Monday, July 14, 2008

संकट के कगार पर खड़ी सरकार

केन्द्र की संप्रग सरकार के नेतृत्व की ओर से परमाणु करार की दिशा में बढ़े कदम डील से नाराज वाम दलों के समर्थन वापसी से एक बार फिर केन्द्र की सरकार संकट के कगार पर खड़ी दिखाई देने लगी है। केन्द्र की संप्रग सरकार को बाहर से समर्थन दे रहे वाम दलों की 59 की संख्या सर्वाधिक होने के कारण सरकार का भविष्य खतरे में अवश्य पड़ गया है परन्तु सपा द्वारा सरकार को समर्थन देने की घोषणा एवं राष्ट्रपति को सहमति पत्र सौंपने के उपरान्त आवश्यक बहुमत जुटाये जाने की स्थिति से वर्तमान हालात में केन्द्र की संप्रग सरकार अपने आपको सुरक्षित महसूस करती नजर आ रही है। राजनीतिक दांवपेंच के इस खेल में सत्ता की गेंद किस पाले में गिरेगी, कह पाना अभी मुश्किल है।
इतिहास के आइने में झांके तो राजनीति में किसी पर भरोसा कर पाना कतई संभव नहीं। पूर्व में स्व. चौधरी चरण सिंह के कार्यकाल में तत्कालीन कांग्रेस पार्टी द्वारा समर्थन देकर चौधरी चरणसिंह को प्रधानमंत्री बनाये जाने की घोषणाएं संसद में विश्वास मत हासिल करने के वक्त कौनसे रूप में उभरकर सामने आई, पूरा देश भलीभांति जानता है। कांग्रेस पार्टी में अचानक आये बदलाव नीति के कारण चौधरी चरणसिंह संसद में अपना बहुमत नहीं सिध्द कर पाये तथा सरकार अल्पमत में आ गई। परिणामत: देश में दुबारा चुनाव हुए। यदि इसी तरह की पुनरावृति 22 जुलाई को संसद में विश्वासमत के समय उभर जाती है तो सरकार का अल्पमत में आना निश्चित ही है। इस दिशा में सपा द्वारा समर्थन की पृष्ठभूमि में प्रमुख भूमिका निभा रहे सपा के महामंत्री अमर सिंह के मन में पूर्व में संप्रग सरकार के गठन के समय उपजे अनादर भाव के प्रतिफलस्वरूप पनपे प्रतिकार एवं चौधरी अजीत सिंह के मन में पूर्व में कांग्रेस द्वारा अपने पिता चौधरी चरणसिंह के प्रति अपनाई गई धोखा नीति के प्रतिफल से उपजे प्रतिकार का स्वरूप विश्वासमत के हालात को बदल सकता है। वैसे फिलहाल इस तरह के संकट के अंदेशे से वर्तमान हालात दूर ही नजर आ रहे हैं। वामदलों के समर्थन वापसी से उपजे संकट से सरकार को बचाने की दिशा में सपा द्वारा स्वयं पहल करने की पृष्ठभूमि को उत्तरप्रदेश में बसपा साम्राज्य से सपा को बढ़ते खतरे से बचाव की दिशा में बढ़ा कदम माना जा रहा है जहां लेन-देन की राजनीति में एक दूसरे के संरक्षण की पृष्ठभूमि उभरती दिखाई देती है। विश्वासमत के समय उभरे इस पृष्ठभूमि से हालात सरकार का भविष्य तय कर सकते हैं जहां सरकार इस तरह के हालात में संकट के कगार पर खड़ी है।
वामदल एवं भाजपा दोनों एक दूसरे के नीतिगत एवं वैचारिक पृष्ठभूमि में विरोधी रहे हैं। एक को नार्थ पोल कहा जाता है तो दूसरे को साउथ पोल। नार्थ पोल एवं साउथ पोल का एक दिशा में ध्रुवीकरण होना कौनसा रूप धारण कर सकता है, भलीभांति सभी परिचित हैं। विश्वासमत के समय दोनों सरकार के विरोध में खड़े दिखाई दे रहे हैं। इस दिशा में दोनों की अपनी-अपनी वकालत है। डील के विरोध में सरकार को विश्वासमत के समय अपना विरोधी मत प्रकट करते वक्त जो वामदलों का नजरिया है, वह भाजपा का कदापि नहीं। भाजपा एवं विरोधी पार्टी के रूप में अपनी पृष्ठभूमि निभाती नजर आ रही है। परमाणु डील के मामले में आर्थिक नीति के पक्षधर रही भाजपा की सोच सकारात्मक तो रही है परन्तु डील पर उभरे विवाद को लेकर संकट में घिरी सरकार से उत्पन्न राजनीतिक परिवेश का पूरा लाभ विपक्ष के रूप में वह उठाना भी चाहती है। संप्रग सरकार के प्रमुख सहयोगी वामदल परमाण्ाु डील पर शुरू से ही अपना विरोध जता रहे हैं। इस मुद्दे पर संप्रग सरकार के नेतृत्व एवं वामदलों के बीच पूर्व में कई बार मनमुटाव की स्थिति भी उभरती दिखाई दी है। संप्रग सरकार के नेतृत्व द्वारा डील पर विशेष सहयोगी वामदलों के नकारात्मक रूख के बावजूद भी अमल करने की पहल सरकार को संकट के कगार पर खड़ी कर दी है। इस तरह के उभरे हालात का विरोध में खड़ी भाजपा पूरा-पूरा राजनीतिक लाभ उठाना चाहती है। इसी कारण डील के पक्ष में सकारात्मक पृष्ठभूमि होते हुए भी महंगाई जैसे ज्वलंत मुद्दे पर सरकार को घेरने की भरपूर तैयारी कर रही है। भाजपा के प्रमुख घटक अकाली दल पर सरकार के पक्ष में जाने का संदेह उभरता तो दिखाई दे रहा है परन्तु घटक की पृष्ठभूमि एवं विरोधी पार्टी का स्वरूप इस तरह के हालात से इस दल को बाहर ही रख पायेगी, ऐसा भी माना जा रहा है। विरोधी पार्टी के रूप में भाजपा एनडीए के साथ सरकार के विश्वासमत के विरोध में मतदान करने की घोषणा कर चुकी है। वामदल, भाजपा एवं इसके सहयोगी दलों की पृष्ठभूमि विश्वासमत के समय सरकार के विरोध मत के रूप में स्पष्ट रूप से दिखाई दे रही है। सपा का केन्द्र सरकार के साथ होने की पृष्ठभूमि से बसपा का भी सरकार के विरोध में मत जाहिर करना स्वाभाविक है। इस तरह के हालात के बावजूद भी संप्रग सरकार अपने आपको सुरक्षित महसूस कर तो रही है परन्तु आंकड़े उपरी सतह पर तैरते नजर आ रहे हैं। इन आंकड़ों के तह में छिपा विश्वासघात सरकार को संकटकालीन स्थिति में क्या उभार पायेगा? विचारणीय मुद्दा है।
देश के साथ विश्व की पूरी निगाहें 22 जुलाई के मतदान पर टिकी है। जहां डील जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे पर सरकार का भविष्य टिका है जहां विश्व की पूंजीवादी नीतिगत पक्ष-विपक्षीय दृष्टिकोण शामिल हैं। यदि डील को लेकर सरकार विश्वासमत हासिल करने में सफल नहीं हो पायी तो डील से जुड़ी शक्तियों को भी भारी आघात पहुंचेगा। वैसे डील को सफल बनाने की पृष्ठभूमि में विश्व की शक्तियां भी ऐन-केन-प्रकारेण अप्रत्यक्ष रूप से सहयोग कर रही हैं। उससे जुड़े लोगों की तादाद भी काफी है। परन्तु स्वार्थमय परिवेश की उभरती पृष्ठभूमि कुछ नया परिदृश्य भी उभार सकती है। झारखंड प्रदेश में जब निर्दलीय मधु कोड़ा की सरकार संचालन की पृष्ठभूमि में उभर सकती है तो वर्तमान सरकार से जुड़े सहयोगी दलों के बीच नेतृत्व की नई तस्वीर पैदा भी की जा सकती है। इस तरह के हालात निश्चित तौर पर विश्वासमत के समय नये स्वरूप उजागर कर सकते हैं। राजनीतिक क्षेत्र में सबकुछ संभव है। छल, बल, साम, दंड, भेद आदि से सदा ही राज की नीति के साथ जुड़े प्रसंग रहे हैं। स्वार्थ परायण राजनीति में कौन अपना है, कौन पराया, कह पाना मुश्किल है। वैसे डील के मुद्दे पर विश्वासमत प्राप्त करने की दिशा में केन्द्र की सरकार घटक दलों के साथ जोर-शोर से सक्रिय हो चली है। इस दिशा में घटित घटनाओं पर नजर टिकी है। डील को देश हित में बताने का भी प्रयास सरकार द्वारा जारी है। परन्तु पूर्व में पोकरण परमाणु परीक्षण के दौरान भारत के साथ अमेरिका का दुर्भावना पूर्ण व्यवहार उसके साथ हो रही डील को संदेह के कटघरे में भी खड़ा करता दिखाई दे रहा है। भारत ने जब भी आत्मनिर्भर बनने की दिशा में अपना कदम बढ़ाया, अमेरिका को रास नहीं आया है। इस तरह के हालात परमाणु डील पर सवालिया निशान खड़े करते अवश्य दिखाई दे रहे हैं। जिसके बीच 22 जुलाई को केन्द्र की संप्रग सरकार विश्वासमत के कटघरे में खड़ी दिखाई देगी। जहां देश का भविष्य टिका है। अब तो सरकार के सहयोगी दलों के बीच से भी विरोधी स्वर उभरते नजर आने लगे हैं जिसके कारण संकट के कगार पर खड़ी सरकार को बचा पाना कठिन है।

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