Thursday, March 19, 2009

मंदी की मार, मंहगाई की तेज धार से आम जन बेकरार

नई आर्थिक नीतियों के तहत विशाल पैमाने पर विश्व पटल पर फैली अनियमितताओं एवं लापरवाही जैसी अनेक विसंगतियों के कारण आई मंदी की मार से अनेक घर बर्बादी के कगार पर पहले ही पहुंच चुके है। इस परिवेश में उदारीकरण एवं वैश्वीकरण के तहत विश्व बैंक से निकाली गई अरबों-खरबों की राशि कार्य कर रहे करोड़ों लोगों को स्वेैच्छिक सेवा निवृत्ति के माध्यम से बेकार करने हेतु बांटकर, एन. जी. ओ. के बीच लुटाकर एवं अनाप सनाप मार्ग में अपव्यय कर जो संचित धन के साथ अनियमितताएं बरती गई , उसी का यह परिणाम है कि आज पूरे विश्व स्तर पर मंदी का दौर दिखाई दे रहा है।हमारा देश इस तरह के परिवेश से अछूता तो रहा नहीं, साथ ही सस्ती लोकप्रियता बटोरने हेतु कर्ज माफ कर जो संचित धन का दुरुपयोग किया है ,उसी का परिणाम आज हम सभी मंदी के रुप में भुगत रहे है।यदि विश्व बैंक से ली गई उधार राशि को स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति के वजाय उद्योग विकास में लगाया गया होता तो आज इस देश का विकास के पैमाने पर नया ही नक्शा होता तथा मंदी की मार के प्रतिकूल प्रभाव से बचाव भी हो जाता।
इधर मंदी की मार से आम जनजीवन परेशान तो है ही, दिन पर दिन बढती जा रही मंहगाई की तेज धार के आगे वह बेकरार होता जा रहा है।यहां की सरकार अपने संवाद में एक तरफ तो मंदी के प्रभाव को देश के भीतर नगण्य बता रही है तो दूसरी ओर इसके बचाव में छटनी के बजाय कटौती किये जाने का मार्ग सुझा रही है। इस तरह के दोहरे मापदंड से देश के भीतर आमजन की समस्याएं घटने के बजाय बढ़ चली है। सरकार के आकडें में मंहगाई का स्वरुप भी कुछ इसी तरह के दोहरे मापदंड के बीच घिरा दिखाई दे रहा है जहां मंहगाई की दर सरकारी आकडें में पहले से काफी कम दिखाई दे तो रही है पर वास्तविकता में बाजार में जहां यहां का आम उपभोक्ता खड़ा है वहां का नजारा ठीक इसके विपरीत देखा जा सकता है। आज मंहगाई दर 13 फीसदी से घटकर 3.35 के आस - पास पहुंच तो चुकी है परन्तु बाजार में दैनिक प्रयोग के सामान पहले से कहीं ज्यादा भाव में धड़ल्ले से बिक रहे है तथा सरकार मंहगाई दर कम होने की वकालत कर रही है। इस दिशा में बाजार के भाव को देखा जा सकता है जहां चीनी, दाल, आटा, चावल, तेल, मसाला, प्याज आदि पहले से ज्यादा दाम में बिक रहे है ं। आज के बाजार भाव का उस माह के बाजार भाव से तुलनात्मक अध्यन किया जा सकता है जब मंहगाई दर सर्वाधिक रही है।
लोकसभा चुनाव नजदीक आते देख केन्द्र सरकार आम जन को लुभाने की दृष्टि से मंदी की मार से बचने की दिशा में राहत दिये जाने की अनेक घाेंषणाएं तो दिन पर दिन करती जा रही है परन्तु इसका कहीं भी सकरात्मक प्रभाव नजर नहीं दिखार्इ्र दे रहा है । आज भी यहां कार्य कर रहे अनेक लोगों को ऐनकेन प्रकारेण मंदी के नाम निकाला जा रहा है और सरकार मंदी से बचाव का मार्ग तलाश रही है। यह सरकार की आमजन के प्रति कैसी प्रतिबध्दता है विचार किया जाना चाहिए। जहां सरकार द्वारा मंदी के इस दौर में छंटनी किये जाने के वजाय कटौती किये जाने का सुझाव देना आज शोषण के नये स्वरुप को उजागर कर दिया हैे। सरकार की इस तरह की घोषणा होते ही निजी कंपनियों में प्रत्यक्ष / अप्रत्यक्ष रुप से वेतन कटौती का सिलसिला शुरु हो गया है साथ ही अपने को सुरक्षित समझने वाले सार्वजनिक क्षेत्रों के लोग भी कहीं कहीं इस तरह के परिवेश के शिकार हो चले है। सरकार अपने बचाव में भले ही जो भी तथ्य जारी करे , इसके दोहरेपन रवैये के कारण सारे तथ्य झूठे पड़ते जा रहे है।
देश की अधिकांश जनता मध्यमवर्गीय है। जो रोजगार पर टिकी है। रोजगार नहीं मिलने या छीन जाने पर उसकी मनोदशा कैसी हो सकती है, सहज अनुमान लगाया जा सकता है। मंदी के इस दौर में मंदी के नाम हो रहे शोषण से बचाव किये जाने की अपेक्षाएं उसे सरकार से है ं। सरकार का भी दायित्व होता है कि संकट के दौरान उसकी रक्षा करे जिसके हित के निमित्त उसका स्वरुप परिलक्षित होता है। मंदी पूंजीवादी व्यवस्था से उपजी नई आर्थिक नीति की देन है जिसका शिकार यहां का हर मध्यमवर्गीय परिवार हो रहा है। मंदी एवं मंहगाई आज दोनों ही भारत जैसे विकसित देश के लिये घातक है। इस तरह के परिवेश से निजात पाने का मार्ग प्रशस्त आमजन द्वारा गठित सरकार को ही करना होगा तभी उसका स्वरुप साकार हो सकेगा।
देश में लोकसभा चुनाव की घोषणा हो चुकी है। चुनाव घोषणा के साथ ही आचार संहिता भी लागू हो गई है। मंदी एवं मंहगाई दोनों से यहां के आमजन आज परेशान है, जिसका लोकसभा चुनाव पर प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है। देश के सभी राजनैतिक दल इस चुनाव में सर्वाधिक सीट पाकर केन्द्र की सत्ता पर कब्जा करने की प्रक्रिया में जुट गये हैं। मंदी की मार एवं मंहगाई की तेज धार के बीच खड़ी देश की आम जनता का ही निण्र्ाय नई लोकसभा के स्वरुप को निर्धारित करेगा।

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