Friday, October 24, 2008

तेते पांव पसारिए जेती लाम्बी सौर

विकास के नाम पूंजीवादी देशों द्वारा जारी इस युग के नये अध्याय आर्थिक उदारीकरण के दौर के पड़ते प्रतिकूल प्रभाव आर्थिक मंदी के उजागर स्वरूप को आसानी से देखा जा सकता है जहां आम जन की रोटी तो छिनती दिखाई देने लगी है, बढ़ती महंगाई के पांव तले हर वर्ग का जीना दूर्भर हो चला है। मल्टीइंटरनेशनल कंपनियों के नीचे एवं छठे वेतन की बीच फंसे चंद लोगों के पांव भले ही आज के बाजार में टिकते दिखाई दे रहे हो, पर आर्थिक मंदी के दौर में ये ठहराव ज्यादा दिन टिक पायेगा, कह पाना मुश्किल है, जहां इस दौर के जनक मंदासूर के नेवाला एक से एक विशाल धन्नासेठ बनता जा रहा है। शेयरों के निरंतर गिरते जा रहे भाव, बैंकों के बंद होते द्वार, बड़े-बड़े घरानों के उखड़ते पांव कौन से नये आर्थिक युग का सूत्रपात कर रहे हैं, विचारणीय मुद्दा है।
पूंजीवादी देश अमेरिका के आर्थिक जगत में जो हलचल आज मची हुई है, भलीभांति सभी परिचित हैं। नई आर्थिक नीति से उपजे मंदासूर का पहला ग्रास यहीं देश बना है जहां आर्थिक मंदी के दौर ने सभी का जीना दूर्भर कर दिया है। इनसे जुड़े सभी बैंकों की गिरती जा रही साख जहां इनके दिवालियापन होने के संकेत दे रहे हैं, आज सरकारी संरक्षण को तलाश रहे हैं। भले ही इस तरह के हालात पर पर्दा डालने का भरपूर प्रयास नई आर्थिक नीति के जनक कर रहे हों पर यह जगजाहिर हो चुका है, इस तड़क-भड़क जिन्दगी में मात्र छलावा है, जहां अंतत: रोना ही रोना है। शून्य पर खाता खोले जाने, अंधाधुंध ऋण देकर आम जीवन को तबाह करने वाले एवं बेरोजगारी के पैगाम के तहत पैसा लुटाये जाने का खेल खेलने वाले ये तमाम आर्थिक समूह आज मंदासूर का ग्रास बनते जा रहे हैं। निश्चित तौर पर इससे जुड़े लोगों के जनजीवन की क्या दशा होगी, आसानी से विचार किया जा सकता है। इस तरह के परिवेश का खुला नजारा देश के भीतर देखने को मिलने लगा है जहां अभी हाल में हवाई जगत के उड़ान से जुड़ी तमाम जिन्दगी दाने-दाने को मोहताज होती दिखाई देने लगी। जेट विमान की छंटनी एवं एयर इंडिया में छुट्टी के नाम हजारों की छंटनी का उजागर स्वरूप इस नई आर्थिक नीति से ही जुड़ा प्रसंग है जहां वेतन में प्रारंभिक दौर पर कटौती कर जेट विमान की छंटनी को फिलहाल ठहराव मिल चुका है परन्तु भविष्य खतरे से खाली नहीं। इस नई आर्थिक नीति के तहत ही देश भर में संचालित अनेक सार्वजनिक प्रतिष्ठानों, उद्योगों से जुड़े लाखों जनजीवन आज स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेकर सड़क पर भटक रहे हैं। रोजगार बेरोजगार हो चले हैं तथा नये को रोजगार नहीं, ये हालात नई आर्थिक नीतियों के तहत ही उपजे हैं जिनका नजारा आज हर जगह देश भर में देखने को मिल सकता है।
एक समय था, जब देश में बेरोजगारी खत्म करने के लिए मित्र राष्ट्रों के सहयोग से बड़े-बड़े सार्वजनिक प्रतिष्ठान खड़े किये गये। लाखों लोगों को रोजगार दिया गया। एक समय आज आ गया है जहां इन प्रतिष्ठानों से जुड़े लाखों लोगों को बेघर कर दिया जा रहा है। यह दौर नई आर्थिक नीति का है। जहां चंद लोगों पर बेपनाह दौलत लुटाई जा रही है तो तमाम जिन्दगियों को तबाह के सागर में गोते लगाने के लिए छोड़ दिया जा रहा है। इस नये आर्थिक युग के इस दौर में विकास की बातें तो खूब की जा रही है परन्तु खाली पड़े पदों पर नियमित नियुक्ति के बदले अस्थाई तौर पर भर्ती किये जाने की नई परंपरा चालू हो गई है जहां न तो सही वेतन है, न सामाजिक सुरक्षा की कोई जिम्मेवारी। ठेका पध्दति का बोलबाला है जहां लेन-देन व्यापार के तहत भ्रष्टाचार फल-फूल रहा है एवं आम जनजीवन शोषण का शिकार हो रहा है। इस तरह के दृश्य आज सभी सरकारी, अर्ध्दसरकारी, सार्वजनिक कार्यालयों, प्रतिष्ठानों, उद्योगों में देखा जा सकते हैं, जहां शोषण की जनक ठेका पध्दति का फैलाव जारी है।
नई आर्थिक नीति के दौर के पूर्व के वेतनमान के स्वरूप पर एक नजर डालें जहां नीचे से ऊपर के पदों के बीच का अंतराल नहीं के बराबर था। आज यह अंतराल काफी बढ़ चला है। आज सर्वाधिक वेतनमान लाख के आस-पास पहुंच चुका है एवं न्यूनतम 5000रू. है। यह परिवेश मल्टीइंटरनेशनल कंपनियों के कारण ही उपजा है जो इस नये आर्थिक युग की प्रमुख देन है। इस तरह के सर्वाधिक वेतनमान परिवेश के पड़ते प्रतिकूल प्रभाव को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता, जहां अनेक जिन्दगियां बर्बादी के कगार पर खड़ी होती दिखाई देने लगी है। इस तरह की व्यवस्था को पनाह देने वालों को मालूम होना चाहिए कि देश की अधिकांश जनसंख्या सामान्य वेतनमान की जिन्दगी बसर आज भी कर रही हैं जिनकी मासिक आय दो हजार से भी कम है, इस तरह के लोग मल्टीइंटरनेशनल की चकाचौंध से खड़े बाजार में कैसे टिक पायेंगे। बाजार तो सभी के लिए एक जैसा ही है। आज बाजार में सब्जी 25रू. किलो है, चावल 20रू. किलो है, गेहूं 15रू. किलो है तो ये भाव दो हजार मासिक पाने वाले के लिए भी है, दैनिक मजदूरी वालों के लिए भी है तथा पचास हजार, लाख तक मासिक पाने वालों के लिए भी है। इस तरह की विसंगतियां असंतोष का कारण्ा ही बनती है। जहां वेतनमान को लेकर एकरूपता नहीं, अधिक बिखराव है। जहां बाजार पर नियंत्रण नहीं, वहां जीवन जीना निश्चित तौर पर कठिन है। नई आर्थिक नीति ने इस दिशा में सबसे ज्यादा विसंगतियां पैदा की है जिसका खुला नजारा हर जगह देखने को मिल रहा है। एक समय ज्यादा पगार से ढली जिन्दगी अल्प पगार या बेपगार के कगार पर होते ही तबाह होती दिखाई देने लगती है, आत्महत्या के बढ़ते हालात इस तरह की बर्बाद जिन्दगी की मिसाल बनते जा रहे हैं जो नई आर्थिक नीति के तहत ज्यादा देखने को मिल रहे हैं।
नई आर्थिक नीति के तहत उपजे आर्थिक मंदी के दौर से गुजरते देश को बचाने के लिए अपनी राष्ट्रीय नीति का स्वरूप तय किया जाना चाहिए जहां आज के बाजार का स्वरूप देश की सर्वाधिक जनमानस के अनुरूप हो, जहां वेतन में व्याप्त अनेक विसंगतियों को दूर करते हुए न्यूनतम एवं उच्चतम अंतराल को अपने परिवेश के अनुरूप समेटने का प्रयास किया जाय। जहां पूरे देश में निजी, सरकारी, अर्ध्दसरकारी, सार्वजनिक सहित समस्त क्षेत्रों के वेतनमान की दशा एक जैसी रखी जाय तथा लाभांश को विकास कार्यों में लगाया जाय। जहां ठेका पध्दति से लेकर स्थाई कार्यों के तहत वेतनमान का स्वरूप एक जैसे करते हुए सामाजिक सुरक्षा से सभी को जोड़ा जाय। इस तरह के परिवेश जो स्वयं के विवेक एवं देश के अनुकूल होंगे जिस पर अन्य की छाया विराजमान नहीं होगी। निश्चित तौर पर देश को इस नये संकट के दौर से उबार सकेंगे वरना नई आर्थिक नीति से उपजे मंदासूर के ग्रास का शिकार पूरा देश हो जायेगा। वरना इस नये आर्थिक युग का यह मंदासुर एक-एककर सभी को निगल जायेगा। जब यह अपने जन्मदाता को ही नहीं बख्शा तो हमें कैसे छोड़ेगा, विचारणीय मुद्दा है। आज विश्व के एक-एक करके सभी विकसित देश इसका निवाला बनते जा रहे हैं। इसकी छाया हमारे देश पर भी नजर आने लगी है। जिसके परिणामस्वरूप बढ़ती महंगाई, घटते रोजगार, बढ़ते बेरोजगार का उभरता तथ्य स्पष्ट देखा जा सकता है। यदि समय रहते अपने देश के परिवेश के अनुरूप नई आर्थिक नीति के मायाजाल से बचते हुए कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया तो वह समय दूर नहीं जब पूरा देश इस मंदासुर का ग्रास न बन जाय। कवि वृंद ने कहा भी है 'तेते पांव पसारिये जेती लाम्बी सौर'।
-स्वतंत्र पत्रकार, डी-9, IIIए, खेतड़ीनगर-333504 (राज.)

No comments: