Friday, October 24, 2008

मतदाता आखिर जाएं तो कहां जाएं

तुलसी कृत रामचरितमानस की पंक्तियां 'समरथ को कोई दोष न गोसाईं' आज पूर्णरूपेण भारतीय लोकतंत्र के परिवेश में भी लागू होती दिखाई दे रही हैं। जिसके पास ताकत है, जो अर्थबल, बाहुबल से संपन्न हैं, लोकतंत्र पर भी कब्जा उसी का है। इस तरह की ताकत भले ही उसे अनैतिक ढंग से ही क्यों न प्राप्त हुई है। देश का अधिकांश मतदाता उसी के पीछे दौड़ता दिखाई दे रहा है जिसके पास इस तरह की ताकत है। उसी का सम्मान करता नजर आ रहा है जिसके पास यह सबकुछ है। 'पूजे जा रहे अक्सर, देश के ही तस्कर' इस तरह का परिवेश लोकतंत्र का जीता-जागता उदाहरण बन चुका है। यह सर्वविदित है कि इस तरह की ताकत सीधे-सादे लोगों के पास तो हो नहीं सकती, यह भी जगजाहिर है कि इस तरह के परिवेश से जुड़े लोगों का नैतिकता से कोई लेना-देना नहीं। अर्थबल एवं बाहुबल जिसके पास है, वे किस तरह के लोग हैं, सभी जानते हैं, परन्तु लोकतंत्र पर इसी की छाप सर्वोपरि है। जब भी देश में चुनाव की स्थिति उभरती है चाहे पंचायती राज के चुनाव हों या विधानसभा, लोकसभा के चुनाव हों, देश के सभी राजनीतिक दल इस तरह के लोगों की तलाश में जुट जाते हैं जो ऐन-केन-प्रकारेण उन्हें सत्ता तक पहुंचा दें। इस तरह के परिवेश में अर्थबल व बाहुबल वालों पर ही नजर सभी दलों को टिकी रहती है। फिर नेतृत्व में नैतिकता का प्रश्न ही नहीं उभरता। जहां चुनाव आज दिन पर दिन महंगा होता जा रहा, जहां पानी की तरह पैसे का बहाव देखा जा सकता है। चुनाव आज जहां व्यापार का रूप ले चुका है, भ्रष्टाचारी परिवेश से कैसे मुक्ति पाई जा सकती है?
लोकतंत्र के दिन पर दिन बदलते परिवेश जहां अलोकतांत्रिकता साम्राज्य पग पसारता जा रहा है, नेतृत्व की परिभाषा पूर्णत: बदलकर लाठीतंत्र का स्वरूप धारण कर चुकी हो, आखिर मतदाता जाए तो कहां जाए, किस पर विश्वास करे, जहां हर कुएं में भांग पड़ी हो। निश्चित तौर पर इस तरह का परिवेश भारतीय लोकतंत्र के लिए घातक अवश्य है परन्तु चिन्ता किसे? भले ही देश के पूर्व उपराष्ट्रपति श्री भैंरोंसिंह शेखावत आज भ्रष्टाचार पर अपने आक्रोशात्मक तेवर व्यक्त करते हुए भारतीय मतदाताओं को अनैतिक एवं भ्रष्टाचारी को मत नहीं देने के संदेश के साथ भ्रष्ट नेतृत्व के प्रति मतदान न करने हेतु सचेत करते हैं, अच्छी बात है। पर आज के परिवेश में जहां नेतृत्व पर पूर्णरूपेण अलोकतांत्रिक परिवेश का कब्जा हो, जहां अर्थबल एवं बाहुबल का नंगा नाच हो रहा हो, जहां जातिगत जहर युक्त विषैला नाग फुंफकार कर रहा हो, पग-पग पर जहां भू-माफिया, अर्थ-माफिया, शराब-माफिया आदि सरगनाओं का नेतृत्व पर कब्जा होता जा रहा हो, बेचारा भारतीय मतदाता क्या करे, किसे चुने, किसे मत दे? इस तरह के हालात में मतदाता आखिर जाएं तो कहां जाए, जहां हर नेतृत्वधारी का इतिहास नापाक इरादों से नेस्तनाबूत है। जहां हर नेतृत्वधारी का स्वहित राष्ट्रहित से सर्वोपरि बना हुआ है।
आज देश में राजनीतिक दलों की बाढ़ सी आ गई है। हर रोज नये-नये दल उभरकर सामने आ रहे हैं। छोटे-बड़े सभी दल सत्ता तक पहुंचने के प्रयास में नैतिक मूल्यों को सबसे पहले ताक पर रख आगे बढ़ते हुए उनका दामन थाम लेते हैं जो ऐन-केन-प्रकारेण चुनावी वैतरणी को पार करा दे। इस दिशा में नैतिकता की बात करना केवल महज धोखा है। अपराधिक प्रवृत्ति से जुड़े लोगों को हर दल में प्राथमिकता के साथ प्रत्याशी तय करने की दिशा में होड़ देखी जा सकती है। इस तरह के परिवेश में राजनीतिक दलों की कथनी-करनी में व्याप्त अन्तर को साफ-साफ देखा जा सकता है। जातिगत आधार पर प्रत्याशी तय किये जाने की परम्परा राजनीतिक दलों में प्रारंभ से ही चली आ रही है। इस प्रक्रिया में दिन पर दिन बढ़ोतरी ही होती गई है। आज प्राय: सभी राजनैतिक दल इस दलगत राजनीति के शिकार हैं। जिससे अस्थिर राजनीतिक परिवेश उभरकर सामने आए हैं। अनेक क्षेत्रीय दल उभर चले हैं तथा राष्ट्रीय दल टूटते जा रहे हैं। केन्द्र एवं प्रदेश में स्थिर सरकार के गठन का स्वरूप प्राय: इस तरह के परिवेश में समाप्त हो चला है। सरकार के गठन में खरीद-फरोख्त के साथ अनैतिक परिवेश का उभरना अब स्वाभाविक हो गया है जिसे नकारा नहीं जा सकता।
इसी दलगत राजनीति से उभरी जातिवाद की संकीर्णता ने आज आरक्षण का जो जहर घोल रखा है, उससे पूरा देश संकटकालीन स्थिति के बीच दिन पर दिन उलझता जा रहा है। इससे पनपा कहर ठहरने का नाम ही नहीं ले रहा है। आज वोट की राजनीतिक रोटियां देश में पनपे अनेक दलों द्वारा सेंकी जा रही है। जातीय समीकरण से जुड़ी राजनीति ने देश को विघटन के कगार पर ला खड़ा कर दिया है। इस परिवेश से देश का कोई भी राजनीतिक दल अछूता नहीं रहा है। चुनाव के दौरान प्रत्याशी का चयन का मापदंड जातीय आधार अब प्राय: हर दल का बन चुका है। इस तरह के परिवेश के विरोध में स्वर उभरते दिखाई तो दे रहे हैं परन्तु स्वार्थप्रेरित राजनीति के तहत इस तरह के विरोधी स्वर भी टांय-टांय फिस्स होकर रह जाते हैं। जातीय समीकरण की राजनीति से सांप्रदायिकता की आग भी प्रज्ज्वलित हुई है, जिसके शिकार समाज का निर्दोष वर्ग ही हर बार हुआ है तथा वोट की राजनीति का खेल खेला जाता रहा है।
आज देश आरक्षण के साथ-साथ आतंकवाद का भी शिकार हो चला है। जगह-जगह बमकांड की घटनाएं घटती जा रही है। कब कौन शहर, नगर इसका शिकार हो जाय, कह पाना मुश्किल है। इस तरह के परिवेश को भी राजनीतिक हवा मिल रही है। दलगत राजनीतिक परिवेश से जुड़ा यह प्रसंग भी आज देश के लिए घातक बना हुआ है जहां वोट की राजनीति का घृणित खेल आसानी से देखा जा सकता है। इस तरह के परिवेश को प्राय: अपराधी प्रवृत्ति से जुड़े लोगों का अप्रत्यक्ष रूप से संरक्षण मिल रहा है, जो नेतृत्व में भी वजूद बनाये हुए हैं। वोट की राजनीति ने इस तरह के हालात को देश को राहत दिलाने के बजाय आज उलझा ज्यादा दिया है।
वोट की राजनीति के तहत पनपा देश में बढ़ता आतंकवाद, सांप्रदायवाद एवं आरक्षण की बढ़ती आग ने भ्रष्ट नेतृत्व का दामन थाम लिया है जिसे नकारा नहीं जा सकता। आज नेतृत्व में भ्रष्टाचार का बोलबाला है। अर्थ एवं बाहुबल के प्रभावी नेतृत्व की बागडोर ने लोकतंत्र के वास्तविक स्वरूप को इस तरह बदल दिया है जहां नेतृत्व में नैतिकता का स्थान नगण्य हो चला है। जिससे देश दिन पर दिन गंभीर संकट के बीच उलझता ही जा रहा है। नेतृत्व में नैतिकता के अभाव ने भ्रष्ट नेताओं की फौज खड़ी कर दी है जहां, अर्थ-माफिया, भू-माफिया, शराब-माफिया का ही बोलबाला है। 'पूजे जा रहे अक्सर, देश के ही तस्कर' इस तरह के हालात में जहां लोकतंत्र के सजग प्रहरी ही भ्रष्ट आचरण का दामन थाम लिए हैं, जहां कुर्सी के लिए सारी नैतिकता दांव पर लगी है, भारतीय मतदाता आखिर जाएं तो कहां जाएं, किसे मत दें। वह न भी दें तो भी यहां कोई फर्क नहीं पड़ने वाला, विचारणीय पहलू है।
भ्रष्ट नेताओं को मतदाता मत नहीं दे, यह कहना सहज तो है, परन्तु व्यावहारिक रूप से यह कथन कटु सत्य की तरह है। लोकतंत्र के सही स्वरूप उजागर करने के लिए यह जरूरी तो है परन्तु इस तरह के परिवेश के लिए सभी राजनीतिक दलों की सोच स्वहित से ऊपर उठकर राष्ट्रहित में बने। जातिगत, दलगत राजनीति से ऊपर उठकर सभी दल सोचें। अर्थबल एवं बाहुबल का प्रभाव लोकतंत्र से बाहर हो। चुनाव का खर्च सरकार वहन करे तथा अपराधिक प्रवृत्ति से जुड़े लोगों के चयन में सभी राजनीतिक दल नकारात्मक सोच बनाएं तभी लोकतंत्र का सही रूप उजागर हो सकेगा। देश में राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, मिजोरम, दिल्ली पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं जिनके लिए सभी राजनीतिक दल प्रत्याशी चयन की प्रक्रिया में जुड़ चले हैं। यदि यह प्रक्रिया दलगत राजनीति से ऊपर उठकर अपना स्वरूप उजागर कर पाती हैं तो लोकतंत्र के स्वरूप को सही ढंग से परिलक्षित किया जा सकता है। इस हालात में मतदाता सही प्रत्याशी के चयन में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका भी निभा सकते हैं।
-स्वतंत्र पत्रकार, डी-9, IIIए, खेतड़ीनगर-333504 (राज.)

No comments: