश्चित तौर पर देश को इस नये संकट के दौर से उबार सकेंगे वरना नई आर्थिक नीति से उपजे मंदासूर के ग्रास का शिकार पूरा देश हो जायेगा। वरना इस नये आर्थिक युग का यह मंदासुर एक-एककर सभी को निगल जायेगा। जब यह अपने जन्मदाता को ही नहीं बख्शा तो हमें कैसे छोड़ेगा, विचारणीय मुद्दा है। आज विश्व के एक-एक करके सभी विकसित देश इसका निवाला बनते जा रहे हैं। इसकी छाया हमारे देश पर भी नजर आने लगी है। जिसके परिणामस्वरूप बढ़ती महंगाई, घटते रोजगार, बढ़ते बेरोजगार का उभरता तथ्य स्पष्ट देखा जा सकता है। यदि समय रहते अपने देश के परिवेश के अनुरूप नई आर्थिक नीति के मायाजाल से बचते हुए कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया तो वह समय दूर नहीं जब पूरा देश इस मंदासुर का ग्रास न बन जाय। कवि वृंद ने कहा भी है 'तेते पांव पसारिये जेती लाम्बी सौर'।
-स्वतंत्र पत्रकार, डी-9, IIIए, खेतड़ीनगर-333504 (राज.)

Saturday, October 4, 2008

चुनावी मौसमी बयार के नशे में सभी तरबतर

चुनावी मौसमी बयार वातावरण में बह चली है जिसके नशे में यहां प्राय: सभी राजनीतिक दल तरबतर नजर आ रहे हैं। जिसकी झलक हर शहर, गली, मौहल्ले, नगर, महानगर में देखने को मिलने लगी है। शिकवे, शिकायत, मनाने-रिझाने का सिलसिला तेज हो चला है। नहीं पूछने पर भी दावत एवं सहानुभूति का दौर आसानी से देखा जा सकता है। बंद हाथ जुड़ चले हैं, नजरें एक-दूसरे को निहारने लगी है एवं सत्ता की गेंद अपने पाले में लाने की रणनीति का खेल शुरू हो गया है। इस वर्ष आगामी माह के अंतिम सप्ताह में कुछ प्रमुख राज्यों के विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं तो आगामी वर्ष के प्रारंभिक दौर में ही लोकसभा चुनाव की गूंज सुनाई देने की तैयारियां होने लगी है। चुनावी सरगर्मियां तेज हो चली हैं, कहीं-कहीं विधानसभा एवं लोकसभा चुनाव को साथ-साथ कराने की भी सुगबुगाहट होने लगी है। इस तरह के हालात को स्वार्थ का जामा पहनाये जाने की प्रक्रिया में सभी प्रमुख राजनीतिक दल वैचारिक मंथन में जुट चले हैं। विधानसभा चुनाव को लोकसभा चुनाव के साथ कराने की मंशा में छिपे स्वार्थ को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। इस तरह के हालात में राजनीतिक दलों की अपनी-अपनी सोच-समझ है जो स्वार्थ के इर्द-गिर्द घूमती नजर आ रही है। विधानसभा चुनाव समय पर हों या लोकसभा के साथ हों, सत्ता तक पहुंचने एवं सत्ता पर पुन: कब्जा बनाये रखने की प्रक्रिया में अपने-अपने तरीके से प्राय: देश के सभी प्रमुख राजनीतिक दल सक्रिय अवश्य हैं। परन्तु जातिगत आधार पर राजनीतिक दलों के बनते जा रहे नये समीकरण सत्ता पर एकाधिकार बनाये रखने वाले प्रमुख राजनीतिक दलों के लिए चिंता का विषय अवश्य हैं। जातिगत आधार पर उपजे इस समीकरण ने देश को राजनीतिक स्थिति में अस्थिरता के भंवरजाल में अवश्य डाल दिया है। जहां देश में अनेक छोटे-छोटे क्षेत्रीय दल पनप गये हैं जिनकी पकड़ जातिगत आधार पर दिन पर दिन मजबूत होती जा रही हैं। इस तरह के परिवेश ने राष्ट्रीय दलों के समीकरण पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हुए केन्द्र एवं प्रदेश की राजनीति को निश्चित तौर पर अस्थिर कर दिया है। जिससे आज किसी भी एक दल की सरकार का स्वयं के बलबूते पर बन पाना कतई संभव नहीं है।
आज कांग्रेस की जो स्थिति है, सभी के सामने है। देश की राजनीति में एकछत्र साम्राज्य कायम रखने वाली यह पार्टी अल्पमत में आ गई है तथा दिन पर दिन इसका ग्राफ गिरता ही जा रहा है। बदलते जातीय समीकरण में सबसे ज्यादा कमजोर इस पार्टी को ही किया है। इसके अंचल में परंपरागत चले आ रहे अनुसूचित जाति के वोटों पर बसपा ने प्रहार कर अपनी ओर खींचा तो पिछड़ी जाति के मतों पर मंडल आयोग के मार्फत सपा, जनता दल आदि ने कब्जा जमा लिया। कांग्रेस के परंपरागत चले आ रहे मुस्लिम मत भी इस तरह के परिवर्तन से अछूते नहीं रहे। कुछ बसपा की झोली में चले गये तो कुछ सपा के पास। राम मंदिर निर्माण के नाम पर कांग्रेस से जुड़े अधिकांश ब्राह्मण्ा मत भी कांग्रेस से छिटक कर भाजपा की झोली में जा गिरे। इस तरह के उत्तर भारत के दो बड़े प्रान्त बिहार एवं उत्तरप्रदेश से कभी एक नंबर पर परचम लहराने वाली राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस अल्पमत में आ गई। वर्तमान में भी इन दो राज्यों में इस पार्टी के जनाधार में कोई खास परिवर्तन नहीं दिखाई दे रहा है। जातीय समीकरण के कारण इस पार्टी के बिखरे वोट अभी भी विभिन्न क्षेत्रीय दलों की झोली में अटके पड़े हैं। इस तरह के हालात निश्चित तौर पर लोकसभा के दौरान केन्द्रीय राजनीति की स्थिरता को प्रभावित करेंगे।
फिलहाल जिन राज्यों पर विधानसभा के चुनाव होने जा रहे हैं, उन राज्यों में प्रमुख राजस्थान, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, दिल्ली हैं जहां मुख्य रूप से कांग्रेस एवं भाजपा के बीच ही आमने-सामने की टक्कर है। जातीय समीकरण्ा से देश के विभिन्न भागों में उपजे अन्य राजनीतिक दल सपा, जनता दल, जद (यू), लोकदल, बसपा, राष्ट्रवादी कांग्रेस, लोकजनशक्ति आदि भी इन राज्यों में अपना पांव टिकाने की कोशिश तो अवश्य करेंगे परन्तु इनका कोई खास जनाधार बिहार एवं उत्तरप्रदेश की तरह अभी इन राज्यों में उभर नहीं पाया है। हां, कांग्रेस एवं भाजपा के बीच के समीकरण को प्रभावित करने की इनकी वस्तुस्थिति उभरकर अवश्य सामने आ सकती है। जिस पर सत्ता के करीब पहुंचने एवं दूर होने का गणित टिका है। विधानसभा चुनाव से प्रभावित राज्य राजस्थान, मध्यप्रदेश एवं छत्तीसगढ़ में भाजपा की सरकार है तो दिल्ली में कांग्रेस की सरकार। इन राज्यों के राजनीतिक परिदृश्य भी अलग-अलग हैं। दिल्ली में दो बार कांग्रेस की सत्ता होने एवं केन्द्र में भी कांग्रेस के प्रभुत्व वाली सरकार होने से आम जनमानस के बीच उभरे असंतोष का गणित राजनीतिक परिदृश्य में उलटफेर कर सकता है। राजस्थान के परिदृश्य में वर्तमान शासित सरकार भाजपा के कार्यकाल के दौरान राज्य में रोजगार क्षेत्र के साथ-साथ अन्य क्षेत्रों में भी हुए विकास एवं कर्मचारियों को संतुष्ट रखने की रणनीति फिर से इसी सरकार की वापसी के परिवेश को उजागर तो कर रही है, परंतु चुनाव के दौरान टिकट वितरण से उपजे असंतोष एवं आरक्षण आंदोलन से उभरे परिवेश अनुमानित सीट के आंकलन को अवश्य प्रभावित कर सकते हैं। विपक्ष में बैठी कांग्रेस की नजर अवश्य सत्ता की ओर है परन्तु नेतृत्व के नाम अटके दांवपेच एवं तत्कालीन मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की नीति से भड़के कर्मचारियों की अपरिवर्तनीय मनोदशा का प्रभाव कांग्रेस के मतों पर पड़ना स्वाभाविक है। इसके साथ ही प्रदेश में उभरे क्षेत्रीय दल बसपा, सपा, लोकदल आदि के मत भी मुख्य रूप से इसी पार्टी को प्रभावित करेंगे। राज्य में तीसरे मोर्चे की प्रासंगिकता की चर्चा भी मुखर होती दिखाई देने लगी है। प्रदेश के जाट नेता जहां अपना प्रभुत्व उभारने में लगे हैं वहीं तत्कालीन मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के नाम से जुड़े मत छिटक जाने का भी खतरा इस पार्टी के लिये बरकरार है। इस पार्टी के सक्रिय राजनीति में रहे तत्कालीन विदेश मंत्री नटवर सिंह के अलग-थलग होने का भी प्रतिकूल प्रभाव चुनाव के दौरान पड़ सकता है। इस तरह प्रदेश में कांग्रेस के लिए अनेक चुनौतियां सामने हैं जहां विकास के नाम पर फिलहाल भाजपा फिर से सत्ता की गेंद को अपने पाले में लाने के प्रयास में सफल होती दिखाई दे रही है। इस दल को भी अधिकांश निष्क्रिय सिपहसालारों की पृष्ठभूमि से खतरा बना हुआ है। जो पास आते-आते सत्ता की गेंद को भी उछाल सकता है। इस तरह की स्थिति पर भी मंथन जारी है। मध्यप्रदेश एवं छत्तीसगढ़ दोनों प्रदेश के राजनीतिक परिदृश्य राजस्थान से अलग-थलग हैं पर राजस्थान की स्थिति भाजपा के लिए इन दोनों राज्यों से बेहतर मानी जा रही है। जातीय समीकरण पर आधारित चुनावों का गणित कब गड़बड़ा जाय, कह पाना मुश्किल है। पूर्व घोषित सर्वेक्षण के आंकलन मौन जनता के गर्भ में छिपे निर्णय से हमेशा भिन्न देखे जा रहे हैं। जिसके कारण फिलहाल किसी भी राजनीतिक दल के पास सत्ता की गेंद होने का स्पष्ट स्वरूप परिलक्षित नहीं हो रहा है। इस विधानसभा चुनाव में जहां भाजपा नेतृत्व को लेकर स्पष्ट है, वहीं कांग्रेस भटक रही है। इस तरह का परिवेश भी राजनीतिक गणित को प्रभावित कर सकता है। चुनावी मौसमी की इस बयार में सभी मदहोश हैं जो ऐन-केन-प्रकारेण सत्ता की गेंद को अपने पाले में लाने की रणनीति में सक्रिय हो चले हैं।


स्वतंत्र पत्रकार, डी-9, IIIए, खेतड़ीनगर-333504 (राज.)