Monday, April 19, 2010

भरत मिश्र प्राची का काव्य संसार

डॉ भरत मिश्र प्राची की अब तक प्रकाशित दो काव्य पुस्तकें जीवन ज्योति एवं सूरज को उगने दो में संकलित कुछ रचनाएँ एवं कुछ अप्रकाशित काव्य रचनाएँ यहाँ पर दी जा रही हैं
कृपया अपनी महत्ती राय से अवश्य अवगत कराएँ ।
इसके लिए मेरे दूरभाष ०९४१४५४१३२६ या इ मेल पर सूचित
आपका
भरत मिश्र प्राची

प्रथम भाग

(१)

भोर की तलाश

गाँव की सरहदी पर सूना आकाश ,

खड़ा नहीं कोई भी पनघट के पास।

मौसम बदलने की आश लिए मन में ,

सुन्दर सी बगिया भी खड़ी हें उदास ।

शहर की चकमक में उलझे हुए पांव ,

घुटन भरी जिन्दगीं ,गिन रही साँस ।

नँगे बदन हुए नाच रहा आदमी ,

सभ्यता ,संस्कृति का हो रहा विनाश।

शुद्ध जल वायु को छोड़ दिया गाँव में ,

शहर की गंदगी में कर रहा निवास ।

बाहर से हँसता हैं , अंदर से रोता हैं ,

पहन लिया तन पर आधुनिक लिवास ।

प्राची की किरने जिसको नसीब नहीं ,

अँधेरे में हैं उसे भोर की तलाश ।

(२)

सौदागरों के बीच वतन

कोई आता हैं नहीं उजड़े चमन ,

उगते सूरज को सभी करते नमन ।

शक्ति के आगे झुकाते शीश अपने ,

खिंच लेते स्वयं ही बहते पवन ।

स्वार्थ के घेरे सभी ओर बढ़ चले ,

फेर लेते परचित भी अपने नयन ।

देखिये हर रोज बदलते चेहरे ,

जब यहाँ चलते रहते हैं सदन।

फट गये बस्तर आज उलझकर ,

घूम रहे सडक पर नँगे बदन ।

बेशर्मी की हद तो इनकी देखिये ,

हंस रहे हैं बेचकर अपने वतन ।

भूलकर के वसूल बढ़ा रहे हैं हाथ ,

सत्ता की दौड़ में सब हो रहे मगन।

चल रहा बेमेल संगम का यहाँ दौड़ ,

तख्त ताज के लिए सब हो रहे दफन।

कांप गया इमान देखकर के हालात ,

भर रहा गर्द से आज सारा गगन ।

कल उदय प्राची में होगा या नहीं ,

सौदागरों के बीच फँस गया वतन ।

(३)

घोटाला

सफेदपोश वालों का ही बोलबाला हैं ,

तन गोरा दीखता पर मन जिसका कला है।

बच नहीं पाया कोई विभाग यहाँ इनसे ,

जहाँ हाथ डालो , वहीं नया घोटाला हैं।

बदल गई परिभाषाएं अपराध की यहाँ ,

बगल में बन्दूक , हाथ कंठी माला है ।

सौदागरों के हाथ बिक रहा है यह देश ,

लुटने वाला ही अब सबका रखवाला है।

समझौता की नीतियों पर टिके है पांव ,

गिरने से नही अब कोई बचाने वाला हैं।

घूम रहे निडर हो अंगरक्षकों के साथ ,

देश में हर रोज हो रहा कांड हवाला हैं ।

संसद का हर गलियारा सशंकित है आज ,

देश पर कोई न कोई संकट आने वाला है।

कलम के सिपाही चिंतित है यह जानकर ,

हर आवाज पर अब लगाम लगने वाला है।

प्राची के साथ चिंतित है हर दिशाएं आज ,

प्रगति के नाम आज देश हो रहा दिवाला है ।

(४ )

नव वर्ष का अभिनन्दन

उजड़ रहा है हर वर्ष हमारा यह नंदन ,

देखकर हालात , मन करता है क्रंदन ।

कल्पित तन, कुंठित मन,घुटी सांसे ,

करें कैसे नववर्ष का हम अभिनन्दन।

फंसे हुए है पांव जिनके दलदल में ,

कर रहे वे ही हर जगह गठबंधन ।

फैला फरेबियों का जाल यहाँ ऐसा,

जा रहा विदेश सारा का सारा कंचन ।

हल हुई नहीं समस्या रोजी रोटी की ,

पढाई ,बीमारी में बिक रहा है कंगन ।

लुट रहे देश को यहाँ जो सरे आम ,

हो रहा हर जगह उनका अभिनन्दन।

भूलते जा रहे हर वर्ष उनको सभी ,

जिसने बचाया जान देकर यह वतन।

प्राची के मार्ग सीना ताने आज भी ,

आने को तैयार इस देश का दुश्मन ।

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(५)

घुटन

इस नगर , इस बस्ती में बसते कैसे लोग ,

चारो तरफ है धुँआ , रहते कैसे लोग।

अगल कौन है , बगल कौन न जानता कोई ,

इस अपरचित हालात को सहते कैसे लोग ।

जो भी आया पास में , अपनों सा ही लगा ,

अपने से ही ठग गये , कहते कैसे लोग ।

पग में पग फंसाकर , खेल जो खेलते रहे ,

उलझ कर फिसल गये , हँसते कैसे लोग ।

आग तेल लेकर चले दूसरों का घर जलाने ,

खुद के जल गये हाथ , अब बचते कैसे लोग।

क़त्ल जो होता रहा, सब आँख से देखते रहे,

बेजुबान हो गये , अब लड़ते कैसे लोग ।

अतिक्रमण के दौर में , सडक तो लीलते रहे ,

भटक गये डगर से ,अब चलते कैसे लोग ।

आधुनिक लिवास से पर्यावरण भूल गये ,

इस तरह के घुटन को, सहते कैसे लोग।

आस पास बना ली है , अब ऊँचे ऊँचे महल ,

प्राची के सूर्योदय को , देखते कैसे लोग ।

(६)

उगल रहे सब जहर

कट रहे वृक्ष , उजड़ रहे नगर ,

बस रहे हर रोज ,नये नये शहर।

मोटर , कल , कारखाने मिलकर,

उगल रहे हैं , सब यहाँ जहर।

अतिक्रमण के निरंकुश कदम,

अब रौंद रहे हैं डगर- डगर।

आधुनिक लिवास में लिपटा तन ,

उजाड़ रहा है अब बसा घर ।

बेरोजगारी , बीमारी , महंगाई ,

अब बढ़ने लगी यहाँ इस कदर।

परेशां हो चला हर इन्शान ,

छीन गयी नींद आठो पहर।

अहिंसा का अलख जगा रहे,

रक्त से सने हाथ तर - बत्तर।

इधर खाई , उधर है कुआं ,

जाएँ तो जाएँ आखिर किधर।

उदारीकरण का नशा आज,

फैल रहा है यहाँ इस कदर।

देश चौपट के कगार खड़ा,

विदेशी पग यहाँ रहे पसर।

अब लुटने लगे हैं हर रोज,

कैसे करें लोग यहाँ बसर ।

छीन रहे अधिकार अब सारे ,

फिर भी मौन हैं सबके अधर।

आगे उड़ न सके देश कभी ,

प्रगति के नाम काट रहे पर।

गुलामी के डगर दूर नहीं,

यदि यहीं हालात रहे अगर।

मौत को देते हैं निमंत्रण ,

काट कर पेड़ - पौधों के सर।

स्वार्थ के वशीभूत मानव ,

अब लीलता प्राची का सहर।

(७)

नव वर्ष का उपहार

आ रहा है नव वर्ष , जा रहा है गत वर्ष ,

इन मिलन की बिन्दुओं पर ,है नया उत्कर्ष।

मची हुई हा हा कार , दर्द भरी चीत्कार,

डिग्रियां लेकर यहाँ , हैं सैकड़ों बेकार।

बढ़ रही महंगाई , न घट रही बीमारियाँ ,

इन सभी को लेकर , आज हो रहा संघर्ष।

देश का है जो लाल , बन गया वहीं दलाल ,

भेज रहा विदेश में, सब देश का ही मॉल।

आयकर देता नहीं , है किसी से भय नहीं,

अंगरक्षकों के बीच , मना रहा है हर्ष ।

वायदों की कतार , जहाँ खोखले आधार ,

धोखा घडी से भरा , हर एक कारोबार ।

गर्दन पर तलवार , गठबंधन की सरकार ,

द्वन्द में उलझ गया , जहाँ हर निष्कर्ष ।

पनप रहा है द्वेष , बचा न अब कुछ अवशेष ,

खींचतान के बीच में , मिट रहा है यह देश,

तस्करी व् लूटमार , नववर्ष के उपहार ,

दिन रात हो रहा हैं यहाँ आपसी आघर्ष ।

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(८)

आतंकवाद

चारो ओर पनप रहा आतंकवाद ,

मिट रहा है हर रोज मानवतावाद।

सिरफिरे घूम रहे इस तरह आजकल ,

गुमसुम हो गई है आज हर फरियाद ।

सभी मुल्क में मच गई फिर से भगदड़ ,

अशांत हो चला आज सारा उन्माद ।

बारूद की ढेर पर बैठा हर मुल्क ,

गिन रहा सांसे एक एक कर याद ।

सांप छुछुंदर का खेल रहे जो खेल ,

खोखली हो रही है उनकी बुनियाद ।

फंस गए है अपनी चाल में वे खुद ही ,

चेला बन गया उनका आज उस्ताद ।

गुमराह हो रही है पीढ़ी आजकल ,

चढ़ रही बेदी पर हर रोज औलाद ।

एक नहीं अनेक आतंकी यहाँ पर ,

अपने ही मुल्क को कर रहे बर्बाद ।

दूसरा भाग

(१)

सूरज को उगने दो

सूरज उग रहा है ,

तो उसे उगने दो ,

मुझे तंग न करो,

सो लेने दो ।

सूरज का उगना ,

और ,

मेरा जगे रहना ,

अपनों को कभी भाता नहीं है ।

जब तक मैं ,

जगा रहता हूँ ,

पास कोई आता नहीं है ।

जाग - जाग कर ,

बहुत कुछ जान चूका हूँ ,

एक दुसरे को ,

पहचान चूका हूँ ।

सूरज उग रहा है ,

तो उसे उगने दो।

(२)

हम देश के राजा है

देश की जनता ने ,

बड़े शौक से ,

हमारे सर ताज रखा है ,

हम देश के राजा है ।

जो चाहेंगे ,वहीं करेंगे ,

न सुनेंगे ,न सुनने देंगे ,

बेचना है ,तो बेचेंगे ,

आप क्या कर लेंगे ?

हम देश के राजा है ।

भारत पेट्रोलियम ,हिंदुस्तान पेट्रोलियम ,

फिलहाल नहीं बेच पाए ,

तो क्या हुआ ?

आदालत में जायेंगे ,

संसद को बतलायेंगे ,

अपने पक्ष में ,

हवा बनायेंगे ,

यदि फिर भी,

बात नहीं बन पाई ,

तो इंडियन आयल बेच डालेंगे ।

अपने सर ,

कोई बोझ नहीं रखेंगे ,

आज तेल तो कल रेल ,

परसों ,

पूरा देश बेच डालेंगे।

पिछली सरकार ने भी तो ,

सोना गिरवी रखा था ,

हम देश को गिरवी रख देंगे ,

आप क्या कर लेंगे ?

हम देश के राजा है ।

(३)

निर्दोष लहू न बहने दो !

देश के भीतर ,

लाखों मंदिर , मस्जिद हैं ,

जो टूट रहे हैं ,

विखर रहे हैं ,

उजड़ रहे हैं ,

खंडहर होते जा रहे हैं ,

पर इसकी चिंता किसी को नहीं ।

सभी की नजरें ,

अयोध्या पर टिकी है,

काशी , मथुरा पर टिकी हैं ,

जहाँ देश की धार्मिक भावनाएं ,

जागृत होती है ,

जहाँ से भुनाने की प्रक्रिया ,

शुरू होती है ।

आज मंदिर , मस्जिद के बीच ,

समां गई वोट की राजनीति ।

न मंदिर बनाना हैं ,

न मस्जिद गिराना हैं ,

धर्म के नाम पर ,

देश की जनता को उलझाना हैं ।

ताकि ,

देश में जब जब चुनाव हो,

मंदिर - मस्जिद के नाम ,

यहाँ पर लोगों को ,

आपस में लड़ाया जा सके ,

मगरमच्छी आसूं बहाकर ,

आपने पक्ष में ,

जनमत जुटाया जा सके।

यहाँ,

अब हर राजनैतिक दलों की ,

वोट की खातिर ,

यह सामान्य सी प्रक्रिया बन चुकी हैं,

पहले लड़ाना ,

फिर मनाना ,

तब भुनाना ।

जब- जब भी यहाँ चुनाव आता हैं ,

निर्दोष लहू बहा करता हैं ,

पर कोई नहीं कहता ,

वोट की राजनीति से ,

धर्म को न जोड़ों ,

लोगों को न फोड़ों ,

अपने स्वार्थ के लिए ,

कुर्सी खातिर ,

देश को न तोड़ों ,

मानव को ,

मानव ही रहने दो ,

निर्दोष लहू न बहाने दो ।

(४)

लूट का नजारा

एक बार इस देश में ,

आया एक विदेशी गौरी ,

जिसने इस देश को ,

जी भर कर लूटा ।

और हम ,

लूट का यह नजारा ,

चुप चाप देखते रहे ,

आपस में लड़ते रहे ,

देश गुलाम हो गया ।

इतिहास ने करवटें बदली ,

और हम आजाद हो गये ।

परन्तु लुटेरे ,

लगातार इस देश को लुटते रहे ,

और हम ,

आज तक पहचान नहीं पाए,

कौन देशी हैं , कौन विदेशी ।

पहले विदेशियों ने इसे ,

जी भर कर लूटा ,

और आज अपने ही लूट रहे है ।

जब बांध खेत को खाए ,

तो कौन बचाए ?

जब अपना ही चिर हरण करें ,

तो किस पर विश्वास करें ?

देशी हो या विदेशी ,

क्या फर्क पड़ता है ,

लुटेरा तो लुटेरा ही होता है ।

देश पहले भी लुटता रहा ,

आज भी लूट रहा है ,

और हम सभी ,

लूट का नजारा देख रहे है ।

( ५ )

बुढ़ापा

वाह रे बुढ़ापा !

तेरी अजीब सी माया

बदल गई काया

जिसे देखकर

पास नहीं कोई आया ।

जब तक रही साँस

बुझी नही प्यास

जब निकल जाएगी साँस

तब उगाई जाएगी

टूटे विश्वास पर हरी हरी घास ।

(६)

ठिठुरती काया

सड़क की परिधि में

खुले आकाश के नीचे

श्वेत पट के बीच

अपने आप को छिपाए हुए

प्रतिद्वंदी की भावना

मन में दबाए हुए

न जाने कब से

पड़ी हुई थी

एक अभिशप्त

ठिठुरती काया ।

वह अवलोकन कर रही थी

बार -बार

उन सजल नेत्रों से

जो न जाने कब से

अपने आप से

समझौता कर लिए थे ।

उदिग्न भाव

उठ रहे थे बार - बार

और शांत हो जाते

स्वयं ही

उफनते दूध की तरह ।

शीतलहरी

थपेड़े मार रही थी

प्रतिद्वंदी बनकर

या सुला रही थी

दोस्त बनकर

कुछ कहा नहीं जा सकता ।

क्योंकि

अभिव्यक्ति लुप्त हो चुकी थी

सिर्फ बची हुई थी

झुरिया पड़ी आकृति

जो न जाने कब से

अपने आप से

अन्दर ही अन्दर

भावनाओं से दबकर

समझौता कर चुकी थी ।

(७)

अजनबी

वह

चौराहे के बीचो बीच

एक ऐसी जगह

आकर रुक गया

जहाँ से हर एक को

अच्छी तरह देख सके ।

उसके अधर खुले हुए थे

शब्दों के झुण्ड

एक प एक

तालुओं से लिपटे हुए थे

फिर भी न जाने क्यों वह

किसी से कुछ कह नहीं रहा था।

बिखरे हुए बाल से

हवा टक्कर ले रही थी

और वह शांत खड़ा था

जिसके आगे

कुछ सूखे पुष्प बिखरे थे

जिनकी पंखुरियों पर

अलगाव के लक्षण

साफ साफ दिखाई दे रहे थे

नफरत की छाया

आस -पास मंडरा रही थी

फिर भी वह

मुस्कुराने की कोशिश कर रहा था

पर उसकी मुस्कराहट

न जाने कहाँ गायब हो गयी थी

उसके हाथ

न जाने कब से

उससे अलग हो चुके थे

नेत्र होते हुए भी वह

नेत्रहीन बना हुआ था

फिर भी

मन में आश लिए खड़ा था

शायद कोइ पहचान ले ।

परिचितों का झुण्ड

एक - एक कर

सामने से गुजरता गया

पर किसी ने भी

मुड़कर उसकी तरफ

एक बार भी देखा नहीं

अब वह थक चूका था

मूक दृष्टी से संबोधित करते हुए

अपने आप को

उन लोगों से

जो उसे जानकर भी

उसे अजनबी बना गये ।

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